मित्रों!
दोहा छन्द अर्धसम मात्रिक छन्द है। इसके प्रथम एवं तृतीय चरण में तेरह-तेरह मात्राएँ तथा द्वितीय एवं चतुर्थ चरण में ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ होती हैं। दोहा छन्द ने काव्य साहित्य के प्रत्येक काल में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हिन्दी काव्य जगत में दोहा छन्द का एक विशेष महत्व है। दोहे के माध्यम से प्राचीन काव्यकारों ने नीतिपरक उद्भावनायें बड़े ही सटीक माध्यम से की हैं। किन्तु दोहा छन्द के भेद पर कभी भी अपना ध्यान आकर्षित नहीं करना चाहिए।
सच तो यह है कि दोहे की रचना करते समय पहले इसे गाकर लिख लेना चाहिए तत्पश्चात इसकी मात्राएँ जांचनी चाहिए ! इसमें गेयता का होना अनिवार्य है ! दोहे के सम चरणों का अंत 'पताका' अर्थात गुरु लघु से होता है तथा इसके विषम चरणों के आदि में जगण अर्थात १२१ का प्रयोग वर्जित है ! अर्थात दोहे के विषम चरणों के अंत में सगण (सलगा ११२) , रगण (राजभा २१२) अथवा नगण(नसल १११) आने से दोहे में उत्तम गेयता बनी रहती है! सम चरणों के अंत में जगण अथवा तगण आना चाहिए अर्थात अंत में पताका (गुरु लघु) अनिवार्य है|
सृजन मंच ऑनलाइन सीखने और सिखाने का मच है। यहाँ मैं भी आप से कुछ सीखूँगा और आशा करता हूँ कि आपको भी यहाँ कुछ अवश्य मिलेगा सीखने के लिए।
मैं कोई विद्वान नहीं हूँ लेकिन अब तक जो भी अध्ययन किया है उसके कारण आज से दोहों पर आयीं अब तक की पोस्टों की समीक्षा करने का प्रयास कर रहा हूँ। इस क्रम में सबसे पहले इस मंच पर प्रकाशित भाई अरुण कुमार निगम जी के दोहों पर कुछ कहना चाहता हूँ।
दोहा छन्द अर्धसम मात्रिक छन्द है। इसके प्रथम एवं तृतीय चरण में तेरह-तेरह मात्राएँ तथा द्वितीय एवं चतुर्थ चरण में ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ होती हैं। दोहा छन्द ने काव्य साहित्य के प्रत्येक काल में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हिन्दी काव्य जगत में दोहा छन्द का एक विशेष महत्व है। दोहे के माध्यम से प्राचीन काव्यकारों ने नीतिपरक उद्भावनायें बड़े ही सटीक माध्यम से की हैं। किन्तु दोहा छन्द के भेद पर कभी भी अपना ध्यान आकर्षित नहीं करना चाहिए।
सच तो यह है कि दोहे की रचना करते समय पहले इसे गाकर लिख लेना चाहिए तत्पश्चात इसकी मात्राएँ जांचनी चाहिए ! इसमें गेयता का होना अनिवार्य है ! दोहे के सम चरणों का अंत 'पताका' अर्थात गुरु लघु से होता है तथा इसके विषम चरणों के आदि में जगण अर्थात १२१ का प्रयोग वर्जित है ! अर्थात दोहे के विषम चरणों के अंत में सगण (सलगा ११२) , रगण (राजभा २१२) अथवा नगण(नसल १११) आने से दोहे में उत्तम गेयता बनी रहती है! सम चरणों के अंत में जगण अथवा तगण आना चाहिए अर्थात अंत में पताका (गुरु लघु) अनिवार्य है|
सृजन मंच ऑनलाइन सीखने और सिखाने का मच है। यहाँ मैं भी आप से कुछ सीखूँगा और आशा करता हूँ कि आपको भी यहाँ कुछ अवश्य मिलेगा सीखने के लिए।
मैं कोई विद्वान नहीं हूँ लेकिन अब तक जो भी अध्ययन किया है उसके कारण आज से दोहों पर आयीं अब तक की पोस्टों की समीक्षा करने का प्रयास कर रहा हूँ। इस क्रम में सबसे पहले इस मंच पर प्रकाशित भाई अरुण कुमार निगम जी के दोहों पर कुछ कहना चाहता हूँ।
परिभाषा की कसौटी पर इनके सभी दोहे बिल्कुल खरे उतरते हैं।
बड़ा सरल संसार है , यहाँ नहीं कुछ गूढ़
है तलाश किसकी तुझे,तय करले मति मूढ़.
पागल होकर खोजता , सुविधाओं में चैन
भौतिकता करती रही , कदम-कदम बेचैन.
जीवन सारा बीतता , करता रहा तलाश
अहंकार के भाव ने ,सबकुछ किया विनाश.
त्याग दिया माँ-बाप को , कितना किया हताश
अब किस सुख की चाह में, मुझको करे तलाश.
जिस दिन जल कर दीप सा ,देगा ज्ञान प्रकाश
मुझमें तू मिल जा जरा , होगी खतम तलाश.
जीवित होकर हँस पड़ूँ , ऐसा संग तलाश
फिर मेरी मूर्ति गढ़ने , लाना संग तराश.
ज्येष्ठ दुपहरी क्यों खिले , सेमल और पलाश
इस क्यों का कारण कभी, अपने हृदय तलाश.
दोहे के विषम चरणों के अंत में सगण (सलगा ११२) , रगण (राजभा २१२) अथवा नगण(नसल १११) आने से दोहे में उत्तम गेयता बनी रहती है। अरुण जी के निमन दोहों में नगण का प्रयोग बहत सुन्दरता से किया गया है। अतः गति-यति और लय का सुन्दर सामंजस्य है इनमें।
कहाँ ढूँढता है मुझे , मैं हूँ तेरे पास
I I I (लघु-लघु-लघु)
मैं तुझ सा साकार कब, मैं केवल अहसास.
मैं मिल जाऊंगा तुझे , तू बस मैं को भूल
I I I (लघु-लघु-लघु)
मेरी खातिर हैं बहुत , श्रद्धा के दो फूल.
I I I (लघु-लघु-लघु)
पाप भरें हैं हृदय घट , मन में रखी खराश
लेकर गठरी स्वर्ण की , मेरी करे तलाश.
आभार भाई अरुण कुमार निगम जी!
मुझ जैसे बहुत से लोगों को आपसे सीखने को बहुत कुछ मिलेगा!
बहुत बढ़िया-
जवाब देंहटाएंनिश्चय ही भाई अरुण निगम जी
का मार्ग दर्शन उत्कृष्ट साहित्य सृजन में सहायक होगा -
सादर-
सुन्दर. अति सुन्दर
जवाब देंहटाएंजानकारी बढाती पोस्ट बहुत अच्छी लगी |
जवाब देंहटाएंआशा
आदरणीय शास्त्री जी, आपके अनुमोदन के लिये हृदय से आभार. मैं भी छन्द में कोई विद्वान नहीं हूँ, कुछ किताबों से तो कुछ अपनों से सीखते हुये ही अभ्यासरत हूँ. कई बार किताबों में दिये निर्देश भलीभाँति समझ में नहीं आते और भ्रम की स्थिति निर्मित हो जाती है,तब परस्पर सीखने-सिखाने की प्रक्रिया ही सबसे उपयुक्त जान पड़ती है.अब अंतर्जाल ने इसे और भी सुगम कर दिया है.
जवाब देंहटाएंछन्द रचना बहुत आसान नहीं है तो बहुत कठिन भी नहीं है. कुछ लिखेंगे तब तो त्रुटियों का पता चलेगा.सीखने की प्रक्रिया में अपनी त्रुटियों को खुले मन से स्वीकार भी करना चाहिये, यह नहीं कि जो मैंने लिख दिया वह बिल्कुल दोष रहित है.छन्द तो अथाह समुद्र है, जितने गहरे डूबेंगे उतने ही कीमती रत्न मिलेंगे.आइये हम सब परस्पर सीखें व सिखायें.कोई गुरु नहीं, कोई शिष्य नहीं. सब गुरु हैं और सभी शिष्य भी हैं.यह दोहा सीखने के लिये अनमोल मंत्र है :
करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान
रसरी आवत जात ते, सिल पर परत निसान ||
बहुत बढ़िया
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