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सोमवार, 21 दिसंबर 2015

‘सुख का सूरज’ को पढ़ने का अनुभव (--डॉ. सारिका मुकेश)

आदरणीय बाबू जी
सादर नमस्कार!
अभी-अभी ब्लॉग पर आपकी पुस्तक 'सुख का सूरजपर निम्न विचार प्रस्तुत किए हैंआपको उसकी प्रतिलिपि नीचे भेज रहे हैं! कृपया अपनी राय देना कि आपको कैसे लगे?
विलम्ब के लिए क्षमा करेंगे!

शेष शुभ!
सादर/सप्रेम
सारिका मुकेश 

****************************
जीवन की धूप-छाँव से गुजरते हुए
ऊसर जमीन में हमउपहार बो रहे हैं
हम गीत  और ग़ज़ल के उद्गार ढो रहे हैं !! 
***
प्रीत और मनुहार लेकर आ रहे हैं !
हम हृदय में प्यार लेकर आ रहे हैं !! 
***
      हिंदी ब्लॉग जगत् अर्थात् हिंदी चिट्ठा जगत में जनवरी 2009 से प्रतिदिन अपनी उपस्थित दर्ज़ कराने वाले अनेकानेक लोगों के परम प्रिय डॉ. रूपचंद्र शास्त्री मयंक’ की पुस्तक सुख का सूरज को पढ़ने का अनुभव कुछ ऐसा ही है जैसे कि जाड़े के मौसम में कई दिनों तक कोहरा छाए रहने के उपरांत आपको एकाएक ही एक दिन कुनकुनी धूप में देरों तक बैठने का सुख मिल जाए...
 "वो आये हैं मन के द्वारे 
इक अरसे के बाद 
महक उठे सूने गलियारे 
                     इक अरसे के बाद..."                  
***
       इस पुस्तक की भूमिका लिखने का दायित्व श्री सिद्धेश्वर सिंह जी ने शानदार ढंग से बखूबी निभाया है! उन्होंने लेखक और पुस्तक की विषय-वस्तुदोनों के साथ ही पूर्ण रूप से न्याय किया हैइसके लिए वो अवश्य ही साधुवाद के पात्र हैं!
"शिष्ट मधुर व्यवहारबहुत अच्छा लगता है
सपनों का  संसार बहुत अच्छा लगता है..." 
***
       मधुर भाषीशिष्ट व्यवहार में कुशल और आत्मीयता से भरपूर डॉ. रूपचंद्र शास्त्री मयंक’ जी व्यक्तिगत तौर पर छंदबद्ध और गेय रचनाओं को ही कविता मानते हैं! छन्दमुक्त कविताओं को पढ़ना भी उन्हें अच्छा तो ज़रूर लगता है पर यह उसे  आज भी गद्य ही मानते हैं! शायद यही कारण है की इनकी सभी कविताएँ छन्दबद्ध और गेय शैली में लिखी गई हैं पर इसके लिए कहीं भी यह जोड़-तोड़ करते दिखाई नहीं देते अपितु यह सब स्वत: होता चला जाता है मानों यह सब कुछ किसी अदृश्य शक्ति के द्वारा रचा जा रहा है और वो तो बस माध्यम मात्र हैं! अगर हम गौर करें तो सच्चे अर्थों में यही तो हमारे जीवन का सार भी है: हम सब निमित्त मात्र ही तो हैं कर्ता तो वो’ ही हैपर हम जीवन भर इस रहस्य को या तो समझते नहीं या मैं’ के अहंकार से बाहर नहीं आ पाते परंतु डॉ. रूपचंद्र शास्त्री मयंक’ जी यह बात स्वयं स्वीकार करते हुए लिखते हैं:
"नहीं जानता कैसे बन जाते हैंमुझसे गीत ग़ज़ल 
ना जाने मन के नभ परकब छा जाते गहरे बादल..." 
       माँ सरस्वती अपना वरद हस्त हर किसी पर नहीं रखतीं परंतु डॉ. रूपचंद्र शास्त्री मयंक’ जी सौभाग्य से माँ सरस्वती के कृपा-पात्र बन सकेइसके लिए उनका आभार प्रगट करते हुए कहते हैं:
"जिन देवी की कृपा हुई हैउनका करता हूँ वन्दन 
सरस्वती माता का करताकोटि-कोटि हूँ अभिनंदन...!!"   
       डॉ. रूपचंद्र शास्त्री मयंक’ जी ने गाँव/देहात/कस्बों से लेकर शहर और महानगर तक को स्वयं बहुत करीब से देखा और जाना हैइसीलिए उनकी कविताएँ ज़मीनी तौर पर जब उनका चित्रण करती हैं तो सब एकदम सजीव हो उठता है! उन्होंने अपने घर के वातानुकूलित कमरे में बंद होकर भूखबेबसीलाचारीगरीबीसामाजिक विषमताओं आदि विषयों पर कविताएँ  नहीं लिखी हैं बल्कि उन्हें स्वयं करीब से देखा है और ऐसा लगता है कि उन्होंने  किसी हद तक अंतर्मन में कहीं न कहीं उसे भोगा भी है! गाँव से उन्हें बेहद आत्मीयता है ! शहर में कई बरस रहने के बावजूद भी उन्हें रह-रहकर जब-तब गाँव की याद आती है और वो उन्हें याद करते हुए नहीं थकतेआप यह खुद ही देख लीजिए: 
"गाँव की गलियाँचौबारे
याद बहुत आते हैं
कच्चे घर और ठाकुरद्वारे
याद बहुत आते हैं..." 
***
"भोर हुई चिड़ियाँ भी बोली 
किन्तु शहर अब भी अलसाया 
शीतल जल के बदले कर  में 
गर्म चाय का प्याला आया 
खेत-अखाड़े हरे सिंघाड़े 
याद बहुत आते हैं..." 
***
      इसके अतिरक्त भी और ना जाने कितना ही कुछ ऐसा है जो गाँव से शहर आते वक़्त वहीं पर छूट गया पर स्मृति-कोश में अभी तक ताज़ा बना हुआ है ! आज भी वो मटकी का ठंडा पानीनदिया-नालेसंगी-ग्वालेचूल्हा-चौकामक्के की रोटीगौरी गईयामिट्ठू भैयाबूढ़ा बरगदकाका अंगद मन से कहाँ विदा ले सके हैं ! गाँव की याद करके तो मन में आज भी एक कसक-सी उठती है और अक्सर यही लगता है:
"छोड़ा गाँवशहर में आया
आलीशान भवन बनवाया
मिली नहीं शीतल-सी छाया
नाहक ही सुख चैन गंवाया...." 
***
         एक तरफ़ गाँव की पुरानी स्मृतियाँ हैं और दूसरी ओर आज के दौर का  भयावह सच ! वैश्वीकरण के इस युग में आज मानवीय मूल्यों/संबंधों में खोखलापननकलीपनबनावट ने अतिक्रमण कर लिया है और पैसा ही सब कुछ होता जा रहा है! आज हम सब गलाकाट प्रतियोगिता में शामिल हो चुके हैं ! नामशौहरतपुरस्कारसम्मान और पैसे के लिए हम अंधी दौड़ में लगे हैं,उसके लिए चाहे किसी का भी गला काटना पड़ेचाहे उन कंधों को भी तोड़ना पड़े जिन पर हम खड़े होकर बुलंदियों को छू रहे हों...वर्तमान में ऐसे परिवेश का अध्ययन करते हुए चिंताग्रस्त से दीखते डॉ. रूपचंद्र शास्त्री मयंक’ जी आज के दौर की भयावह सच्चाइयों के विषय में यूँ लिखते हैं:
 "सम्बन्ध आज सारे व्यापार हो गए हैं
अनुबंध आज सारे बाज़ार हो गए हैं 
जीवन के हाशिए पर घुट-घुट के जी रहे हैं
माँ-बाप सहमे-सहमे गम अपना पी रहे हैं
कल तक जो पालते थे अब भार हो गए हैं 
सब टूटते बिखरते परिवार हो गए हैं..." 
***
"खो गया जाने कहाँ है आचरण?
देश का दूषित हुआ वातावरण!!..."
***
"मुखौटे राम के पहने हुए रावण ज़माने में !
लुटेरे ओढ़ पीताम्बर लगे खाने-कमाने में !!
दया के द्वार परबैठे हुए हैं लोभ के पहरे
मिटी संवेदना सारीमनुज के स्त्रोत हैं बहरे
सियासत के भिखारी व्यस्त हैं कुर्सी बचाने में 
लुटेरे ओढ़ पीताम्बर लगे खाने-कमाने में !..." 
***
वो रहते भव्य भवनों मेंकभी थे जो वीराने में!   
***
श्रमिक का हो रहा शोषणधनिक के कारखाने में 
***
"राजनीति परिवार नहीं है
भाई-भाई में प्यार नहीं है 
--
"क्या दुनिया की शक्ति यही है 
छल प्रपंच को करता जाता
अपनी झोली भरता जाता
झूठे आँसू आँखों में भर
मानवता को हरता जाता
हाँ कलियुग का व्यक्ति यही है ..." 
**
       अजीब दौर है येआज रक्षक ही भक्षक बन गए हैं ! कुत्तों को चमड़ी की हिफाज़त करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी है ! ऐसी ही कुछ स्थिति की विषमताओं पर उनका यह कटाक्ष देखिए:
"धरा रो रही हैगगन रो रहा है
अमन बेचकर आदमी सो रहा है
सहमती-सिसकती हुई बन्दगी है !
जवानी में थकने लगी ज़िन्दगी है !!
जुगाड़ों से चलने लगी ज़िन्दगी है !!! ..." 
***
"कृष्ण स्वयं द्रौपदी की लूट रहे लाज
चिड़ियों के कारागार में पड़े हुए हैं बाज़..."
***
"कैसे मैं दो शब्द लिखूँ और कैसे उनमें भाव भरूँ?
परिवेशों के रिश्ते छालों केकैसे अब घाव भरूँ?...."
***
"रेतीले  रजकण में कैसेशक्कर के अनुभव भरूँ? ..."
***
      परंतु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि वो इस स्थिति से निराश हैंबल्कि वो पूरी तरह से आशान्वित हैं कि हमारे प्रयासों से स्थिति ज़रूर बदलेगी ! जीवन में उतार-चढ़ाव तो आते ही रहते हैं ! समय के साथ बहुत कुछ बदलता है ! परंतु जीवन में आशा के महत्त्व को वो बखूबी जानते हैं:
"युग के साथ-साथसारे हथियार बदल जाते हैं
नौका खेवन वालेखेवनहार बदल जाते हैं..." 
***
"कभी कुहराकभी सूरज
कभी आकाश में बादल घने हैं
दु:ख और सुख भोगने को
जीव के तन-मन बने हैं !!..."
 ***
"आशा पर संसार टिका है
आशा पर ही प्यार टिका है...."
***
"आशाओं में बल ही बल है
इनसे जीवन में हलचल है...
आशाएं हैं तो सपने हैं
सपनों में बसते अपने हैं...
आशाएं जब उठ जायेंगी
दुनियादारी लुट जायेंगी
उड़नखटोला द्वार टिका है ...." 
*** 
"करोगे इश्क़ सच्चा तोदुआएं आने वाली हैं !
दिल-ए-बीमार कोदेने दवाएं आने वाली हैं !!..." 
***
"लक्ष्य है मुश्किल बहुत ही दूर है
साधना मुझको निशाना आ गया है...." 
***
"हाथ लेकर हाथ में जब चल पड़े
साथ उनको भी निभाना आ गया है...."
***
      यह उनका आशावादी दृष्टिकोण ही तो है जो इतनी विषमताओं के बावजूद सुबह-सवेरे बोलती चिड़ियाएंखेतों में झूमते हुए गेहूँ की बालियाँझूमकर इठलाती हँसती लहराती हुई सरसोंफागुन की फगुनियापेड़ो पर कोपलिया लेकर आया मधुमासधुल उड़ाती पछुआनाचते हुए मोरबसंत की ऋतूमूंगफलीगज़क रेवड़ी चाट-पकोड़ी पेड़ों पर चहकती चिड़ियाछम-छम बजती गोरी की पायलियाँचहकती-महकती सूनी गलियाँमहकती हुई  बालाएं और बुढ़िया,  गुंजार करते भौरे,टेसुओं के फूलगति हुई कोयलमस्त होकर बल खाती हुई कचनार की कच्ची कली सब कुछ उनको अपनी ओर आकर्षित करते हुए उनकी कविताओं का हिस्सा बन जाते हैं और प्रकृति के ऐसे ही दृश्यों में खोकर डॉ. रूपचंद्र शास्त्री मयंक’ जी श्रंगार की कविता रच डालते हैं ! कुछ पंक्तियाँ देखिए: 
"खिल उठा सारा चमनदिन आ गए हैं प्यार के !
रीझने के खीझने केप्रीत और मनुहार के !!..." 
***
"गुनगुनी सी धूप मेंमौसम गुलाबी हो गया!
कुदरती नवरूप काजीवन शराबी हो गया !!...." 
***
"प्रीत है एक आगइसमें ताप जीवन भर रहे...." 
***
"बादल तो बादल होते हैं
नभ में कृष्ण दिखाई देते
निर्मल जल का सिन्धु समेटे
लेकिन धुआँ-धुआँ होते हैं...." 
***
"सोचने को उम्र सारी ही पड़ी है सामने
जीत के माहौल मेंक्यों  हार की बातें करें
प्यार के दिन हैं सुहानेप्यार की बातें करें!!...." 
***
"धड़कन जैसे बंधी साँस से
ऐसा गठबंधन कर लो
पानी जैसे बंधा प्यास से
ऐसा परिबंधन कर लो..." 
***
"हाथ लेकर जब चले तुम हाथ में
प्रीत का मौसम सुहाना हो गया...." 
*** 
     उनके मन में एक आदर्श वतन/मानव की छवि है जिसे वो साकार देखना चाहते हैं ! उनकी यह कामना कहीं-कहीं स्पष्ट दीखती है: 
"आदमी से न इंसानियत दूर हो
पुष्पकलिका सुगंधों से भरपूर हो...."  
....
"मन सुमन हों खिलेउर से उर हों मिले
लहलहाता हुआ वो चमन चाहिए
ज्ञान-गंगा बहेशांति और सुख रहे
मुस्कराता हुआ वो वतन चाहिए..."  
***
       मौजूदा परिस्थितयों में बदलाव के लिए हम सभी का योगदान आवश्यक है ! अब यह सर्वविदित है कि अंतर्जाल के माध्यम से आज सभी को अपने को अभिव्यक्त करने का वर्चुअल स्पेस मिला है ! हम ब्लॉग/ट्वीटर/फेसबुक आदि के माध्यम से प्रतिदिन अपने को किसी न किसी रूप में अभिव्यक्त करते हैं ! आज के साहित्य/लेखन पर चिंता जताते हुए वो आश्चर्य चकित होकर लिखते हैं:
"जीवन की अभिव्यक्ति यही है 
क्या शायर की भक्ति यही है ...."  
     लेखन के प्रति सजगता बरतने हेतु वो लिखते हैं:
"शब्द कोई व्यापार नहीं है
तलवारों की धार नहीं है ...."    
      इतिहास गवाह है कि अगर कुछ सार्थक लिखा जाए तो वो न केवल आज के लिए बल्कि युगों-युगों के लिए लोगों के दिलों में अपनी पहचान छोड़ जाता है...आने वाली पीढ़ी को नयी दिशा दे जाता है ! हम सभी जानते हैं कि  चाहे रामायण हो या गीता/महाभारत ऐसे अनेकों ग्रन्थ आदिकाल से हमारी चाहत का केंद्र बने रहे हैं और आज भी हैं...श्री राजेन्द्र राजन जी के गीत की पंक्तियाँ याद आती हैं: धन दौलत कोठी कारों का सुख तो हमको भी संभव है/ लेकिन हमसे रामायण-सा अब कोई ग्रंथ असंभव है/तुलसी की भाँति हमारा कल जग में सत्कार कहाँ होगा...मानव का जन्म विशिष्ट है,उसे ऐसे कुछ सार्थक और महान कार्य करने ही चाहिएं जो युगों तक उसकी गाथा कहें...तभी इस जन्म की सार्थकता है ! ऐसी ही मनोदशा में डॉ. रूपचंद्र शास्त्री मयंक’ जी लिखते है:
"चरण-कमल वो धन्य हैं
समाज़ को जो दें दिशा
वे चाँद तारे धन्य हैं
हरें जो कालिमा निशा..." 
***
"जो राम का चरित लिखें
वो राम के अनन्य हैं
जो जानकी को शरण दें
वो वाल्मीकि धन्य हैं..."
***
"अपने को तालाबों तक सीमित मत करना
गंगा की लहरों-धाराओं से मत डरना
आंधीपानीतूफानों से लड़ते जाओ !
पथ आलोकित हैआगे को बढ़ते जाओ !! 
उत्कर्षो के उच्च शिखर पर चढ़ते जाओ ! 
पथ आलोकित हैआगे को बढ़ते जाओ !!..." 
***
"चरैवेति के मूल मंत्र को
अपनाओ निज जीवन में
झंझावतों के काँटे
पगडंडी पर से हट जाएँ ...." 
*** 
     अंत में अपनी वाणी को यहीं पर विश्राम देते हुए हम आप सबसे यही गुज़ारिश करेंगे कि एक बार आप स्वयं इस सुख के सूरज’ के सान्निध्य का पूरा-पूरा लाभ उठाएं !  धन्यवाद!!
--डॉ. सारिका मुकेश
 पुस्तक का नाम:  सुख का सूरज 
ISBN:987-93-80835-01-3
लेखक:  डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
(मोबाइल: 9997996437) 
ब्लॉग: http://uchcharan.blogspot.in/ 
प्रकाशक: आरती प्रकाशन
लालकुआंनैनीताल (उत्तराखण्ड)
प्रकाशन वर्ष: 2011 
मूल्य: 100/- रु. मात्र

शनिवार, 12 दिसंबर 2015

समीक्षा – अनुभूतियाँ गीत संग्रह....डा श्याम गुप्त

समीक्षा – अनुभूतियाँ गीत संग्रह....डा श्याम गुप्त

                               


समीक्षा – अनुभूतियाँ

कृति—अनुभूतियाँ- गीत संग्रह ..रचनाकार –डा ब्रजेश कुमार मिश्र ..प्रकाशन-- नीहारिकांजलि प्रकाशन, कानपुर ...प्रकाशन वर्ष –२०१५ ई.....मूल्य ..२५०/-रु....समीक्षक –डा श्यामगुप्त ....


 
------- डा ब्रजेश कुमार मिश्र मेरे चिकित्सा विद्यालय के सहपाठी हैं | उन्होंने विशेषज्ञता हेतु काय-चिकित्सा को चुना और मैंने शल्य-चिकित्सा को | वे भावुक, सुकोमल ह्रदय एवं संवेदनशील व्यक्तित्व हैं| काव्य व संगीत में उन्हें प्रारम्भ से ही रूचि है | अपने बैच के पूर्व-छात्र सम्मिलन समारोहों में उन्हें हारमोनियम पर मनोयोग से संगीत प्रस्तुत करते हुए देखकर सुखद आनंद की अनुभूति होती है | आगरा नगर का निवासी होने के कारण अनुभूतियों के आत्म कथ्य..”भाव सुमन...” में उनके द्वारा वर्णित आगरा नगर का सुकोमल भावपूर्ण सौन्दर्य को मैंने भी जिया है| यह डा ब्रजेश के संवेदनशील व कोमल ह्रदय एवं काव्य प्रतिभा का संक्षिप्त परिचय है | ऐसे सुकोमल व्यक्तित्व द्वारा रचित गीत भाव-प्रधान, संगीत-प्रधान व सुकोमल होने ही चाहिए | हम लोगों के कैशोर्य व युवा काल में जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पन्त, मैथिलीशरण गुप्त महानायकों की भाँति सभी काव्यप्रेमी जनों के मन पर छाये हुए थे | यह मूलतः छायावादी गीतों का युग था | अतः डा मिश्र के गीतों में स्वतः ही छायावादी गीत शैली का प्रभाव परिलक्षित होता है | यह स्वाभाविक है- “महाजनाः येन गतो स पन्था” |
-------- एक चिकित्सक, व्यक्ति व समाज की भावनाओं, संवेदनाओं व अपेक्षाओं को अपेक्षाकृत अधिक निकट से परखता है, जान पाता है एवं ह्रदय तल की गहराई से अनुभव कर पाता है| गीत ह्रदय से निसृत होते हैं| संवेदनाओं, अनुभूतियों व भावनाओं के ज्वार जब उमड़ते हैं तो गीत निर्झर प्रवहमान होते हैं--

“दिल के उमड़े भावों को जब,
रोक नहीं पाए,
भाव बने शब्दों की भाषा
रची कहानी है |” .(डा श्याम गुप्त के गीत..’गीत क्या होते हैं’..से )

------ भावुक व्यक्ति स्मृतियों में जीने वाले होते हैं, प्रीति-स्मृतियाँ जीवन की सुकोमलतम स्मृतियाँ होती हैं, संयोग की हों या वियोग की | डा मिश्र ने स्वयं ही कहा है –
“प्रेम के उद्गीत गाना चाहता हूँ ..” (प्रीति के मृदु गीत ..से ) तथा
“उर वीणा में प्रिय गूँज तुम्हारी पायल की ..” (पृष्ठ ६५ )
------- डा मिश्र की कृति ‘अनुभूतियाँ’ के गीत मूलतः छायावादी हैं| पीड़ा व विरह इनका मूल विषय भाव है | पीड़ा जो प्रकृति वर्णन, वसंत, प्रेम, मिलन, विरह, श्रृंगार, स्मृतियाँ, पायल की गूँज व सामाजिक सरोकार के गीतों को भी आच्छादित किये हुए है | कृति के प्रारम्भ के जो तीन मुक्तक हैं, कवि के कृतित्व के सारभाव हैं |..कवि के अनुसार –
“मृदुल उर की व्यंजना का प्रस्फुटन हैं..” | -----पीड़ा प्रीति का उत्कृष्ट भाव है | कवि का कथन है –--
“ये गीत नहीं मेरे अंतर की आहें हैं |” ...तथा..

“उर से जो छलकीं प्रीति कहो,
इनको मत केवल गीत कहो |”

------ प्रस्तुत कृति एसी ही संवेदनाओं के उदगार हैं | जीवन राह पर चलते चलते मनुष्य सुख-दुःख, सफलता-असफलता, अधूरी कामनाओं, संयोग-वियोग, प्रेम-विरह से दो-चार होता है| उन्हीं अनुभूतियों, संवेदनाओं, भावनाओं का भाव-शब्द प्राकट्य है प्रस्तुत कृति, जिसमें भावपक्ष तो उत्कृष्ट है ही कलापक्ष भी सफल, सुगठित, सुष्ठु व श्रेष्ठ
है | यह वस्तुतः लम्बे समय तक मौन साधनारत व्यक्तित्व की मौन पीड़ा, विरह व आप्लावित हुई संवेदनाओं का मुखरित होना है | पीड़ा का उद्रेक जब ह्रदय में आप्लावित होता है तो कवि कह उठता है ...
“झिलमिला कर अश्रुकण कुछ /
व्यथा चुप चुप कह गए |” (पृष्ठ ११८ )...
स्मृतियाँ कवि के जीवन का महत्वपूर्ण भाग है........
”जिनके नेहिल सुस्मरण मुझे, पल पल हुलसाते रहते हैं|”
----- परन्तु पीड़ा व विरह के मुखरित गीतों में भी नैराश्य नहीं है अपितु आशा की भोर का आव्हान है ---
“सबल शुभ संकल्प लाओ /
भोर के तुम गीत गाओ | ( भोर के गीत से..)
और जब यह पीड़ा स्व से पर की ओर, सामाजिक पीड़ा में, व्यष्टि से समष्टि की ओर उन्मुख होती है, परमार्थ सापेक्ष होती है तो कवि गा उठता है ---
“हों परिवर्तन आमूल चूल.. ./
निकलें जीवन के सभी शूल |
मृदु प्रेम जगे सब बैर भूल ...\ ..
जागे नूतन स्वर्णिम विहान .”..(पृष्ठ ३४..) ....तथा कवि दीप ही बना रहना चाहता है ...
”.दीप लघु प्रतिविम्ब मेरा /
दर्द से अनुबंध मेरा ..” (पृष्ठ ४०..) |

----- यह साहित्य का सामाजिक सरोकार रूप है | यह छायावादी काव्य की विशेषता है | यह साहित्य है, यही कवित्व है | जो काव्य का उद्देश्य है |

--------ज्ञान का आडम्बर सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़ा हुआ है | अज्ञानी रो सकता है, परन्तु समाज के ऊंचे पायदान पर खडा व्यक्ति चाहकर भी नहीं रो सकता | सबल, सत्यनिष्ठ, एकाकी, अंतर्मुखी व्यक्ति के लिए पीड़ा व्यक्त करने का माध्यम गीत व साहित्य ही होजाता है ..
“टुकडे टुकडे दर्पण उर का /
टप टप टप टप रजनी रोई /
मन की पीर न जाने कोई ..|(पृष्ठ ३७..)
------अपनों द्वारा प्रदत्त पीड़ा अधिक कष्टदायी होती है, नैराश्य भी उत्पन्न होता ही है ..
“आश्रयी अहि ने डसा है /
होगये विश्वास खंडित “(पृष्ठ १०६)|
------ संयोग हो या वियोग, प्रकृति वर्णन तो अवश्यम्भावी है...
”अवश मन उष्मित शिराएं देह की /
रच रहा फागुन ऋचाएं नेह की .(पृष्ठ ८९) |
------फूले कचनार, लो फागुन आया रे, घिर घिर बरसो बदरा कारे ...में प्रकृति का सौन्दर्यमय वर्णन है |

------- जीवन दर्शन को भी सुचारू रूप से व्यक्त किया गया है ..
”कुछ स्वप्न अधूरे रहते हैं ..” एवं
“ जीवन की अंधी गलियों में ../
जाने कितने स्वप्न खोगये ..|”..(पृष्ठ ५५)


-------परन्तु कवि निसंकोच सहनशीलता व धैर्य का वरण करता है..
क्यों याद करें जो मिला नहीं/
सोचें क्या हमने पाया है..(प्र-९७)|

------ कवि के अनुसार गीत विश्रांति कारक भी हैं..
”होरहा जीवन हलाहल../
पर अधर पर गीत फिर भी |
------जीवन संघर्ष में कभी कभी नैराश्य भी आता ही है परन्तु कर्म-पथ पर चलते चलते कवि को पता ही नहीं चलता कि—
“जीवन पथ के संघर्षों में /
जाने कब वह शाम होगई |”.....और यह यात्रा अविराम है ..
“मैं राही निर्जन पथ का रे ../
चलना ही है अब जीवन ..|”

------ इस विश्व को सत्यं शिवं सुन्दरं बनाना ही साहित्य का उद्देश्य है ...अतः कवि कह उठता है –
“तमस में भटके पगों को,
सत्य-उज्जवल पथ दिखाने |
शिवं के शुभ गीत गाना चाहता हूँ |”...(प्रीति के मृदु गीत से )
------- प्रस्तुत कृति मूलतः भाव-अनुभूतिजन्य गीत-कृति है अतः कलापक्ष को सप्रयास नहीं सजाया गया है अपितु वह कलात्मक गुणों से स्वतः ही शोभायमान है, सशक्त है| भाषा शुद्ध सरल साहित्यिक हिन्दी है जो कहीं कहीं संस्कृतनिष्ठ है | शब्दावली सुगठित सरल सुग्राह्य है छायावादी शैली के बावजूद दुरूह नहीं | कविवर जयशंकर प्रसाद जैसी प्रसाद गुण युक्त कोमलकांत पदावली में मूलतः अभिधात्मक कथ्य शैली का प्रयोग किया गया है | आवश्यकतानुसार लक्षणा व व्यंजना का भी विम्ब प्रधान प्रयोग है यथा---

“टप टप टप टप नदिया रोई, मन की पीर न जाने कोइ |...अभिधात्मक शैली ..

“अंग अंग भर उमंग, पुरवा के संग अनंग |
खोल रहा ह्रदय बन्ध, बिखरा मृदु मलय गंध |.....लक्षणा ...|

व्यंजना के साथ एक विम्ब प्रस्तुत है –
“मलय झकोरा लगा लपट सा”.....
.”रच रहा फागुन ऋचाएं नेह की ..”
               गीत मूलतः १६ मात्रिक एवं १४ मात्रिक चतुष्पदियों में रचित हैं | कुछ गीतों में पंचपदी एवं २० व २२ मात्रिक छंद भी प्रस्तुत किये गए हैं |
            गीतों में मूलतः विरह श्रृंगार का रसोद्रेक सर्वत्र विकिरित है ....
“ बिना तुम्हारे रोते उर को,
कैसे कोइ धीर बंधाये |
तुम न आये | “
------परन्तु संयोग के बिना विरह का अस्तित्व कहाँ अतः संयोग श्रृंगार, नख-शिख वर्णन एवं प्रकृति वर्णन, के भी यथानुसार सुन्दर विम्ब प्रस्तुत हुए हैं-
“नील शरशय्या पर अभिराम /
कुमुदिनी का वैभव विस्तार |.”.

“पीत चुनरिया सरसों पहने, हरा भरा घाघरा मखमली |” ...एवं ..

“वाणी में वीणा का गुंजन,
गति में सुरवाला का नर्तन |
उर में दहके मादक मधुवन,
मधुमास रहे जिसमें हर क्षण |”
 
विविध अलंकारों की छटा भी देखते ही बनती है ...लगभग सभी मुख्य अलंकारों का समुचित प्रयोग हुआ है- .
“घन अन्धकार का बक्ष चीर,
चमके चपला का रज़त चीर” ..एवं
“अर्थ के राज्य में नेह का अर्थ क्या” ...में चीर एवं अर्थ में यमक का सौन्दर्य है |

मालोपमा की छटा देखिये ... जिसमें अनुप्रास, रूपक के विम्ब की छटा भी उपस्थित है ...
“मदिर मधुमय मृदु सरस मधुमास तुम हो,
प्रथम पावन प्यार का उल्लास तुम हो |
मलय सुरभित उल्लसित वातास तुम हो,
स्वाति जलकण निहित चातक आस तुम हो | “

“गहन सुधि के सुभग सुकोमल कर ...” में मानवीकरण है |

ध्वन्यात्मक व अनुप्रास, का समन्वित उदाहरण ..”छल छल छल छल नदिया रोई ..” में दृष्टव्य है |

“है घट रहा चिर नेह स्तर, क्षीण होता वर्तिका स्वर
धूम रेखा बन बिखरता, व्योम में तनु गात नश्वर |”.....में नेह, वर्तिका, दीप, शरीर के विम्बों में शब्द व अर्थ श्लेष का सुन्दर समायोजन हुआ है |

              आलोचनात्मक दृष्टि के बिना कोई भी समीक्षा अधूरी ही रहेगी | पुस्तक के कवर फ्लैप पर दोनों वक्तव्य अत्यंत छोटे अक्षरों में हैं सुदृश्य नहीं हैं| दोनों विद्वान् साहित्यकारों द्वारा लिखित भूमिकाएं अनावश्यक दीर्घ कलेवर की हैं जो कृति की भूमिका की अपेक्षा समीक्षा अधिक प्रतीत होती हैं जिनमें कृति व कृतिकार के बारे में कथ्य सुस्पष्ट नहीं होपाते |
             संक्षेप में डा ब्रजेश कुमार मिश्र द्वारा रचित ‘अनुभूतियाँ’ कृति चारुता के साथ रचित ह्रदय की अनुभूतियों का सूक्ष्म व कलात्मक अंकन है जिसके लिए रचनाकार बधाई के पात्र हैं |

१०-१२-२०१५ ई. --- डा श्याम गुप्त
सुश्यानिदी, के-३४८, आशियाना मो. ९४१५१५६४६४.
लखनऊ -२२६०१२

रविवार, 29 नवंबर 2015

असहमति प्रकटीकरण व स्वीकरण एवं मधुमयता – मधुला विद्या ---डा श्याम गुप्त ...

                             




         असहमति प्रकटीकरण व स्वीकरण एवं मधुमयता – मधुला विद्या
       प्रकृति हमें जीवन देती है परन्तु स्वयं प्रकृति शक्तियां अपनी लय में सतत: स्व-नियमानुसार गतिशील रहती हैं, जीवन के अस्तित्व की चिंता किये बिना। प्रकृति आपदाएं प्राणियों को प्रभावित करती हैं| प्राणी जीना चाहते हैं जिजीवीषा भी प्रकृति की ही देन हैं।  अतः वे  अपने अस्तित्व के लिए प्रयत्न करते हैं, प्रकृति को संतुलित या नियमित करने हेतु । मनुष्येतर प्राणी प्रायः विचारवान नहीं होते अतः स्वयं को प्रकृति के अनुरूप ढालकर उसके अनुसार जीवन जीते हैं| मनुष्य विचारशील है अतः वह कभी स्वयं को प्रकृति के अनुरूप ढालकर कभी प्रकृति को स्वयं के अनुसार नियमित करने का उपक्रम करता है |  यही संसार है, जगत है जीवन है | तब प्रश्न उठता है मनुष्य के विचार स्वातंत्रय एवं तदनुसार कर्म स्वातंत्रय का |  
       अस्तित्व बहरूपिया है। बहुत से नाम रूप | कुछ जाने हुए अधिकाँश बिना जाने हुए। प्रत्यक्ष अनुभूति में यह दृष्ट सांसारिक भाव है, लौकिक तत्व  है। परन्तु इसका अंदरूनी तंत्र विराट है। अस्तित्व नियमबद्ध हैं। सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुद्ध आदि ग्रहों को नियमबद्ध पाया गया है। ये नियम शाश्वत कहे जाते हैं | प्रकृति और जीव के कृतित्व में परस्पर अन्तर्विरोध तो हैं परन्तु सामंजस्य रूप प्रकृति ने प्राणी को कर्म स्वातंत्रय भी दिया है अर्थात मनुष्य परिस्थितियों का दास नहीं है। इस स्वातंत्र्य के उपभोग की दृष्टि भले ही भिन्न-भिन्न हो अपने विचार व परिस्थितियों के अनुसार ।
         लोकतंत्र में विचार स्वातंत्र्य ही उच्चतर मूल्य है। परन्तु विचार प्रकट करने में भाषा की अहं भूमिका है और भाषा-वाणी में मधुमयता की।  हमारे यहाँ विचार अभिव्यक्ति का स्वातंत्रय है। परन्तु दलतंत्र में सबकी अपनी रीति और अपनी प्रीति के कारण मधुमयता का अभाव है । व्यक्तिगत आरोपों से जनतंत्र को क्षति होती है। आरोपों प्रत्यारोपों की मधुमय अभिव्यक्ति कठिन नहीं। सम्मानजनक अभिव्यक्ति के माध्यम से असहमति प्रकट करना ही सम्मानजनक तरीका है। लेकिन दलतंत्र में परस्पर सम्मान का अभाव है  आखिरकार इसका मूल कारण क्या है?  हम विश्व के सबसे बड़े जनतंत्र हैं। तो भी वैचारिक असहमति के प्रकटीकरण में मधुमयता का अभाव क्यों है?
      ज्ञान सदा से है। उसका लौकिक प्राकट्य सृष्टि रचना के बाद हुआ। ऋग्वेद निस्संदेह विश्व का प्रथम ज्ञानोदय एवं ज्ञान अभिलेख है लेकिन आनंद प्राप्ति की मधुविद्या उसके बहुत पहले से है। शंकराचार्य के अनुसार ...यह मधु ज्ञान हिरण्यगर्भ ने विराट प्रजापति को सुनाया था। उसने मनु को बताया और मनु ने इक्ष्वाकु को ...| मधुमयता की अनुभूमि आसान नहीं। सुनना या पढ़ना तो उधार का ज्ञान होता है। अनुभूति अपनी है।  गीता के श्रीकृष्ण ने यही ज्ञान परम्परा दोहराते हुए अर्जुन से कहा कि काल के प्रभाव में यह ज्ञान नष्ट हो गया। आधुनिक काल में भी यही स्थिति है।
      दलतंत्र में मधुमयता क्यों नहीं है?  वस्तुतः हम अपनी संस्कृति से प्रेरित नहीं हैं। भारतीय परंपरा मधुमय है। समूचा वैदिक साहित्य मधुरस से लबालब है। प्राचीन भारत में मधुमयता के बोध को मधुविद्या कहा गया है। छान्दोग्य उपनिषद् में मधु विद्या का उल्लेख है।  असौ आदित्यो देवमधु। ....यह  अपनी-अपनी अनुभूति है। वैदिक पूर्वजो का हृदय मधुमय है। उन्हें सूर्य किरणें भी मधुमय प्रतीति होती हैं। रसौ वै वेद ..वेद रसों के रस हैं, अमृतों का अमृत हैं।  कैसी प्यारी मधुमय अभिव्यक्ति है। अमृत सम्पूर्णता के साथ सदा अस्तित्वमान रहने की आन्तरिक अनुभूति है। वेद-रस उन्हीं अमृतों का अमृतहैं।
          वृहदारण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी को मधुमयता का मूलतत्व समझाया,-इयं पृथ्वी सर्वेषा भूतानां मध्वस्यै पृथिव्यै सर्वाणि भूतानि मधु- यह पृथ्वी सभी भूतों (समस्त अस्तित्ववान मूल तत्वों) का मधु है और सब भूत इस पृथ्वी के मधु। धर्म और सत्य समस्त भूतों का मधु है, समस्त भूत इस सत्य व धर्म के मधु है। सर्वत्र मधु की अनुभूति राष्ट्र व विश्व को मधुमय बनाने की अभीप्सा है। यह विद्या हमारे पूर्वजों की परम आकांक्षा है। यह भौतिक जगत् का माधुर्य है, दर्शन में परम सत्य है, और अंततः सम्पूर्णता है।
                     मनुष्य ही विराट जग की मूल इकाई है, मधु जगत् की मधु इकाई है। मनुष्य को मधुमय होना चाहिए। इसका ज्ञान वैदिक काल से भी प्राचीन है।
       सर्वात्मलयता व संवेदनशीलता व सहिष्णुता  गहन आत्मीय भाव है। तब पत्थर भी प्राणवान दिखाई पड़ते हैं और नदियां भी, सभी प्राणी अपने समान । दलतंत्र की नीति में हम सबकी संवेदनाएं क्यों नहीं जगतीं, सहिष्णुता कहाँ चली जाती है ।..हम क्यों भूल जाते हैं –
सर्वेन सुखिना सन्तु, सर्वे सन्तु निरामया ,
सर्वे पश्यन्तु भद्राणि, मा कश्चिद् दुखभाग्भवेत |
      -----यहाँ सहिष्णुता या असहिष्णुता का कोई अभिप्रायः नहीं रह जाता |
   
        ऋग्वैदिक ऋषि निवेदन करते हैं -अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार।  हम सब विष भाग को सूर्य किरणों के पास भेजते है। मधुविद्या विष को अमृत बनाती है।  मधुविद्या अमरत्व है। सूर्य प्रत्यक्ष देव हैं। वे जगत् का प्राण हैं। अमृत और विष उन्हीं का है। हम सब प्राणी, वनस्पतियां, औषधियां और सभी जीव भी उन्हीं के। वे इस विष से प्रभावित नहीं होते। विष और अमृत वस्तुतः मृत्यु और अमरत्व के प्रतीक हैं| मृत्यु सत्य है अमृतत्व भी सत्य है। मृत्यु और अमरत्व विरोधी नहीं हैं। दोनो साथ हैं।
       राजनीति को भी मधुमय होना चाहिए। वह राष्ट्र निर्माण का मधु है | शासक सत्ता सूर्य का प्रतीक है | जैसे विष सत्य है, अस्तित्व में है, वैसे ही अमृत भी सत्य है, अस्तित्व में है। वैसे ही राजनीति में पक्ष सत्य है, विपक्ष भी सत्य है। सहमति का मूल्य है और असहमति का भी। असहमति के प्रकटीकरण व स्वीकरण में अमृत भाव चाहिए, मधु भाव । यथा ऋग्वेद का अंतिम मन्त्र ---
    “ समानी अकूती समानी हृदयानि वा
     समामस्तु वो मनो यथा वै सुसहामती |”  
...तथा ..
स्वामी बल्लभाचार्य कृत मधुराष्टकं से...
     ‘वचनं मधुरं चरितं मधुरं वसनं मधुरं वलितं मधुरम्
     चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ||’

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