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सोमवार, 28 नवंबर 2016

पांच त्रिपदा अगीत छंद - डा श्याम गुप्त

                    पांच त्रिपदा अगीत छंद ---- मेरे द्वारा सृजित , अगीत कविता विधा का एक छंद ----तीन पंक्तियाँ, प्रत्येक पंक्ति में 16 मात्राएँ , अतुकांत ....
१.
जग में खुशियाँ है उनसे ही,
हसीन चेहरे खिलते फूल; .
हंसते रहते गुलशन गुलशन |


2.
चमचों के मज़े देख हमने,
आस्था को किनारे रख दिया;
दिया क्यों जलाएं हमीं भला |
3.
खुश होकर फूँका उनका घर,
अपना घर भी बचा न पाए ;
चिंगारी उड़कर पहुँची थी |
४.
प्रकृति का सौंदर्य मधुरतम,
पर प्रियतम का वह सुन्दर मुख;
उपमा स्वयं लजा जाती है |
५.
ज़िंदगी की डोर लम्बी है,
थामना भी आना चाहिए;
हंसने का बहाना चाहिए |

शनिवार, 26 नवंबर 2016

युद्ध व मानव तथा दाशराज्ञ-युद्ध --डा श्याम गुप्त


                                      



                          युद्ध व मानव तथा दाशराज्ञ-युद्ध 



        आज सिन्धु सतलुज व्यास व रावी नदी के जल में से पाकिस्तान को जल की एक बूँद भी नहीं देंगे के समाचार पर भारत-आर्यावर्त के इतिहास के एक अति महत्वपूर्ण पुरा कालखंड की, वेदों में प्रमुखता से वर्णित रावी नदी तट पर हुए दाशराज्ञ युद्ध की स्मृतियाँ पुनः मस्तिष्क में जीवंत होने लगती हैं जो आर्यावर्त का प्रथम महायुद्ध था जिसने विश्व इतिहास की दिशा बदल दी जिसका एक प्रमुख कारण जल-बंटवारा ही था |
        आज हम चाहे जितना कहते रहें कि आपसी विवादों, झगड़ों, मसलों, मामलों, विरोधों  का समाधान वार्ताओं से होना चाहिए परन्तु एसा होता नहीं है, न कभी हुआ, न इतिहास में न वर्त्तमान में, न भविष्य में भी एसा होने की संभावना है, क्योंकि आपसी विरोध मूलतः विचारधाराओं का होता है जो वर्चस्व-स्थापना, आर्थिक, धर्म, कभी ‘विनाशाय च दुष्कृताम’ या अन्य विविध कारणों का कारण बनता है | एक विचारधारा कभी दूसरी विचारधारा को मान्यता नहीं देती चाहे वह उससे श्रेष्ठ ही क्यों न हो, इसका कारण है उस विचार वर्ग का अहं | अतः युद्ध अनिवार्य होजाता है | महाभारत युद्ध के अंत में गांधारी के कहने पर कि कृष्ण यदि तू चाहता तो युद्ध रुक सकता था, कृष्ण का यही उत्तर था कि माँ मैं कौन होता हूँ अवश्यंभावी के सम्मुख, युद्ध होते रहेंगे |
            अतः भूमंडल या किसी क्षेत्र व देश की राजनैतिक व सामाजिक दिशा व दशा सदैव युद्धों से ही निर्णीत होती रही है | युद्ध करना अर्थात आपसी संघर्ष मानव का मूल कृतित्व रहा है| यदि संघर्ष के लिए विरोधी समुदाय उपस्थित नहीं है तो भाई-भाई ही युद्धरत होते रहे हैं| युद्धों का मूल अभिप्राय वर्चस्व की स्थापना होता है जिसका कारण आर्थिक एवं विचारधाराओं की स्थापना व प्रसार होता है | मानव इतिहास के बड़े– बड़े युद्ध जिन्होंने भूमंडल की दिशा व दशा को परिवर्तित किया है, प्रायः भाई-भाइयों के मध्य ही हुए हैं | विश्व के सर्वप्रथम युद्ध देवासुर संग्रामों में देव व असुर भी भाई भाई ही थे | यद्यपि ऋग्वेद में युद्ध से मानव के अहित का स्पष्ट उल्लेख है --
यत्रा नरः समयन्ते कृतध्वजों यस्मिन्नाजा भवति किंचन प्रियं |
यत्रा भयन्ते भुवना स्वर्द्द्शस्तत्रा न इन्द्रावरुणाधि बोचतम |----ऋग्वेद मंडल-७ सू.८३ ...
---जहां मनुष्य अपनी अपनी ध्वजाएं उठाये हुए युद्ध मैदान में एकत्र होते हैं, ऐसे युद्धों से मानवों का अहित ही होता है | हे इंद्र व वरुण ! आप सुख शान्ति जैसे स्वर्गीय स्थिति के पक्षधर हम सबके संग्राम में रक्षण प्रदान करें |
       आज भी विश्व में अधिकाँश देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था है परन्तु चुनावों में मत (वोट- अर्थात् अपनी विचार धारा की स्वीकृति ) प्राप्ति हेतु एक ही देश के नागरिक आपस में छल, बल व धन आधारित युद्धरत होते हैं | प्रायः राजनैतिक पार्टिया किसी एक व्यक्ति के बलबूते पर ही आगे चलती हैं |
गणतंत्र व राज्यतंत्र ---गणतंत्र या लोकतंत्र कोई नवीन व्यवस्था नहीं है अपितु इसकी अवधारणा वैदिक काल से ही चली आरही है | वैदिक व्यवस्था में राजा होते हुए भी लोकतांत्रिक व्यवस्था थी ताकि राजा निरंकुश न रहे| परन्तु पूर्णतः राजा विहीन गणतांत्रिक व्यवस्था कभी फल-फूल नहीं पाई, सफल नहीं रही | मूलतः यह देखा गया है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था सदैव ही राजतन्त्रिक व्यवस्था से परास्त होती रही है, सारा इतिहास साक्षी है | वेदों में प्रमुखता से वर्णित दाशराज्ञ युद्ध जो शायद आर्यावर्त का प्रथम महायुद्ध था, भी लोकतंत्र की पराजय की कहानी है |
           वैदिक काल में भारतीय सभ्यता का विस्तार दुनिया के सभी देशों में था जिसे जम्बूद्वीप कहा जाता है । लोग विभिन्न जातियों, जनजातियों व कबीलों में बंटे थे। उनके प्रमुख राजा कहलाते थे, बीतते समय के साथ-साथ उनमें अपनी सभ्यता व राज्य विस्तार की भावना बढ़ी और उन्होंने युद्ध और मित्रता के माध्यम से खुद का चतुर्दिक विस्तार का प्रयास किया। और इस क्रम में कई जातियां, जनजातियां और कबीलों का लोप सा हो गया। एक नई सभ्यता और संस्कृति का उदय हुआ।
     इस क्रम में भारतीय उपमहाद्वीप का पहला दूरगामी असर डालने वाला युद्ध बना दशराज युद्ध। इस युद्ध ने न सिर्फ आर्यावर्त को बड़ी शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया बल्कि राजतंत्र के पोषक महर्षि वशिष्ट की लोकतंत्र के पोषक महर्षि विश्वामित्र पर श्रेष्ठता भी साबित कर दी
      उस काल में राजनीतिक व्यवस्था गणतांत्रिक समुदाय से परिवर्तित होकर राजाओं पर केंद्रित  होती जारही थी। दाशराज्ञ युद्ध में भरत कबीला राजा प्रथा आधारित था जबकि उनके विरोध में खड़े कबीले लगभग सभी लोकतांत्रिक थे|
     अधिकाँश हम राम–रावण एवं महाभारत के युद्धों की विभीषिका से ही परिचित हैं, परन्तु इस बात से अनभिज्ञ हैं कि राम-रावण युद्ध से भी पूर्व संभवतः 7200 ईसा पूर्व त्रेतायुग के अंत में एक महायुद्ध हुआ था जिसे दशराज युद्ध (दाशराज्ञ युद्ध ) के नाम से जाना जाता है। यह आर्यावर्त का सर्वप्रथम भीषण युद्ध था जो आर्यावर्त क्षेत्र में आर्यों के बीच ही हुआ था। प्रकारांतर से इस युद्ध का वर्णन दुनिया के हर देश और वहां की संस्कृति में आज भी विद्यमान हैं। इस युद्ध के परिणाम स्वरुप ही मानव के विभिन्न कबीले भारत एवं भारतेतर दूरस्थ क्षेत्रों में फैले व फैलते गए |
        ऋग्वेद के सातवें मंडल में इस युद्ध का वर्णन मिलता है। इससे यह भी पता चलता है कि आर्यों के कितने कुल या कबीले थे और उनकी सत्ता धरती पर कहां तक फैली थी। इतिहासकारों के अनुसार यह युद्ध आधुनिक पाकिस्तानी पंजाब में परुष्णि नदी (रावी नदी) के पास हुआ था। यह एक ऐसा युद्ध था जिसके बाद भारतीय उपमहाद्वीप में धर्म और इतिहास ने करवट बदली जिसका प्रभाव राम-रावण व महाभारत युद्ध जैसा ही था जिसने भारतीय समाज व संस्कृति की दशा व दिशा निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई |
            उन दिनों पूरा आर्यावर्त कई टुकड़ों में बंटा था और उस पर विभिन्न जातियों व कबीलों का शासन था। भरत जाति के कबीले के राजा सुदास थे। उन्होंने अपने ही कुल के अन्य कबीलों से सहित विभिन्न कबीलों से युद्ध लड़ा था। उनकी लड़ाई सबसे ज्यादा पुरु, यदु, तुर्वश, अनु, द्रुह्मु, अलिन, पक्थ, भलान, शिव एवं विषाणिन कबीले के लोगों से हुई थी। सबसे बड़ा और निर्णायक युद्ध पुरु और तृत्सु नामक आर्य समुदाय के नेतृत्व में हुआ था। इस युद्ध में जहां एक ओर पुरु नामक आर्य समुदाय के योद्धा थे, तो दूसरी ओर 'तृत्सु' नामक समुदाय के लोग थे। दोनों ही हिंद-आर्यों के 'भरत' नामक समुदाय से संबंध रखते थे।
      'तृत्सु समुदाय का नेतृत्व पंचाल के शासक राजा सुदास ने किया। सुदास दिवोदास के पुत्र थे, जो स्वयं सृंजय के पुत्र थे। सृंजय के पिता का नाम देवव्रत था। सुदास के सलाहकार महर्षि वशिष्ट थे जो राजा शासन तंत्र के समर्थक थे |
       सुदास के विरुद्ध दस राजा (कबीले-जिनमें कुछ अनार्य कबीले भी शामिल थे ) युद्ध लड़ रहे थे जिनका नेतृत्व पुरु कबीला के राजा संवरण कर रहे थे, जिनके सैन्य सलाहकार ऋषि विश्वामित्र थे जो लोकतांत्रिक शासन तंत्र के समर्थक थे। हस्तिनापुर के राजा संवरण भरत के कुल के राजा अजमीढ़ के वंशज थे | पुरु समुदाय ऋग्वेद काल का एक महान परिसंघ था जो सरस्वती नदी के किनारे बसा था | आर्यकाल में यह जम्मू-कश्मीर और हिमालय के क्षेत्र में राज्य करते थे।
     
       वस्तुतः यह सत्ता और विचारधारा की लड़ाई थी।   सबसे बड़ा कारण पुरोहिताई और जल बंटवारे का झगड़ा था। प्रारंभ में सुदास के राजपुरोहित विश्वामित्र थे। बाद में मतभेद के बाद सुदास ने विश्वाममित्र को हटाकर वशिष्ठ् को अपना राजपुरोहित नियुक्त कर लिया था। बदला लेने की भावना से विश्वामित्र ने पुरु, यदु, तुर्वश, अनु और द्रुह्मु तथा पांच अन्य छोटे कबीले अलिन, पक्थ, भलान, शिव एवं विषाणिन आदि दस राजाओं के एक कबीलाई संघ का गठन तैयार किया जो ईरान, से लेकर अफगानिस्तान, बोलन दर्रे, गांधार व रावी नदी तक के क्षेत्र में निवास करते थे |
     वास्तव में तो इस युद्ध की पृष्ठभूमि वर्षों पूर्व तैयार हो गई थी। तृत्सु राजा दिवोदास एक बहुत ही शक्तिशाली राजा था जिसने संबर नामक राजा को हराने के बाद उसकी हत्या कर दी थी और उसने इंद्र की सहायता से उसके बसाए 99 शहरों को नष्ट कर दिया। इंद्र ने धरती पर 52 राज्यों का गठन किया था। इंद्र के विरूद्ध भी कई राजा थे जो बाद में धीरे-धीरे वहां छोटे बड़े 10 राज्य बन गए। वे दस राजा एकजुट होकर रहते थे | यही दस कुल या कबीले संवरण के नेतृत्व व विश्वामित्र के परामर्श पर एक जुट होगये |
        एक ओर वेद पर आधारित भेदभाव रहित वर्ण व्यवस्था का विरोध करने वाले विश्वामित्र के सैनिक थे तो दूसरी ओर एकतंत्र और इंद्र की सत्ता को कायम करने वाले गुरु वशिष्ठ की सेना के प्रमुख राजा सुदास थे।
     दासराज युद्ध को एक दुर्भाग्यशाली घटना कहा गया है। इस युद्ध में इंद्र और वशिष्ट की संयुक्त सेना के हाथों विश्‍वामित्र की सेना को पराजय का मुंह देखना पड़ा। दसराज युद्ध में इंद्र और उसके समर्थक विश्‍वामित्र का अंत करना चाहते थे। विश्‍वामित्र को भूमिगत होना पड़ा। दोनों ऋषियों का देवों और ऋषियों में सम्मान था,  दोनों में धर्म और वर्चस्व की लड़ाई थी। इस लड़ाई में वशिष्ठ के 100 पुत्रों का वध हुआ। फिर  डर से विश्वामित्र के 50 पुत्र तालजंघों (हैहयों) की शरण में जाकर उनमें मिलकर म्लेच्छ हो गए। तब  हार मानकर विश्वामित्र वशिष्ठ के शरणागत हुए और वशिष्ठ ने उन्हें क्षमादान दिया। वशिष्ठ ने श्राद्धदेव मनु (वैवस्वत) 6379 वि.पू. को परामर्श देकर उनका राज्य उनके पुत्रों को बंटवाकर दिलाया।

      अर्थात यह युद्ध राम-रावण युद्ध से लगभग १००० वर्ष पहले हुआ था क्योंकि राम के काल (लगभग ५११४ वर्ष ईपू ) में दोनों ऋषियों में वैमनस्य के भाव नहीं दिखाई देते तथा भरतवंश के, रघुवंश की पीढी क्रम के अनुसार ५६वीं पीढी में सुदास हुए हैं और ६८ वीं पीढी में राम |

        यद्यपि एक मत के अनुसार माना जाता है कि यह युद्ध त्रेता के अंत में राम-रावण

युद्ध के 150 वर्ष बाद हुआ था। क्योंकि हिन्दू काल वर्णन में चौथा काल : राम-वशिष्ठ काल वर्णन के अनुसार रामवंशी लवकुश, बृहद्वल, निमिवंशी शुनक और ययाति वंशी यदु, अनु, पुरु, दुह्यु, तुर्वसु का राज्य महाभारतकाल तक चला और फिर हुई महाभारत।  इन्हीं पांचों से मलेच्छ, यादव, यवन, भरत और पौरवों का जन्म हुआ। इनके काल को ही आर्यों का काल कहा जाता है। आर्यों के काल में जिन वंश का सबसे ज्यादा विकास हुआ, वे हैं- यदु,  तुर्वसु,  द्रुहु,  पुरु और अनु। उक्त पांचों से राजवंशों का निर्माण हुआ। यदु से यादव,  तुर्वसु से यवन,  द्रुहु से भोज,  अनु से मलेच्छ और पुरु से पौरव l

 

        इस युद्ध में सुदास के भरतों की विजय हुई और उत्तर भारतीय उपमहाद्वीप के आर्यावर्त और आर्यों पर उनका अधिकार स्थापित हो गया। इस देश का नाम भरतखंड एवं इस क्षेत्र को आर्यावर्त कहा जाता था परन्तु इस युद्ध के कारण आगे चलकर पूरे देश का नाम ही आर्यावर्त की जगह 'भारत' पड़ गया।
       यद्यपि कुछ समय बाद ही राजा सुदास के बाद राजा संवरण ने शक्ति बढ़ाकर पंचाल राज्य को अपने अधीन कर लिया परन्तु कुछ समय बाद ही पंचाल पुन: स्वतंत्र हो गया। रामचंद्र के युग के बाद पुन: एक बार फिर यादवों और पौरवों ने अपने पुराने गौरव के अनुरूप आगे बढ़ना शुरू कर दिया। मथुरा से द्वारिका तक यदुकुल फैल गए और अंधक, वृष्णि, कुकुर और भोज उनमें मुख्य हुए। कृष्ण उनके सर्वप्रमुख प्रतिनिधि थे।
     संवरण के कुल के कुरु ने पांचाल पर अधिकार कर लिया | कुरु के नाम से कुरु वंश प्रसिद्ध हुआ,  राजा कुरु के नाम पर ही सरस्वती नदी के निकट का राज्य कुरुक्षेत्र कहा गया।  उस के वंशज कौरव कहलाए और आगे चलकर दिल्ली के पास इन्द्रप्रस्थ और हस्तिनापुर उनके दो प्रसिद्ध नगर हुए। भाई भाइयों, कौरवों और पांडवों का विख्यात महाभारत युद्ध पुनः एक बार भारतीय इतिहास की विनाशकारी घटना सिद्ध हुआ।
        


मंगलवार, 22 नवंबर 2016

अखिल भारतीय अगीत परिषद् एवं नवसृजन साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था के संयुक्त तत्वावधान में एक सरस काव्य गोष्ठी -डा श्याम गुप्त


अखिल भारतीय अगीत परिषद् एवं नवसृजन साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था के संयुक्त तत्वावधान में एक सरस काव्य गोष्ठी -डा श्याम गुप्त


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                                          साहित्यिक गोष्ठी संपन्न 


                          दि. २०-११-२०१६ रविवार को अखिल भारतीय अगीत परिषद् एवं नवसृजन साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था के संयुक्त तत्वावधान में एक सरस काव्य गोष्ठी सिटी कान्वेंट स्कूल, राजाजीपुरम के सभागार में आयोजित हुई | गोष्ठी की अध्यक्षता अ.भा.अगीत परिषद् के अध्यक्ष साहित्यभूषण डा रंगनाथ मिश्र सत्य ने की, मुख्य अतिथि डा श्याम गुप्त थे एवं विशिष्ट अतिथि द्वय कुमार तरल व डा सुभाष गुरुदेव थे | संचालन युवाओं की संस्था नवसृजन के अध्यक्ष डा योगेश गुप्त द्वारा किया गया | वाणी वन्दना श्रीमती कामिनी श्रीवास्तव, कुमार तरल व मुरली मनोहर कपूर द्वारा की गयी | 

                                 गोष्ठी का शुभारम्भ युवा कवि मुकेश द्वारा सरस छंदों से किया गया | फुरकत लखीम पुरी की गज़ल व अरविन्द झा के छंदों, डा योगेश गुप्त की अतुकांत आध्यात्मिक कविताओं, देवेश द्विवेदी देवेश के हास्य व्यंग्य व विशाल मिश्र की श्रृंगार रचनाओं सहित लगभग ३० रचनाकारों ने अपने अपने गीत, ग़ज़ल, काविताएं आदि सामयिक व विविध विषयक रचनाओं से गोष्ठी को सुरम्यता व ऊंचाइयां प्रदान की |
नव-सृजन संस्था के अध्यक्ष व गोष्ठी के संचालक डा योगेश गुप्त ने अपनी रचनाएँ प्रस्तुत करते हुए गोष्ठी में प्रस्तुत रचनाओं में साहित्य, संस्कृति व सरोकारों की आवश्यक उपस्थिति पर हर्ष व्यक्त किया | विशिष्ट अतिथि द्वय द्वारा भी युवा कवियों की रचनाओं की प्रशंसा की गयी एवं |

                          मुख्य-अतिथि डा श्यामगुप्त ने अपने गीत, छंद व ग़ज़ल प्रस्तुति के साथ ही नवसृजन संस्था व युवा कवियों की श्रेष्ठ रचनाओं की प्रशंसा करते हुए कुछ साहित्य के पुरोधाओं द्वारा प्रचारित इस तथ्य को कि आज युवाओं की रचनाओं में श्रेष्ठता नहीं है को निराधार बताया | डा श्यामगुप्त ने कहा कि यद्यपि फेसबुक, ब्लॉग आदि अभिव्यक्ति की तमाम उपलब्ध सुविधाओं के कारण कुछ साहित्यिक श्रेष्ठता में गिरावट हुई है परन्तु युवाओं द्वारा उत्तम कोटि का श्रेष्ठ साहित्य भी सदा की भांति उपलब्ध है |

                              अध्यक्षीय वक्तव्य में साहित्यभूषण डा रंगनाथ मिश्र सत्य ने गोष्ठी में प्रस्तुत सभी रचनाओं पर विस्तृत समीक्षा प्रस्तुत करते हुए उनकी श्रेष्ठता की प्रशंसा की एवं सुन्दर छंद रचनाएँ प्रस्तुत की |
डा योगेश गुप्त द्वारा धन्यवाद ज्ञापन किया गया |

'नवसृजन संस्था की युवा ब्रिगेड ...'
युवा कवि ब्रिगेड

'मुख्य अतिथि , अध्यक्ष व विशिष्ट अतिथि द्वारा माँ सरस्वती को  माल्यार्पण'
माँ सरस्वती को माल्यार्पण



'कवि मुकेश का काव्यपाठ'
मुकेश के छंद
'नव सृजन के महामंत्री देवेश द्विवेदी का काव्य पाठ'
देवेश द्विवेदी का काव्यपाठ


शनिवार, 22 अक्तूबर 2016

आजाद हिन्द फ़ौज के स्थापना दिवस पर शौर्य दिवस व काव्य गोष्ठी का आयोजन --डा श्याम गुप्त ..

आजाद हिन्द फ़ौज के स्थापना दिवस पर शौर्य दिवस व काव्य गोष्ठी का आयोजन --डा श्याम गुप्त ..

                                 ....कर्म की बाती,ज्ञान का घृत हो,प्रीति के दीप जलाओ...
अध्यक्ष श्री राधेश्याम दुबे, मुख्य अतिथि डा श्याम गुप्त एवं अन्य  उपस्थित जन व कविगण




        आजाद हिन्द फ़ौज के स्थापना दिवस पर शौर्य दिवस व काव्य गोष्ठी का आयोजन 

         राष्ट्रीय सैनिक संस्था जो पूर्व सैनिकों व देशभक्त नागरिकों का संगठन है के मुख्यालय, संस्था के लखनऊ इकाई के अध्यक्ष श्री राधेश्याम दुबे, पूर्व पीईएस एवं सुदर्शन श्याम सन्देश पत्रिका के सम्पादक के आवास, के-३९७, के-सेक्टर,आशियाना लखनऊ पर दि.२१-१०-१६ शुक्रवार को आजाद हिन्द फ़ौज के स्थापना दिवस की स्मृति में शौर्य-दिवस का आयोजन किया गया साथ ही राष्ट्रीय काव्य-गोष्ठी भी आयोजित की गयी | समारोह में डा श्याम गुप्त, श्री राधेश्याम दुबे ,पूर्व वरिष्ठ पर्सनल अधिकारी रेलवे श्री बिनोदकुमार सिन्हा, पूर्व सैनिक श्री रवीन्द्र अनुरागी, डा श्रीकृष्ण अखिलेश, श्री सुशील शुक्ल, एसएस द्विवेदी एवं विवेक वाजपेयी उपस्थित थे |

       समारोह की अध्यक्षता श्री राधेश्याम दुबे ने की एवं मुख्य अतिथि डा श्यामगुप्त थे |

       स्वामी विवेकानंद  मां सरस्वती, दुर्गा, त्रिदेव तथा स्वामी विवेकानन्द एवं  नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के चीतों पर माल्यार्पण के पश्चात डा अखिलेश द्वारा सरस्वती वन्दना की गयी |

       प्रथम सत्र में श्री शुक्ला जी ने सुभाष चन्द्र बोस एवं आजाद हिन्द फ़ौज के वारे में बताया | उन्होंने नेताजी का प्रसिद्द नारा ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा’ को दोहराया |  श्री सिन्हा ने कहा कि दीपावली पर स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग एवं शहीदों के सम्मान में सभी लोग २०-२० दीपक उनके नाम से जलाएं | श्री राधेश्याम दुबे जी का कथन था कि आज से हम सभी को अभिवादन में या फोन पर या आपस में मिलते समय प्रत्येक बार जयहिन्द कहने की प्रथा डालनी चाहिए | द्विवेदी जी का कथन था कि चीन की बनी एवं अन्य सभी विदेशी वस्तुओं के प्रयोग को हमें बंद कर देना चाहिए |

        डा श्याम गुप्त ने कहा कि इसप्रकार के आयोजन व्यक्ति व समाज में विशिष्ट भावनाओं के जागरण का कार्य करते हैं अतः प्रत्येक स्तर पर होते रहने चाहिए| इन सबके मूल में मानव सदआचरण अत्यंत महत्वपूर्ण है जिसके बिना किसी भी कार्य में सफलता नहीं मिल सकती |


     काव्य गोष्ठी सत्र दो चक्रों में किया गया | उपस्थित कवियों ने अपनी रचनाएँ प्रस्तुत कीं | संचालन श्री रवीन्द्र अनुरागी ने किया |

     कविवर श्री कृष्ण अखिलेश जी ने ‘मेरे देश नमन तुमको है’ गीत सुनाया—

कितनी वर्षों बाद तुम्हारे बेटों ने जब जोश दिखाया

लड़ते लड़ते अमर होगये, लिखती कलम नमन उनको है |


     कवि रवीन्द्र अनुरागी ने वीर सुभाष का वंदन करते हुए कहा—

टुकड़ों में चाहे देश बंटे, इनको चिंता है सत्ता की |

सरहद पर चाहे शीश कटे, इनको चिंता है भत्ता की | आओ सुभाष ! है अभिनन्दन ||


     बिनोदकुमार सिन्हा ने गाया-

‘नहीं बात अभी हुई पुरानी, थी खूब लड़ी झांसी की रानी |

यह देश है वीर जवानों का, वीरों का वीरांगनाओं का |


       डा श्याम गुप्त ने स्वाधीनता संग्राम में अपने ग्राम के देशभक्ति गीतों के गायकों की टोली के नायक अपने पिता यश:शेष श्री जगन्नाथ प्रसाद गुप्ता का सुभाष, आजाद हिन्द फ़ौज एवं देशप्रेम की घटनाएं सुनाईं तथा उनके  द्वारा प्रायः गाया जाने वाला एक गीत सुनाया ----

पोरस की वीरता का झेलम तूही पता दे,

यूनान का सिकंदर था तेरे तट पे हारा |


     स्वरचित गीत में डा श्यामगुप्त ने नव-विवाहित सैनिक को युद्ध पर जाने का सन्देश मिलने पर उसके वीररस व श्रृंगार के समन्वित भावों की एक नज़्म प्रस्तुत की  --

ए मेरे प्यार की की साहिल ऐ मेरी जाने गुमां |

मुझको आवाज न दो अब न ठहर पाऊंगा |

अब मेरा मुल्क मेरा देश मेरी धरती माँ

देती आवाज़ भला कैसे मैं अब रुक पाऊँ |

    

         श्री राधेश्याम दुबे जी ने मुक्तक सुनाया—

‘बात ही बात में विश्वास बदल जाता है |

रात ही रात में इतिहास बदल जाता है |

तकदीर और तदबीर मिलकर चलती हैं-

धरा की कौन कहे आकाश बदल जाता है | 

     श्री दुबेजी द्वारा धन्यवाद व चायपान एवं जयहिंद के उद्घोष के साथ गोष्ठी का समापन किया गया |

शनिवार, 15 अक्तूबर 2016

यक्ष-प्रश्न ...कहानी---डा श्याम गुप्त....

              राम के सीता-वनवास के निर्णय पर प्रायः प्रश्न उठाये जाते रहे हैं, आज के नव-विकास के युग में कुछ अधिक ही , परन्तु वस्तुतः ये गहन राजनीति के तथ्य हैं ---प्रस्तुत है एक कथा---

***यक्ष-प्रश्न ...कहानी****

               पुष्पाजी अपनी महिला मंडली के नित्य सायंकालीन समागम से लौटकर आयें तो कहने लगीं,’ आखिर राम ने एक धोबी के कहने पर सीताजी को वनबास क्यों देदिया? क्या ये उचित था |

              क्या हुआ? मैंने पूछा, तो कहने लगीं,’ आज पर्याप्त गरमा-गरम तर्क-वितर्क हुए| शान्ति जी कुछ अधिक ही महिलावादी हैं, इतना कि वे अन्य महिलाओं के तर्क भे नहीं सुनतीं | उनका कहना है कि पुरुष सदा ही नारी पर अत्याचार करता आया है | मेरे कुछ उत्तर देने पर बोलीं कि अच्छा तुम डाक्टर साहब से पूछ कर आना इनके उत्तर | वे तो साहित्यकार हैं और नारी-विमर्श आदि पर रचना करते रहते हैं | वे आपसे भी बात करना चाहती हैं |

            क्यों नहीं ,मैंने कहा , अवश्य, कभी भी |

            दूसरे दिन ही तेज तर्रार शान्ति जी प्रश्नों को लेकर पधारीं, साथ में अन्य महिलायें भी थीं | बोलीं ‘क्या उत्तर हैं आपके इन परिप्रेक्ष्य में ? मैंने कहने का प्रयत्न किया कि एसा नहीं है, राम शासक थे और.....वे तुरंत ही बात काटते हुए कहने लगीं ,’ राम राजा थे..प्रजा के हित में व्यक्तिगत हित का परित्याग, लोक-सम्मान आदि..... ये सब मत कहिये, घिसी-पिटी बातें हैं, बेसिर-पैर की...पुरुषों की सोच की ...| कुछ महिलाओं ने कहा भी कि पहले उनकी बात तो सुनिए, परन्तु वे कहती ही गयीं, आखिर नारी ही क्यों सारे परीक्षण भोगे, पुरुष क्यों नहीं?
                         मैंने प्रति-प्रश्न किया, अच्छा बताइये, क्या एक स्त्री के कहने पर राम-वनबास... क्या स्त्री का पुरुष पर अत्याचार नहीं था| पुरुष तो कभी ये प्रश्न नहीं उठाते, क्यों | प्रश्न उठते भी हैं तो... हाय, विरुद्ध विधाता....आज्ञाकारी पुत्र ..में दब कर रह जाते हैं| विवाह सुख भोगते राम को ठेल दिया वनबास में और दशरथ को मृत्युलोक में | क्या स्त्री पर पुरुषों को प्रश्न उठाने का अधिकार नहीं है ?

                  शान्ति जी कुछ ठिठकीं परन्तु हतप्रभ नहीं हुईं, बोलीं, तो आप मानते हैं कि जैसे राम पर अत्याचार हुआ वैसे ही सीता पर भी अग्नि-परिक्षा व सीता त्याग रूपी अत्याचार –अन्याय हुआ, तो राम पुरुषोत्तम क्यों हुए ?
                  क्या आप समझती हैं कि राम को कष्ट नहीं हुआ होगा यह निर्णय लेते हुए, मैंने कहा, पत्नी-सुख वियोग एवं आत्म-ग्लानि की दो-दो पीडाएं झेलना कम दुःख होगा | वे चाहते तो दूसरा विवाह कर सकते थे, परन्तु नहीं सामाजिक परिवर्तन की उस युग-संधिबेला पर राम एक उदाहरण, एक मर्यादा स्थापित करना चाहते थे –प्रत्येक स्थित-परिस्थिति में एक पत्नीव्रत की |

                 तो उन्होंने स्वयं वनबास क्यों नहीं लेलिया, साथ में बैठी प्रीति जी ने पूछ लिया |

                तो फिर एक पत्नीव्रत मर्यादा कैसे स्थापित होती, और वे कायर कहलाते| समस्या समाधान से पलायन करने वाला भगोड़ा, कापुरुष राजा | सीता को यह कब मान्य था अतः उन्होंने स्वयं ही निर्वासन को चुना| पति का अपमान प्राय: पत्नी को स्वयं का ही अपमान प्रतीत होता है, क्या यह सही नहीं है, मैंने कहा| सब चुप रहीं |
             सीता ने स्वयं ही निर्वासन को चुना...ये नया ही बहाना गढ़ लिया है आपने, वाह!... शान्ति जी ने कहा |
मैंने पुनः प्रयास किया, ‘वास्तव में जैसे राम का वनगमन एक राजनीति-सामाजिक कूटनीति का भाग था वैसे ही सीता-वनबास भी विभिन्न नीतिगत राजनीति के कार्यान्वन का भाग थे |

           कैसे ! वे बोल पडीं |

          देखिये मैंने कहा, कुछ विद्वानों का मत है कि सीता-वनबास हुआ ही नहीं, क्योंकि तुलसी की रामचरित मानस एवं महाभारत के रामायण प्रसंग में इस घटना का रंचमात्र भी उल्लेख नहीं है, अतः बाल्मीक रामायण में यह प्रसंग प्रक्षिप्त है, बाद में डाला गया, राम को बदनाम करने हेतु| परन्तु मेरे विचार से जन-श्रुतियां, लोक-साहित्य व स्थानीय प्रचलित कथाये आदि में कुछ अनकही बातें अवश्य होती हैं जो लोक-स्मृति में रह जाती हैं| जिन्हें पात्र की महत्ता व संगति से विपरीत मानकर सामाजिक-साहित्यकार-रचनाकार छोड़ भी सकते हैं|
                         वस्तुतः राम एक अत्यंत ही नीति-कुशल राजनैतिज्ञ थे| समस्त भारत की शक्तियों का ध्रुवीकरण करके अयोध्या व भारतवर्ष को अविजित शक्ति का केंद्र बनाना उनका ध्येय था | पूरे भारत में उन्होंने अपनी मित्रता, कूटनीति, धर्माचरण व शक्ति-पराक्रम के बल पर शक्तियां एकत्रित कीं| वनांचल के तमाम स्थानीय कबीले, वनबासी शासक, आश्रम व ऋषि, मुनि अस्त्र-शस्त्रों व शक्ति के केंद्र थे | विश्वामित्र, वशिष्ठ, अगस्त्य, भारद्वाज सभी ने राम को अस्त्र-शस्त्र प्रदान किये, परेंतु महर्षि बाल्मीकि जो बहुत बड़े शक्ति के केंद्र थे, उन्होंने सिर्फ आशीर्वाद दिया ..अस्त्र-शस्त्र नहीं | जैसा मानस में पाठ है....
             ‘मुनि कहँ राम दण्डवत कीन्हा। आसिरवादु विप्रवर दीन्हा।।’

            वाल्मीकि जी ने आशीर्वाद तो दिया किन्तु दिव्यास्त्रों के भण्डार का नाम तक नहीं लिया। अतः लंका विजय अर्थात समस्त भारतीय भूभाग का ध्रुवीकरण के पश्चात सिर्फ अयोध्या के निकटवर्ती वाल्मीकि आश्रम ही शक्ति का केंद्र बच गया था| राम ने सोचा, यह भण्डार अब व्यर्थ है इसका सदुपयोग होना चाहिए। उसी वन के समीप सीता को प्रेषित किया, जहाँ महर्षि वाल्मीकि का आश्रम था। राम का यह कृत्य महर्षि को अच्छा नहीं लगा। महर्षि ने साध्वी सीता को संरक्षण दिया। महर्षि ने उनके माध्यम से राम को सबक सिखाने का निश्चय कर, लव व कुश को दिव्यास्त्रों का संचालन सिखाया। समस्त शस्त्र-शास्त्र उन्हें सौंप कर अयोध्या से लड़ने योग्य बनाया| माँ के लाड़-प्यार व संरक्षण में और महर्षि के कुशल निर्देशन में पल्लवित बच्चे अश्वमेध के घोडे को पकड़ने के प्रकरण में विश्व-विजयी अयोध्या की समस्त सेना को हराने में सफल हुए| इस युद्ध में लंका-विजयी शूरवीरों के दर्प व उनकी शक्तियों का भी दलन हुआ जो राम की कूटनीति का भाग था|

             इस प्रकार राम व सीता ने परस्पर सहयोग, सामंजस्य व कूटनीति से अपने पुत्रों को भी महलों के राजसी विलास, लंका-विजयी विश्व-विख्यात महान सम्राट राजा रामचंद्र के प्रभामंडल के दर्प से दूर वनांचल में ज्ञानी ऋषियों-मुनियों छत्र-छाया में पालन-पोषण का प्रवंध कर दिया ताकि वे सर्व-शक्तिमान बन कर उभरें|
ये त्याग की पराकाष्ठाएं हैं | इसीलिये राम,राम हैं....सीता, सीता| त्याग, तप, धैर्य व कष्टों में तपकर ही तो व्यक्ति महान होता है| यदि राम-वनबास नहीं होता तो कौन जनता राम को, लक्ष्मण को, वे सिर्फ एक राजा होकर रह जाते, न इतिहास पुरुष होते, न पुरुषोत्तम न प्रभु राम|

          कृष्ण-राधा के त्याग तप ने ही उन्हें श्रीकृष्ण व श्रीराधिका जी बनाया अन्यथा कौन पूछता सीता को कौन राधा को..वे भी श्रीकृष्ण की एक और रानी या किसी अन्य पात्र की पत्नी बन कर इतिहास में गुम हो जातीं |

             तो आपका मत है कि सीता के साथ कोइ अन्याय नहीं हुआ, शान्ति जी जल्दी-जल्दी बोलीं, ये सारे प्रश्न निरर्थक हैं?
             आप लोग यह बताइये, मैंने भी प्रश्न पूछ लिया, कि क्या सीता के काल-खंड में विदुषी स्त्रियाँ नहीं थीं, उन्होंने ये प्रश्न क्यों नहीं उठाये? विज्ञ, पढी-लिखी, विदुषी, बीर-प्रसू, शस्त्र-शास्त्र कुशल तीनों माताएं; कैकयी जैसी युद्धकुशल, नीतिज्ञ, देवासुर संग्राम में दशरथ की रथ-संचालिका एवं सहायिका ने ये प्रश्न क्यों नहीं उठाये? सीता की अन्य तीनों बहनों ने क्यों नहीं उठाये?

               यदि उठाये भी होंगें तो हमें कैसे ज्ञात होगा, वे कहने लगीं, पुरुष दंभ व राजाज्ञा में दबा दिए गए होंगे |

                उसी प्रकार जैसे सीता पर अत्याचार के तथ्य आपको ज्ञात हैं, मैंने स्पष्ट किया, अन्यथा हमें क्या पता कोई राम-सीता थे भी या नहीं, सीता वनबास हुआ भी था या नहीं | फिर तो सारे प्रश्न ही निरर्थक होजाते हैं|

             और अग्नि-परिक्षा का क्या औचित्य है आपके अनुसार | प्रीति जी ने पूछा |

              आपने रामचरित मानस तो कई बार पढी होगी| ध्यान दें ,जब राम कहते हैं...
“तुम पावक महं करहु निवासा, जब लगि करों निशाचर नासा |
जबहिं राम सब कहा बखानी, प्रभु पद हिय धरि अनल समानी|
निज प्रतिबिम्ब राखि तहं सीता, तैसेहि रूप सील सुविनीता | “ ..
.अरण्यकाण्ड
.
         अर्थातु सीताजी तो महर्षि अग्निदेव के आश्रय में चली गयीं जो उनके श्वसुर थे| वह तो नकली सीता थी जिसका हरण हुआ|
          अब लंकाकाण्ड की चौपाई पर गौर करें ....
“सीता प्रथम अनल महं राखी, प्रकट कीन्ह चहं अंतरसाखी”
‘तेहि कारन करूणानिधि, कछुक कहेउ दुर्वाद,
सुनत जातुधानी सबै लागीं करन बिसाद |’


              आखिर बिना असली सीता को प्रकट किये वे नकली सीता को वहां से कैसे साथ लेजाते |

              तो फिर सीताजी लौटी क्यों नहीं राम के साथ? किसी महिला ने एक और प्रश्न उठाया |

              जिससे कूटनीति का पटाक्षेप भी सत्य लगे, कुछ तो स्वाभिमान प्रकट होना ही चाहिए नारी का, ताकि प्रत्येक एरा-गेरा पुरुष इस उदाहरण रूप में स्त्री पर अत्याचार न करने लगे|

            यह तीसरी अग्नि-परिक्षा थी, वास्तव में शक्ति के पूर्ण ध्रुवीकरण के पश्चात, शक्ति-रूप की आवश्यकता समाप्त होगई | आदि-शक्ति को ब्रह्म से पूर्व पहुँचना होता है गोलोक की व्यवस्था हेतु, मैंने हंसते हुए कहा | वे भी मुस्कुराने लगीं |

           पूरा समाधान नहीं होपाया, आपके उत्तर, तर्क व व्याख्याएं सटीक होते हुए भी पूर्ण नहीं हैं | शान्ति जी उठकर चलते हुए बोलीं |

          पूर्ण यहाँ कौन है शान्ति जी? इस प्रकार के ये प्रश्न युग-प्रश्न हैं..यक्ष-प्रश्न...प्रत्येक युग में अपने-अपने प्रकार से प्रश्नांकित व उत्तरित किये जाते रहेंगे | मैंने समापन करते हुए दोनों हाथ जोड़कर कहा, हम तो बस आप सबको, सभी महिलाओं को ‘जोरि जुग पाणी’ प्रणाम ही कर सकते हैं इस आशा में कि शायद रामजी की एवं पुरुष-वर्ग की इस तथाकथित भूल का रंचमात्र भी निराकरण होजाए|

बुधवार, 12 अक्तूबर 2016

गीत "गीत का व्याकरण" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

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हार में है छिपा जीत का आचरण।
सीखिए गीत सेगीत का व्याकरण।।

बात कहने से पहले विचारो जरा
मैल दर्पण का अपने उतारो जरा
तन सँवारो जरा, मन निखारो जरा
आइने में स्वयं को निहारो जरा
दर्प का सब हटा दीजिए आवरण।
सीखिए गीत सेगीत का व्याकरण।।

मत समझना सरल, ज़िन्दग़ी की डगर
अज़नबी लोग हैं, अज़नबी है नगर
ताल में जोहते बाट मोटे मगर
मीत ही मीत के पर रहा है कतर
सावधानी से आगे बढ़ाना चरण।
सीखिए गीत सेगीत का व्याकरण।।

मनके मनकों से होती है माला बड़ी
तोड़ना मत कभी मोतियों की लड़ी
रोज़ आती नहीं है मिलन की घड़ी
तोड़ने में लगी आज दुनिया कड़ी
रिश्ते-नातों का मुश्किल है पोषण-भरण।
सीखिए गीत सेगीत का व्याकरण।।

वक्त की मार से तार टूटे नहीं
भीड़ में मीत का हाथ छूटे नहीं
खीर का अब भरा पात्र फूटे नहीं
लाज लम्पट यहाँ कोई लूटे नहीं
प्रीत के गीत से कीजिए जागरण
सीखिए गीत सेगीत का व्याकरण।।

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