यह ब्लॉग खोजें

गुरुवार, 29 जनवरी 2015

"दोहा, रोला और कुण्डलिया" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

दोहा और रोला और कुण्डलिया
दोहा
    दोहा, मात्रिक अर्द्धसम छन्द है। दोहे के चार चरण होते हैं। इसके विषम चरणों (प्रथम तथा तृतीय) में १३-१३ मात्राएँ और सम चरणों (द्वितीय तथा चतुर्थ) में ११-११ मात्राएँ होती हैं। विषम चरणों के आदि में जगण (।ऽ।) नहीं होना चाहिए। सम चरणों के अन्त में एक गुरु और एक लघु मात्रा का होना आवश्यक होता है अर्थात अन्त में लघु होता है।
उदाहरण-
मन में जब तक आपके, होगा शब्द-अभाव।
दोहे में तब तक नहीं, होंगे पुलकित भाव।१।
--
गति-यति, सुर-लय-ताल सब, हैं दोहे के अंग।
कविता रचने के लिए, इनको रखना संग।२।
--
दोहा वाचन में अगर, आता हो व्यवधान।
कम-ज्यादा है मात्रा, गिन लेना श्रीमान।३।
--
लघु में लगता है समय, एक-गुना श्रीमान।
अगर दो-गुना लग रहा, गुरू उसे लो जान।४।
--
दोहे में तो गणों का, होता बहुत महत्व।
गण ही तो इस छन्द के, हैं आवश्यक तत्व।५।
--
तेरह ग्यारह से बना, दोहा छन्द प्रसिद्ध।
विषम चरण के अन्त में, होता जगण निषिद्ध।६।
--
कठिन नहीं है दोस्तों, दोहे का विन्यास।
इसको रचने के लिए, करो सतत् अभ्यास।७।
--------------
रोला
     रोला एक छन्द है। यह मात्रिक सम छन्द है। इसमें 24 मात्राएँ होती हैं, अर्थात विषम चरणों में 11-11 मात्राएँ और सम चरणों में 13-13 मात्राएँ। ग्यारहवीं और तेरहवीं मात्राओं पर विराम होता है। अन्त में 'गुरू' होने आवश्यक हैं।
उदाहरण-
नीलाम्बर परिधान, हरित पट पर सुन्दर है।
२२११ ११२१=११ / १११ ११ ११ २११२ = १३
सूर्य-चन्द्र युग-मुकुट, मेखला रत्नाकर है।
२१२१ ११ १११=११ / २१२ २२११२ = १३
नदियाँ प्रेम-प्रवाह, फूल तारा-मंडल हैं।
११२ २१ १२१=११ / २१ २२ २११२ = १३
बंदीजन खगवृन्द, शेष-फन सिंहासन है।
२२११ ११२१ =११ / २१११ २२११२ = १३ 
मैथिलीशरण गुप्त
-------
कुण्डलिया
   कुण्डलिया मात्रिक छंद है। एक दोहा तथा दो रोला मिला कर कुण्डलिया बनती है। दोहे का अंतिम चरण ही प्रथम रोले का प्रथम चरण होता है तथा जिस शब्द से कुण्डलिया का आरम्भ होता हैउसी शब्द से कुण्डलिया समाप्त भी होती है।
उदाहरण -
(1)
बेटे-बेटी में करो, समता का व्यवहार।
बेटी ही संसार की, होती सिरजनहार।।
होती सिरजनहार, स्रजन को सदा सँवारा।
जिसने ममता को उर में जीवन भर धारा।।
कह 'मयंक' दामन में कँटक रही समेटे।
बेटी माता बनकर जनती बेटी-बेटे।।
(2)
हरे-भरे हों पेड़ सब, छाया दें घनघोर।
उपवन में हँसते सुमन, सबको करें विभोर।।
सबको करें विभोर, प्रदूषण हर लेते हैं।
कंकड़-पत्थर खाकर, मीठे फल देते हैं।।
कह 'मयंक' आचरण, विचार साफ-सुथरे हों।
उपवन के सारे, पादप नित हरे-भरे हों।।

बुधवार, 28 जनवरी 2015

नपुंसक (लघुकथा) - सुधीर मौर्य

'देखो तुम्हारे अतीत को जानते हुए भी मैने तुमसे शादी की।पति सुहागरात को पहले लैंगिक संसर्ग के बाद से बोला।
पत्नी
पत्नी ने पति की बात सुनकर अपनी झुंकी आँखे और झुंकी दी।
'कहो अब कौन महान है मैं या वो तुम्हारा प्रेमी ?' पति वापस तनिक घमंड से बोला।
पत्नी अब भी वैसे ही बैठी रही। मूक और नत मुख।
'कहीं वो नपुंसक तो नहीं था?' पति, पत्नी के मन में उसके प्रेमी के लिए घृणा का भाव पैदा करने की गर्ज़ से बोला।

पति की बात सुनकर पत्नी को वो दिन याद गए जब वो अपने प्रेमी के साथ प्रेम गीत गाती थी।  

उसका प्रेमी उसे बेहद प्रेम करता था  कई बार वो उसके साथ एक ही चादर में लेटा था पर कभी चुम्बन आदि से आगे बढ़ा। और फिर एक रात जब उसने  खुद काम के वश    में होकर अपने प्रेमी से कहा 'उसकी इच्छा पूरी करो' तभी उसने उसके साथ दैहिक सम्बन्ध बनाया।
पत्नी को चुप देख पति वापस बोला - 'क्या वो वाक़ई नपुंसक था। '
पत्नी का मन किया वो कह दे अपने पति से - नपुंसक वो नहीं था जो प्रेम की पवित्रता निभाता रहा, जो हर राह में मेरे साथ में खड़ा रहा। मेरी पढ़ाई का खर्च उठता रहा। मेरे एक बार कहने पर चुपचाप मेरी ज़िन्दगी से दूर हो गया। और तुम्हारे मांगे के दहेज़ की राशि उसने दी अपने सिद्धांतो के विरुद्ध जाके।  अरे नपुंसक तो तुम हो जो अच्छी खासी नौकरी करते हुए भी बिना दहेज़ के शादी को तयार नहीं हुए।
पत्नी अभी सोच ही रही थी कि पति ने खींच कर वापस उससे लैंगिक संसर्ग करने लगा और पत्नी चुपचाप एक 'नपुंसक' के सीने से चिपट गई।

--सुधीर मौर्य
sudheermaurya1979@rediffmail.com

शनिवार, 24 जनवरी 2015

बसंत ऋतु आई है ... ...डा श्याम गुप्त.....

बसंत ऋतु आई है ... ...डा श्याम गुप्त.....



                                    
 वसंत

नर कोयल
मादा-कोयल


 
   बसंत  ---- बागों में, वनों में, सुधियों में बगरा हुआ रहता है और समय आने पर पुष्पित-पल्लवित होने लगता है .....प्रस्तुत है ..बसंत
पर एक रचना .....वाणी की देवी .सरस्वती वन्दना से....
        
                   
सरस्वती वन्दना 
जो कुंद इंदु तुषार सम सित हार, वस्त्र से आवृता 
वीणा है शोभित कर तथा जो श्वेत अम्बुज आसना ।
जो ब्रह्मा शंकर विष्णु देवों से सदा ही वन्दिता ।
माँ शारदे ! हरें श्याम' के तन मन ह्रदय की मंदता ।।

                  
बसंत ऋतु आई है ....
 
                  (
घनाक्षरी छंद )
     
गायें कोयलिया तोता मैना बतकही करें ,           
कोपलें लजाईं, कली कली शरमा रही |
झूमें नव पल्लव, चहक रहे खग  वृन्द ,
आम्र बृक्ष बौर आयेऋतु हरषा रही|
नव कलियों पै हैं, भ्रमर दल गूँज रहे,
घूंघट उघार कलियाँ भी मुस्कुरा रहीं |
झांकें अवगुंठन से, नयनों के बाण छोड़ ,
विहंस विहंसवे मधुप को लुभा रहीं ||

सर फूले सरसिज, विविध विविध रंग,
मधुर मुखर भृंग, बहु स्वर गारहे |
चक्रवाक वक जल कुक्कुट औ कलहंस ,
करें कलगान, प्रात गान हैं सुना रहे |
मोर औ मराल, लावा  तीतर चकोर बोलें,
वंदी जन मनहुंमदन गुण गा रहे |
मदमाते गज बाजि ऊँट, वन गाँव डोलें,
पदचर यूथ ले, मनोज चले आरहे ||

पर्वत शिला पै गिरें, नदी निर्झर शोर करें ,
दुन्दुभी बजाती ज्यों, अनंग अनी आती है |
आये ऋतुराज, फेरी मोहिनी सी सारे जग,
जड़ जीव जंगम मन, प्रीति मदमाती है |
मन जगे आसप्रीति तृषा  मन भरमाये ,
नेह नीति रीति, कण कण सरसाती है |
ऐसी बरसाए प्रीति रीति, ये बसंत ऋतु ,
ऋषि मुनि तप नीति, डोल डोल जाती है ||

लहराए क्यारी क्यारी,सरसों गेहूं की न्यारी,
हरी पीली ओड़े  साड़ीभूमि इठलाई  है |
पवन सुहानी, सुरभित सी सुखद सखि !
तन मन  हुलसेउमंग मन छाई है |
पुलकि पुलकि उठें, रोम रोम अंग अंग,
अणु अणु प्रीति रीति , मधु ऋतु लाई है |
अंचरा उड़े सखी री, यौवन तरंग उठे,
ऐसी मदमाती सी, बसंत ऋतु आई है ||
                                                              ----चित्र ..निर्विकार  एवं गूगल साभार

फ़ॉलोअर

मेरे द्वारा की गयी पुस्तक समीक्षा--डॉ.श्याम गुप्त

  मेरे द्वारा की गयी पुस्तक समीक्षा-- ============ मेरे गीत-संकलन गीत बन कर ढल रहा हूं की डा श्याम बाबू गुप्त जी लखनऊ द्वारा समीक्षा आज उ...