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सोमवार, 25 जुलाई 2016

सृष्टि, व्याप्ति एवं विनाश के देव शिव, सृष्टि का मूल तत्व-शिवतत्व, शिवलिंग एवं आधुनिक लिंग-पुराण -डा श्याम गुप्त


                                  

सृष्टि, व्याप्ति एवं विनाश के देव शिव, सृष्टि का मूल तत्व-शिवतत्व, शिवलिंग एवं आधुनिक लिंग-पुराण





     श्रावण मास शिव का महीना कहा जाता है | वस्तुतः शिवतत्व ही जग-जीवन का मूल है|शिवत्व अर्थात कल्याणकारी तत्व- विचार रूप, ज्ञानरूप व कृतित्व रूप| यह सर्वकल्याणकारी भाव  ही प्रत्येक सृजन का मूल है, अतः शिव सृजन के देव हैं| कल्याणभाव से विरत होजाना ही विनाश है, अतः शिव विनाश के देव हैं | सृष्टि व विनाश साथ साथ चलते हैं| नवीन व सुहृद भावतत्वों का सृजन एवं अकल्याणकारी अनावश्यक तत्वों का विनाश साथ साथ | अतः शिव स्थिति अर्थात व्याप्ति के भी देव हैं अतः वे महादेव हैं, देवाधिदेव हैं |   
       आधुनिक ज्ञान के नाम पर विदेशी चिंतन का प्रभाव हमारे ऊपर बहुत अधिक हावी हो रहा है इसलिए एक संघर्ष हमें अपनी मानसिकता से ही करना होगा कि अपनी परंपरा में जो ग्रहणीय है,  मूल्यपरक है उस पर फिर से लौटना होगा। साथ में तार्किक विदेशी ज्ञान भंडार से भी अपरिचित नहीं रहना होगा क्योंकि विकल्प में जो कुछ भी हमें दिया है, वह आरोहण और नकल के अतिरिक्त कुछ नहीं। निरन्तर द्वंद्व और निरंतर द्वंद से मुक्ति का प्रयास, मनुष्य की संस्कृति के विकास का यही मूल आधार है। हमारे पुराण आदि हमें आधार देते हैं |
         विश्व की सबसे श्रेष्ठ व उन्नत भारतीय शास्त्र-परम्परा में ---पुराण साहित्य में मूलतः अवतारवाद की प्रतिष्ठा हैं **निर्गुण निराकार की सत्ता को मानते हुए सगुण साकार की उपासना का प्रतिपादन** इन ग्रंथों का मूल विषय है। उनसे एक ही निष्कर्ष निकलता है कि आखिर मनुष्य और इस सृष्टि का आधार-सौंदर्य तथा इसकी मानवीय अर्थवत्ता में कही- -कहीं सद्गुणों की प्रतिष्ठा होना ही चाहिए, जो आश्चर्यजनक रूप से सभी पुराणों में मिलती है |  सत्कर्म की प्रतिष्ठा की प्रक्रिया में अपकर्म और दुष्कर्म का व्यापक चित्रण करने में पुराणकार कभी पीछे नहीं हटते और उसके देवताओं की कुप्रवृत्तियों को भी व्यापक रूप में चित्रित किया है, उसका मूल उद्देश्य शिवत्व, कल्याण अर्थात सद्भावना का विकास और सत्य की प्रतिष्ठा ही है।
           सृष्टि के प्रारंभ में जब ब्रह्माजी द्वारा रची गई मानसिक सृष्टि विस्तार न पा सकी, उसी समय आकाशवाणी हुई ब्रह्मन्! अब मैथुनी सृष्टि करो। आकाशवाणी सुनकर ब्रह्माजी ने मैथुनी सृष्टि रचने का निश्चय तो कर लिया, किंतु उस समय तक नारियों की उत्पत्ति न होने के कारण वे अपने निश्चय में सफल नहीं हो सके। परमेश्वर शिव की कृपा के बिना मैथुनी सृष्टि नहीं हो सकती अतः ब्रह्मा उन्हें प्रसन्न करने के लिए कठोर तप करने लगे। उनके तीव्र तप से प्रसन्न होकर भगवान उमा-महेश्वर ने उन्हें अर्द्धनारीश्वर रूप में दर्शन दिया। महेश्वर शिव ने कहा-पुत्र ब्रह्मा ! मैं परम प्रसन्न हूं। ऐसा कहकर शिवजी ने अपने शरीर के आधे भाग से उमा देवी को अलग कर दिया। ब्रह्मा ने कहा.-एक उचित सृष्टि निर्मित करने में अब तक मैं असफल रहा हूं। मैं अब स्त्री-पुरुष के समागम से मैं प्रजाओं को उत्पन्न कर सृष्टि का विस्तार करना चाहता हूं। परमेश्वरी शिवा ने अपनी भौंहों के मध्य भाग से अपने ही समान कांतिमती एक शक्ति प्रकट की। सृष्टि निर्माण के लिए शिव की वह शक्ति ब्रह्माजी की प्रार्थना के अनुसार दक्षकी पुत्री हो गई। देवी शिवा महादेव जी के शरीर में प्रविष्ट हो गईं, यही अर्द्धनारीश्वर शिव का रहस्य है और इसी से आगे सृष्टि का संचालन हो पाया, जिसके नियामक शिवशक्ति ही हैं।
       भारतीय वेदों, उपनिषदों तथा दर्शनों में सृष्टि का प्रारम्भ 'शब्द ब्रह्म' से माना जाता रहा है। उस ब्रह्म का न कोई आकार है और न कोई रूप। उसी 'शब्द ब्रह्म' का प्रतीक चिह्न साकार रूप में 'शिवलिंग' है। यह शिव अव्यक्त भी है और अनेक रूपों में प्रकट भी होता है।
       भारतीय मनीषियों ने भगवान के तीन रूपों- 'व्यक्त', 'अव्यक्त' और 'व्यक्ताव्यक्त' का जगह-जगह उल्लेख किया है। 'लिंग पुराण' में शिव के तीन स्वरूपों में व्यक्त किया है-
        एकेनैव हृतं विश्वं व्याप्त त्वेवं शिवेन तु।
        अलिंग चैव लिंगं च लिंगालिंगानि मूर्तय:॥ (लिंग पुराण 1/2/7) .....  अर्थात् शिव के तीन रूपों में से एक के द्वारा सृष्टि (विश्व) का संहार हुआ और उस शिव के द्वारा ही यह व्याप्त है। उस शिव की अलिंग, लिंग और लिगांलिंग तीन मूर्तियां हैं।
       भारत में शिवलिंग पूजा की परंपरा आदिकाल से ही है। पर लिंग पूजा की परंपरा सिर्फ भारत में ही नहीं है, बल्कि दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में आरंभ से ही इसका चलनयूनान में इस देवता को 'फल्लुस' ( जिससे अन्ग्रेज़ी में फ़ैलस = शिश्न बना )तथा रोम में 'प्रियेपस' कहा जाता था। (प्रियेपस = अंग्रेज़ी प्रिप्यूस, शिश्न का अग्र भाग ) 'फल्लुस' शब्द (टाड का राजस्थान, खंड प्रथम, पृष्ठ 603) संस्कृत के 'फलेश' शब्द का ही अपभ्रंश है, जिसका प्रयोग शीघ्र फल देने वाले 'शिव' के लिए किया जाता है। मिस्र में 'ओसिरिस' , चीन में 'हुवेड् हिफुह' था। सीरिया तथा बेबीलोन में भी शिवलिंगों के होने का उल्लेख मिलता  है।
         'लिंग' का सामान्य अर्थ 'चिन्ह' होता है। इस अर्थ में लिंग पूजन, शिव के चिन्ह या प्रतीक के रूप में होता है। सवाल उठता है कि लिंग पूजन केवल शिव का ही क्यों होता है, अन्य देवताओं का क्यों नहीं? कारण यह है कि शिव को आदि शक्ति के रूप में स्वीकार किया गया है, जिसकी कोई आकृति नहीं। इस रूप में शिव निराकार है। लिंग का अर्थ ओंकार () बताया गया है....” तस्य लिंग प्रणव” ...अतः " 'लिंग' का अर्थ शिव की जननेन्द्रिय से नहीं अपितु उनके 'पहचान चिह्न' से है, जो अज्ञात तत्त्व का परिचय देता है। शिवपुराण प्रधान प्रकृति को ही लिंग रूप मानता है |  
प्रधानं प्रकृतिश्चैति यदाहुर्लिंगयुत्तमम्।
गन्धवर्णरसैर्हीनं शब्द स्पर्शादिवर्जितम् ॥ (लिंग पुराण 1/2/2)
       अर्थात् प्रधान प्रकृति उत्तम लिंग कही गई है जो गन्ध, वर्ण, रस, शब्द और स्पर्श से तटस्थ या वर्जित है। 'लिंग पुराण' में लिंग का अर्थ ओंकार () बताया गया है।

   शिवलिंग की आकृति ----भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार यह संपूर्ण ब्रह्मांड मूल रूप में केवल अंडाकार ज्योतिपुंज ( आधुनिक विज्ञान के बिगबेंग का महापिन्ड-नीहारिका के स्वरुप की भांति ) के रूप में था। इसी ज्योतिपुंज को आदिशक्ति (या शिव) भी कहा जा सकता है, जो बाद में बिखरकर अनेक ग्रहों और उपग्रहों में बदल गई। (  
       आधुनिक विज्ञान के अनुसार --समस्त सौरमंडल एक महा नेब्यूला के बिखरने से बना है |
    वैदिक विज्ञान--'एकोहम् बहुस्यामि' का भी यही साकार रूप और प्रमाण है। इस स्थिति में मूल अंडाकार ज्योतिपुंज, दीपक की लौ या अग्निशिखा भी प्रतीक रूप में वही आकृति बनती है, जिसकी हम लिंग रूप में पूजा करते हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड की आकृति निश्चित ही शिवलिंग की आकृति से मिलती-जुलती है इस तरह शिवलिंग का पूजन, वस्तुत: आदिशक्ति का और वर्तमान ब्रह्मांड का पूजन है।
          शिव के 'अर्द्धनारीश्वर' स्वरूप से जिस मैथुनी-सृष्टि का जन्म हुआ, जो तत्व-विज्ञान के अर्थ में विश्व संतुलन व्यवस्था में ( ो हमें सर्वत्र दिखाई देती है ) शिव तत्व के भी संतुलन हेतु योनि-तत्व की कल्पना की गयी जो बाद में भौतिक जगत में लिंग-योनि पूजा का आधार बनी|  उसे ही जनसाधारण को समझाने के लिए लिंग और योनि के इस प्रतीक चिह्न को सृष्टि के प्रारम्भ में प्रचारित किया गया |
      भाव यही है कि शिव अव्यक्त लिंग (बीज) के रूप में इस सृष्टि के पूर्व में स्थित हैं। वही अव्यक्त लिंग पुन: व्यक्त लिंग के रूप में प्रकट होता है। जिस प्रकार ब्रह्म को पूरी तरह न समझ पाने के कारण 'नेति-नेति' कहा जाता है, उसी प्रकार यह शिव व्यक्त भी है और अव्यक्त भी। वस्तुत: अज्ञानी और अशिक्षित व्यक्ति को अव्यक्त ब्रह्म (निर्गुण) की शिक्षा देना जब दुष्कर जान पड़ता है, तब व्यक्त मूर्ति की कल्पना की जाती है। शिवलिंग वही व्यक्त मूर्ति है। यह शिव का परिचय चिह्न है।
            अब हम लिंग की आधुनिक व्याख्या पर विस्तृत प्रकाश डालेंगे | जिसमें लिंग का अर्थ --आध्यात्मिक, जैविक, भौतिक व साहित्यक  एवं  भाषायी  आधार पर व्याख्यायित किया जाएगा | लिंग का मूल अर्थ किसी भी वस्तु..जीव ,जड़, जंगम ...भाव आदि का चिन्ह या पहचान होता है |
              आध्यात्मिक वैदिक आधार में --- ब्रह्म अलिंगी है| ----उससे व्यक्त ईश्वर व माया भी अलिंगी हैं |---जो ब्रह्मा , विष्णु, महेश व ...रमा, उमा, सावित्री ..के आविर्भाव के पश्चात ----विष्णु व रमा के संयोग से ....व विखंडन से असंख्य चिद्बीज  अर्थात “एकोहं बहुस्याम” के अनुसार विश्वकण बने जो समस्त सृष्टि के मूल कण थे | यह सब संकल्प सृष्टि ( या अलिंगी-अमैथुनीASEXUAL—विज्ञान ) सृष्टि थी | लिंग का कोइ अर्थ नहीं था |---à प्रथम बार लिंग-भिन्नता ...रूद्र-महेश्वर के अर्ध नारीश्वर रूप के  आविर्भाव से हुई à जो स्त्री व पुरुष के भागों में भाव-रूप से विभाजित होकर प्रत्येक जड़, जंगम व जीव के  चिद्बीज या विश्वकण में प्रविष्ट हुए | मानव-सृष्टि में ब्रह्मा ने स्वयं को पुरुष व स्त्री रूप ----मनु-शतरूपा में विभाजित किया और लिंग –अर्थात पहचान की व्यवस्था स्थापित हुई | क्योंकि शम्भु -महेश्वर लिंगीय प्रथा के जनक हैं अतः –इसे माहेश्वरी प्रजा व लिंग के चिन्ह को शिव का प्रतीक लिंग माना गया |
         जैविक-विज्ञान ( बायोलोजिकल ) आधार पर----सर्वप्रथम व्यक्त जीवन एक कोशीय बेक्टीरिया के रूप में आया जो अलिंगी ( एसेक्सुअल.. ) था ..समस्त जीवन का मूल आधार -à जो एक कोशीय प्राणी प्रोटोजोआ ( व बनस्पति—प्रोटो-फाइट्स--यूरोगायरा आदि ) बना| ये सब विखंडन (फिजन) से प्रजनन  करते थे |---à बहुकोशीय जीव  ...हाईड्रा आदि हुए जो विखंडन –संयोग ,बडिंग, स्पोरुलेशन से प्रजनन करते थे |---. वाल्वाक्स आदि पहले कन्जूगेश( युग्मन ) फिर विखंडन से असंख्य प्राणी उत्पन्न करते थे |  इस समय सेक्स –भिन्नता अर्थात लिंग –पहचान नहीं थी |---à पुनः द्विलिंगीय जीव( अर्धनारीश्वर –भाव ) ...केंचुआ, जोंक..या द्विलिंगी पुष्प वाले पौधे .. आदि के साथ लिंग-पहचान प्रारम्भ हुई | एक ही जीव में दोनों स्त्री-पुरुष लिंग होते थे |-à तत्पश्चात एकलिंगी जीव ...उन्नत प्राणी ..व वनस्पति आये जो ..स्त्री-पुरुष अलग अलग होते हैं ... मानव तक जिसमें अति उन्नत भाव—प्रेम स्नेह, संवेदना आदि उत्पन्न हुए| तथा विशिष्ट लिंग पहचान आरम्भ हुई---यथा....
                         ..स्त्री में                ..............पुरुष में          
१-बाह्य पहचान----         योनि, भग                     लिंग (शिश्न)    
२-आतंरिक लिंग...          अंडाशय, यूटरस               वृषण (टेस्टिज)
३-बाह्य-उपांग ....          स्तन                        दाड़ी, मूंछ
४-आकारिकी(मोर्फोलोजी) ...  नरम व चिकनी त्वचा           पंख, रंग , कलँगी ,सींग
५-भाव-लिंग ...             धैर्य, माधुर्य, सौम्यता,          कठोरता, प्रभुत्व ज़माना ,आक्रमण क्षमता 
                        नम्रता, मातृत्व की इच्छा
----वनस्पति में –लिंग-पहचान---- पुष्पों का  सुगंध, रंग, भडकीलापन...एकलिंगी-द्विलिंगी पुष्प ..पुरुषांग –स्टेमेन ..स्त्री अंग ...जायांग ...पराग-कण आदि|
           तत्व-भौतिकी  आधार पर लिंग... मूल कणों को विविध लिंग रूप में -----ऋणात्मक ( नारी रूप ) इलेक्ट्रोन ...धनात्मक ( पुरुष रूप ) पोजीत्रोन..  के आपस में क्रिया करने पर ही सृष्टि ...न्यूट्रोन..का निर्माण होता है| शक्ति रूप ऋणात्मक –इलेक्ट्रोन....मूल कण –प्रोटोन के चारों और चक्कर लगाता रहता है| रासायनिकी में ...लिंगानुसार ...ऋणात्मक आयन व धनात्मक आयन समस्त क्रियाओं के आधार होते हैं |
          आयुर्वेद में भी .... लिंग -- निदान ...अर्थात रोग की पहचान , डायग्नोसिस को..... (अर्थात पहचान )...  कहते हैं |
         साहित्य व भाषाई जगत में.... लिंग.... कर्ता व क्रियाओं की पहचान को कहते हैं | प्रत्येक कर्ता या क्रिया ...स्त्रीलिंग, पुल्लिंग या नपुंसक लिंग होती है.... |
        आत्म-तत्व की लिंग-व्यवस्था ....
        आत्मा न नर है न नारी । वह एक दिव्य सत्ता भर है, समयानुसार, आवश्यकतानुसार वह तरह-तरह के रंग बिरंगे परिधान पहनती बदलती रहती है । यही लिंग व्यवस्था है । संस्कृत में 'आत्मा' शब्द नपुंसक लिंग है, इसका कारण यही है-आत्मा वस्तुतः लिंगातीत है । वह न स्त्री है, और न पुरुष ।
              अब  प्रश्न उठता है कि आत्मा जब न स्त्री है,और न पुरुष तो फिर स्त्री या पुरुष के रूप में जन्म लेने का आधार क्या है?
 

         इस अन्तर का आधार जीव की स्वयं की अपने प्रति मान्यताएँ हैं । जीव चेतना भीतर से जैसी मान्यता दृड होजाती है वही अन्तःकरण में स्थिर होजाती है | । अन्तःकरण के मुख्य अंग -मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार में अहंकार  वह अस्मिता-भाव है जिसके सहारे व्यक्ति सत्ता का समष्टि सत्ता से पार्थक्य टिका है ।  इसी अहं-भाव में जो मान्यताएँ अंकित-संचित हो जाती हैं वे ही व्यक्ति की विशेषताओं का आधार बनती हैं ।आधुनिक मनोवैज्ञानिक शब्दावली में अहंकार को अचेतन की अति गहन पर्त कह सकते हैं । इन विशेषताओं में लिंग-निर्धारण भी सम्मिलित है । जीवात्मा में जैसी इच्छा उमड़ेगी जैसी मान्यताएँ जड़ जमा लेंगी, वैसा  जीवात्मा का वही लिंग बन जाता है|  
         पुराणों में इस प्रकार के अगणित उदाहरण भरे पड़े हैं जिनमें व्यक्तियों ने अपने संकल्प बल एवं साधना उपक्रम के द्वारा लिंग परिवर्तन में सफलता प्राप्त की है--यथा ..शिखंडी.. विख्यात राजा इल व इला...        
      निम्न प्राणी ऊस्टर जन्तुओं में अग्रणी हैं । वे मादा की तरह अण्ड़े देने के बाद एक मास बाद ही नर बन जाते हैं और उभयपक्षीय लिंग में रहने वाली विभिन्नताओं का आनन्द लूटते हैं ।
                ----प्रत्येक मनुष्य के भीतर उभयलिंगों का अस्तित्व विद्यमान रहता है । नारी के भीतर एक नर सत्ता भी होती हैं, जिसे ऐनिमस कहते हैं । इसी प्रकार हर नर के भीतर नारी की सूक्ष्म सत्ता विद्यमान होती है, जिसे ऐनिमेसिस  कहते हैं । प्रजनन अगों के गह्वर में विपरीत लिंग का अस्तित्व भी होता है । नारी के स्तन विकसित रहते हैं, परन्तु नर में भी उनका अस्तित्व होता है ।
           अतः यह आवरण सामयिक है  आत्मा का कोई लिंग नहीं होता । एक ही जीवात्मा अपने संस्कारों और इच्छा के अनुसार पुरुष या नारी, किसी भी रूप में वैसी ही कुशलता के जीवन जी सकता है । नर नारी के भेद, प्रवृत्तियों की प्रधानता के परिणामस्वरूप शरीर मन में हुए परिवर्तनों में भेंद हैं । उनमें से कोई भी रूप श्रेष्ठ या निष्कृष्ट नहीं, अपने व्यक्तित्व यानी गुण क्षमताओं और विशेषताओं के आधार पर ही कोई व्यक्ति उत्कृष्ट या निष्कृष्ट कहा जा सकता है,लिंग के आधार पर नहीं । 
यही शिव तत्व का मूल अर्थ है, शिव लिंग की मूल व्याख्या , शिव एवं लिंग पूजा का रहस्य |
       यहाँ प्रसंगवश यह भी कहा जा सकता है कि फिर लिंग के आधार पर नर-नारी, कन्या-पुत्र का विभेद  क्यों ?-- यह सर्वथा अर्थहीन है, कन्या-भ्रूण ह्त्या पूर्णतः अतात्विक, अतार्किकअवैज्ञानिक, अधार्मिक व  असामाजिक, अमानवीय कर्म है एवं  राष्ट्रीय अपराध  |


     


       



सोमवार, 18 जुलाई 2016

इतना तो खतावार हूँ मैं.... जीवन दृष्टि काव्य संग्रह से..... डा श्याम गुप्त....


इतना तो खतावार हूँ मैं....  जीवन दृष्टि काव्य संग्रह से.....


न कहो कवि या शब्दों का कलाकार हूँ मैं,
दिल में उठते हुए भावों का तलबगार हूँ मैं ||

काम दुनिया के हर रोज़ चला करते हैं,
साज जीवन के हर रोज़ सजा करते हैं|
शब्द रस रंग सभी उर में सजे होते हैं,
ज्ञान के रूप भी हर मन में बसे होते हैं |
भाव दुनिया के हवाओं में घुले रहते हैं,
गीत तो दिल की सदाओं में खिले रहते हैं |

उन्हीं बातों को लिखा करता, कलमकार हूँ मैं,
न कहो कवि या शब्दों का कलाकार हूँ मैं ||

प्रीति की बात ज़माने में सदा होती है,
रीति की बात पै दुनिया तो सदा रोती है |
बदले इंसान व तख्तो-ताज ज़माना सारा,
प्यार की बात भी कब बात नई होती है |
धर्म ईमान पै कुछ लोग सदा कहते हैं,
देश पै मरने वाले भी सदा रहते हैं |

उन्हीं बातों को कहा करता कथाकार हूँ मैं ,
न कहो कवि या शब्दों का कलाकार हूँ मैं ||

बात सच सच मैं जमाने को सुनाया करता,
बात शोषण की ज़माने को बताया करता |
धर्म साहित्य कला देश या नेता कोई ,
सब की बातें मैं जन जन को सुनाया करता |

लोग बिक जाते हैं, उनमें ही रंग जाते हैं,
भूलकर इंसां को सिक्कों के गीत गाते हैं|
बिक नहीं पाता, इतना तो खतावार हूँ मैं,
दिल की सुनता हूँ, इसका तो गुनहगार हूँ मैं|

न कहो कवि या शब्दों का कलाकार हूँ मैं,
दिल में उठते हुए भावों का तलबगार हूँ मैं ||

शुक्रवार, 1 जुलाई 2016

चिकित्सक दिवस परचिकित्सक, समाज व रोगी का त्रिपक्षीय विमर्श ...डा श्याम गुप्त ...


                           
  चिकित्सक दिवस परचिकित्सक, समाज व रोगी का त्रिपक्षीय विमर्श .....



                                “आँख मूँद कर डाक्टर को फोलो न करें रोगी “---
                         कुछ समय पहले चिकित्सा विशेषज्ञों ने स्वयं ही चिकित्सा –सेवा में फैले हुए बौद्धिक भ्रष्टाचार का संज्ञान लिया था, जो स्वयं चिकित्सा सेवा में भ्रष्टाचार का जनक तो होता है ही अपितु सारे समाज में भी भ्रष्टाचार की जड़ें मज़बूत करने व शाखाएं फैलाने में भी लिप्त रहता है| निश्चय ही अन्य विशेषज्ञ –संस्थाओं, संस्थानों द्वारा भी ऐसे कदम उठाना चाहिए | सामान्य जन की अपेक्षा बौद्धिक वर्ग, सम्माननीय जनों व उनकी संस्थाओं का सदा ही अधिक दायित्व होता है|
                          एम्स के एपीडेमियोलोजी के यूनिट हेड ड़ा कामेश्वर प्रसाद ने चिकित्सा सेवा व चिकित्सक वर्ग में व्याप्त विशेषज्ञता- सेवा-भ्रष्टाचार के बारे में चिंता व्यक्त करते हुए –अनावश्यक टेस्ट कराना, एक्सपायरी की दवा देना, विशेष कम्पनी के ही दवाएं लिखना व खरीदवाना, गैर आवश्यक दवाओं का प्रयोग व  अनावश्यक शल्य-क्रियाएँ आदि पर ध्यान दिलाया था |
चिकित्सा केम्प

तापक्रम जांच --स्नेहिल स्पर्श के साथ

पल्स पोलियो


                         डा प्रसाद ने यह भी कहा था कि  “आँख मूँद कर डाक्टर को फोलो न करें रोगी “--- परन्तु मेरे विचार से यह बात सर्वथा अनुचित है वह भी एक चिकित्सा–व्यक्तित्व विशेषज्ञ द्वारा | क्या वे यह समझते हैं कि रोगी या रोगी के साथी पर इतना समय होता है एवं वे चिकित्सा-तकनीक से इतने भिज्ञ हैं कि चिकित्सक की बात समझ सकें | उन्हें कुछ भी कह कर समझाया जा सकता है | सभी विशेषज्ञ–सेवाओं में ऐसा होता है जबकि चिकित्सा तो अति-विशिष्ट विषय है|  यह परामर्श एक ऐसे दुधारे अस्त्र की भांति है जो दोनों पक्षों के लिए हानिकर भी है और स्वयं चिकित्सा–संस्था के लिए दुविधा की असहज स्थिति  प्रदान करने वाली एवं समाज के लिए विषाणु समान तथा  जन आचरण के विपरीत | बिना खुली लंबी बहस, वाद-विवाद, जन-संपर्क व जन अभियान के ऐसा परामर्श एकांगी सोच ही कही जायगी | ड़ा प्रसाद एपीडेमिओलोजिस्ट थे शायद चिकित्सकीय- क्लिनीशियन नहीं अतः रोगी व चिकित्सक के अन्तःसम्बन्ध  की उन्हें कितनी जानकारी हो सकती है यह विचारणीय है ?
            जहां डाक्टर को भगवान मानने की बात की जाती थी वहाँ एसी सोच भगवान के बाद अब धरती के भगवान के प्रति भी असम्मान व अविश्वास की उत्पत्ति से अंततः रोगी का ही अहित होगा | जब तक रोगी को चिकित्सक पर पूर्ण विश्वास नहीं होगा त्वरित व उचित इलाज़ संभव नहीं | चिकित्सक अत्यधिक अविश्वास व रोक-टोक के कारण त्वरित व समुचित चिकित्सा से विरत होने लगेंगे | सब कुछ एक मशीन की भांति चलने लगेगा| रोगी-चिकित्सक सौहार्द समाप्त होने से सेवा भी मशीनी होजायगी| क्या पेड़ में रोग लगने पर पेड़ को ही काट दिया जाना चाहिए बजाय उसकी चिकित्सा के| समाज में, चिकित्सकों में व्याप्त भ्रष्ट आचरण से कठोरता से निपटा जाय ..न कि समष्टि में वैर, विद्वेष, अविश्वास व असंतोष की उत्पत्ति का परामर्श दिया जाय |
                            साथ ही हमें यह भी सोचना होगा कि इस सब की नौबत आई ही क्यों | चिकित्सकों व चिकित्सा जगत में भ्रष्टाचार आद्योपांत फैला हुआ है इसमें कोई शक नहीं है | जब तक स्वयं चिकित्सा जगत अपने अंदर व्याप्त..लालच, लोभ, धन-लोलुपता, का अंत नहीं करता ये परिस्थियां आती ही रहेंगी | उन्हें अपने आचरण, चिकित्सा-आचरण-नियम, शिक्षा प्राप्ति व समाप्ति के समय लिए गए अत्रि-शपथ या हिप्पोक्रेटिक शपथ को ध्यान में रखना होगा ताकि रोगी व समाज को आप पर, तथाकथित धरती के भगवान पर  विश्वास स्थापित हो |साथ ही बड़ी बड़ी कंपनियों द्वारा दी जाने वाली चिकित्सा-सुविधाओं की लोलुपता से उपभोक्ता वर्ग अनावश्यक ही अत्यधिक सुविधाओं जिनका रोगी की सेवा से कोई सम्बन्ध नहीं होता व फाइव-स्टार सुविधा वाले चिकित्सालयों का उपभोग का लालच नहीं छोड़ेंगे यह समस्या प्रगति ही करेगी |
                                 हमारी सारी  चिकित्सा-पद्धति ...विदेशी एवं अंग्रेज़ी में होने के कारण भी भ्रष्टाचार का एक कारण बनती है |सिर्फ २% प्रतिशत जनता ही अंग्रेज़ी जानती है और भ्रष्टाचारियों के चंगुल में फंसती है| अतः स्वदेशी चिकित्सा-पद्धतियों का प्रसार महत्वपूर्ण योगदान दे सकता है|
            वास्तव में वैज्ञानिक, सामाजिक, साहित्यिक, मनो-वैज्ञानिक, प्रशासनिक व चिकित्सा-जगत .. आदि समाज के लगभग सभी मन्चों व सरोकारों से विचार मन्थित यह विषय उतना ही प्राचीन है जितनी मानव सभ्यता। आज के आपाधापी के युग में मानव-मूल्यों की महान क्षति हुई है; भौतिकता की अन्धी दौढ से चिकित्सा -जगत भी अछूता नहीं रहा है। अतः यह विषय समाज व चिकित्सा जगत के लिये और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। आज जहां चिकित्सक वर्ग में व्यबसायीकरण व समाज़ के अति-आर्थिकीकरण के कारण तमाम भ्रष्टाचरण व कदाचरणों का दौर प्रारम्भ हुआ है वहीं समाज़ में भी मानव-मूल्यों के ह्रास के कारण, सर्वदा सम्मानित वर्गों के प्रति, ईर्ष्या, असम्मान, लापरवाही व पैसे के बल पर खरीद लेने की प्रव्रत्ति बढी है, जो समाज, मनुष्य, रोगी व चिकित्सक के मधुर सम्बंधों में विष की भांति पैठ कर गई है। विभिन्न क्षेत्रों में चिकित्सकों की लापरवाही,धन व पद लिप्सा ,चिकित्सा का अधिक व्यवसायीकरण की घटनायें यत्र-तत्र समाचार बनतीं रहती हैं। वहीं चिकित्सकों के प्रति असम्मानजनक भाव, झूठे कदाचरण आरोप,मुकदमे आदि के समाचार भी कम नहीं हैं। यहां तक कि न्यायालयों को भी लापरवाही की व्याख्या करनी पढी। अतःजहां चिकित्सक-रोगी सम्बन्धों की व्याख्या समाज़ व चिकित्सक जगत के पारस्परिक तादाम्य, प्रत्येक युग की आवश्यकता है, साथ ही निरोगी जीवन व स्वस्थ्य समाज की भी। आज आवश्यकता इस बात की है कि चिकित्सक-जगत, समाज व रोगी सम्बन्धों की पुनर्व्याख्या की जाय, इसमें तादाम्य बैठाकर इस पावन परम्परा को पुनर्जीवन दिया जाय ताकि समाज को गति के साथ-साथ द्रढता व मधुरता मिले।
       संस्कृति व समाज़ में काल के प्रभावानुसार उत्पन्न जडता, गतिहीनता व दिशाहीनता को मिटाने के लिये समय-समय पर इतिहास के व काल-प्रमाणित महान विचारों, संरक्षित कलापों को वर्तमान से तादाम्य की आवश्यकता होती है।  
          विश्व के प्राचीनतम व सार्व-कालीन श्रेष्ठ साहित्य, वैदिक-साहित्य में रोगी -चिकित्सक सम्बन्धों का विशद वर्णन है, जिसका पुनःरीक्षण करके हम समाज़ को नई गति प्र्दान कर सकते हैं।
चिकित्सक की परिभाषा
        ऋग्वेद -(१०/५७/६) मे क्थन है--"यस्तैषधीः सममत राजानाःसमिता विव ।
                                                           विप्र स उच्यते भि्षगुक्षोहामीव चातनः ॥"--जिसके समीप व चारों ओर औषधिया ऐसे रहतीं हैं जैसे राजा के समीप जनता,  विद्वान लोग उसे भैषजज्ञ या चिकित्सक कहते हैं। वही रोगी व रोग का उचित निदान कर सकता है।.... अर्थात एक चिकित्सक को चिकित्सा की प्रत्येक फ़ेकल्टी (विषय व क्षेत्र),  क्रिया-कलापों, व्यवहार व मानवीय सरोकारों में निष्णात होना चाहिये।
रोगी व समाज का चिकित्सकों के प्रति कर्तव्य--देव वैद्य अश्विनी कुमारों को ऋग्वेद में "धीजवना नासत्या" कहागया है... अर्थात जो अपनी स्वयम की बुद्धि एवं स्थापित सत्य की भांति सब को देखते एवं सबके प्रति व्यवहार करते हैं|  अतः रोगी व समाज़ को चिकित्सक के परामर्श व कथन को अपनी स्वयम की बुद्धि व अन्तिम सत्य की तरह विश्वसनीय स्वीकार करना चाहिये। ऋग्वेद के श्लोक १०/९७/४ के अनुसार
                        -"औषधीरिति मातरस्तद्वो देवी रूप ब्रुवे ।
                           सनेयाश्वं गां वास आत्मानाम तव पूरुष ॥"------औषधियां माता की भांति  अप्रतिम शक्ति से ओत-प्रोत होतीं हैं....हे चिकित्सक! हम आपको, गाय, घोडे, वस्त्र, ग्रह एवम स्वयं अपने आप को भी प्रदान करते हैं।.....अर्थात चिकित्सकीय सेवा का ऋण किसी भी मूल्य से नहीं चुकाया जा सकता। समाज व व्यक्ति को उसका सदैव आभारी रहना चाहिये।
चिकित्सकों के कर्तव्य व दायित्व---
१. रोगी चिकित्सा व आपात चिकित्सा- ऋचा ८/२२/६५१२-ऋग्वेद के अनुसार—
              "साभिर्नो मक्षू तूयमश्विना गतं भिषज्यतं यदातुरं ।"-- अर्थात हे अश्विनी कुमारो! (चिकित्सको) आप समाज़ की सुरक्षा, देख-रेख, पूर्ति, वितरण में जितने निष्णात हैं, उसी कुशलता व तीव्र गति से रोगी व पीढित व्यक्ति को आपातस्थिति में सहायता करें। अर्थात चिकित्सा व अन्य विभागीय कार्यों के साथ-साथ आपातस्थिति रोगी की सहायता सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।

२. जन कल्याण- ऋचा ८/२२/६५०६ के अनुसार—
      " युवो रथस्य परि चक्रमीयत इमान्य द्वामिष्ण्यति ।
       अस्मा अच्छा सुभतिर्वा शुभस्पती आधेनुरिव धावति ॥"--हे अश्वनी कुमारो!  आपके दिव्य रथ ( स्वास्थ्य-सेवा चक्र) का एक पहिया आपके पास है एक संसार में। आपकी बुद्धि गाय की तरह है।  --चिकित्सक की बुद्धि व मन्तव्य गाय की भांति जन कल्याण्कारी होना चाहिये।उसे समाज व जन-जन की समस्याओं से भली-भांति अवगत रहना चाहिये एवम सदैव सेवा व समादान हेतु तत्पर।
३. रोगी के आवास पर परामर्शऋग्वेद-८/५/६१००-कहता है-
चिकित्सकों का सामाजिक दायित्व---पल्स पोलियो अभियान
       "महिष्ठां वाजसात्मेष्यंता शुभस्पती गन्तारा दाषुषो ग्रहम ॥"--गणमान्य, शुभ, सुविज्ञ, योग्य एवम रोगी की आवश्यकतानुसार आप ( अश्वनी कुमार-चिकित्सक)  स्वयं ही उनके यहां पहुंचकर उनका कल्याण करते हैं।
४.-स्वयं सहायता( सेल्फ़ विजिट)ऋचा ८/१५/६११७-में कहा है—
समाज का चिकित्सा प्रति दायित्व ---अस्पताल में खाद्य पदार्थ वितरण
      "कदां वां तोग्रयो विधित्समुद्रो जहितो नरा। यद्वा रथो विभिथ्तात ॥"--हे अश्विनी कुमारो! आपने समुद्र (रोग -शोक के ) में डूबते हुए भुज्यु ( एक राजा) को स्वयं ही जाकर बचाया था, उसने आपको सहायता के लिये भी नहीं पुकारा था। अर्थात चिकित्सक को संकटग्रस्त, रोगग्रस्त स्थित ज्ञात होने पर स्वयं ही, विना बुलाये भी पीडित की सहायता करनी चाहिये।
         यदि आज का  चिकित्सा जगत, रोगी, तीमारदार, समाज, शासन  सभी इन तथ्यों को आत्मसात करें, व्यवहार में लायें, तो आज के दुष्कर युग में भी आपसी मधुरता व युक्त-युक्त रोगी-चिकित्सक सम्बन्धों को जिया जासकता है, यह कोई कठिन कार्य नहीं,  आवश्यकता है सभी को आत्म-मंथन करके तादाम्य स्थापित करने की।




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