कुण्डली छंद ( डा श्याम गुप्त )
कुण्डली छः पंक्तियाँ व
बारह चरण का विषम-मात्रिक मिश्रित छंद है इसे कुण्डलिया छंद, कुण्डलिनी,
कुंडलिका, कुंडलि भी कहा जाता है | यह एक दोहा व एक रोला से मिलकर बनाया
हुआ छंद है | पहले दो पंक्तियाँ दोहा होता है व अगले चार पंक्तियाँ रोला होता
है| दोहा मात्रा १३-११ ,१३-११ का दो पादों व चार चरण वाला छंद है एवं रोला में उसके
उलटा ११-१३, मात्रा के चार पाद व आठ चरण
वाला छंद है | दोहे का चौथा चरण रोला के प्रथम पंक्ति का
प्रथम चरण के रूप में दोहराया जाता है। ये
दोनों छंद मानों कुण्डली रुप में एक दूसरे से गुँथे रहते हैं इसलिए इसे कुण्डली छंद कहते है । प्रायः
जिस शब्द या शब्द समूह से इस छंद का प्रारम्भ होता है
उसी से इसका अन्त भी
होता है (यद्यपि यह अत्यावश्यक नहीं है कुछ विद्वान् अंतिम पंक्ति का तुकांत
पंचम पंक्ति से सम तुकांत भी सही मानते हैं ) इसलिए इसे कुछ विद्वान् सर्प की
कुण्डली में मुख व पूंछ एक ही स्थान पर होने से कुण्डली नामकरण करते हैं| आजकल
दोहे के अंतिम चरण को रोला के प्रथम चरण के रूप में न दोहराने का भी विकल्प रखा
जाता है|
उदाहरण -
साईं बैर न कीजिए गुरु पण्डित कवि यार ।
बेटा बनिता पौरिया यज्ञ करावन हार ।
यज्ञ करावन हार राज मंत्री जो होई ।
विप्र पड़ोसी वैद्य आपुको तपै रसोई ।
कह गिरिधर कविराय जुगन सों यह चलि आई ।
इन तेरह को तरह दिये बनि आवै साईं ।। ---गिरिधर ..
साईं बैर न कीजिए गुरु पण्डित कवि यार ।
बेटा बनिता पौरिया यज्ञ करावन हार ।
यज्ञ करावन हार राज मंत्री जो होई ।
विप्र पड़ोसी वैद्य आपुको तपै रसोई ।
कह गिरिधर कविराय जुगन सों यह चलि आई ।
इन तेरह को तरह दिये बनि आवै साईं ।। ---गिरिधर ..
कालिंदी का तीर औ, वंशी धुन की टेर,
गोप-गोपिका मंडली, नगर
लगाती फेर |
नगर लगाती फेर, सभी को यह समझाती,
ग्राम-नगर की सभी
गन्दगी जल में जाती |
विष
सम जल है हुआ, प्रदूषित यहाँ नदी का,
बना सहसफण नाग
कालिया कालिंदी का ||
---- डा श्याम गुप्त
आदि व अंत के शब्द एक से ही होना
अनिवार्य नहीं है अंतिम पंक्ति के अन्त्यानुप्रास को पंचम पंक्ति के
अन्त्यानुप्रास के अनुरूप भी रखा जता है ...कुछ उदाहरण देखें...
मम्मी जी ने बनाए हलुआ-पूड़ी आज ,
आ धमके घर अचानक, पंडित श्री गजराज .
पंडित श्री गजराज, सजाई भोजन थाली ,
तीन मिनट में तीन, थालियाँ कर दीं खाली .
मारी एक डकार भयंकर सुर था ऐसा ,
हार्न दे रहा हो मोटर का ठेला जैसा . ---- काका हाथरसी
गति-यति, लय-रस, भाव हैं, कविता का श्रृगार.
अलंकार औ' बिम्ब से आता नवल निखार.
आता नवल निखार, सराहें विद्वद्जन मिल.
श्रोता को आनंद मिले, पाठक जाएँ खिल.
कथ्य सपाट न कह, कविता में तभी रहे रति.
'सलिल' काव्य वह श्रेष्ठ, रहे जिससे निर्मल मति. ---- आचार्य संजीव सलिल
अलंकार औ' बिम्ब से आता नवल निखार.
आता नवल निखार, सराहें विद्वद्जन मिल.
श्रोता को आनंद मिले, पाठक जाएँ खिल.
कथ्य सपाट न कह, कविता में तभी रहे रति.
'सलिल' काव्य वह श्रेष्ठ, रहे जिससे निर्मल मति. ---- आचार्य संजीव सलिल
इसी प्रकार दोहे के
अंतिम चरण को रोला के प्रथम चरण के रूप में न दोहराने का भी विकल्प का उदाहरण
देखें—
मर्यादा पालन करे, नीति विरुद्ध न होय,
सब विषयों पर कर
सके, तर्क-युक्ति जो कोय |
थोड़े में ही समझले, बात सार से युक्त,
विनयी भाव सदा रहे,
अहंकार से मुक्त |
सबको आदर देय, होय
मंत्री या प्यादा,
बुद्धिमान है श्याम,
करे पालन मर्यादा ||
आकांक्षा अति उच्च हो, हो दरिद्र मतिहीन,
लावै मन में गर्व
अति, हो विद्या से हीन |
स्वयं करे नहिं
कर्म, करे सो उसे डरावे,
आधी हाथ की छोड़,
दूरि पूरी को धावै |
बिन पूछे दे
राय, जाय जो बिना बुलाये,
जानै बिन पतियाय,
श्याम’ सो मूर्ख कहाए || --- डा श्याम गुप्त
प्रस्तुति --- डा श्याम गुप्त , सुश्यानिदी,
के-३४८,
आशियाना लखनऊ -२२६०१२....मो.
९४१५१५६४६४..
बहुत उम्दा,कुंडलियों के विषय में अच्छी जानकारी,,,
जवाब देंहटाएंRECENT POST : अभी भी आशा है,
कुण्डलियों के विषय में इतनी अच्छी जानकारी देने के लिए डॉ. श्याम गुप्त जी आपका आभार!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शास्त्रीजी एवं धीरेन्द्र जी .....
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