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शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

कुछ और दोहे....


कमल मलिन कब है सुना, निर्मल बसता ताल
पंक स्वयम् ही बोलता, यह गुदड़ी का लाल

बूँद समुच्चय जब झरे,झर-झर झरता प्यार
बूँद समुच्चय जो फटे, मचता हाहाकार

श्वेत साँवरे घन घिरे,लेकिन अपना कौन
गरजे वह बरसे नहीं, जो बरसे वह मौन

पकड़-जकड़ रखते मृदा,जड़ से सारे झाड़
ज्यों-ज्यों वन कटते गये, निर्बलहुये पहाड़

आम खड़ा मन मार कर, दूर पहुँच से दाम
लँगड़ा खीसा हो गया,दौड़े लँगड़ा आम

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)

(आदरणीया ऋता शेखर मधु जी के दोहों पर प्रतिक्रियात्मक दोहे)

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