निर्मल मन मैला बदन , नन्हे नन्हे हाथ।
रोटी का कैसे जतन, समझे ना ये बात॥
तरसे इक- इक कौर को ,भूखे कई हजार।
गोदामों में सड़ रहे, गेहूं के अम्बार॥
राहत को तकते नयन , पूछ रहे है बात।
प्रजा तंत्र के नाम पर,क्यूँ करते हो घात ॥
सीना क्यूँ फटता नहीं, भूखे को बिसराय।
हलधर का अपमान कर,गेहूँ दियो सडाय॥
शासन की सौगात हो, या किस्मत की हार।
निर्धन को तो झेलनी, है जीवन की मार॥
ना कोई चूल्हा जले, ना लकड़ी ना तेल।
मंत्रियों तक दौड रही ,सिलेंडरों की रेल॥
दिन हैं भ्रष्टाचार के,सत्य रहा है काँप।
मँहगाई की बीन पे , नाच रहे हैं साँप॥
बिगड़ी सूरत देश की ,किस के जल से धोय।
गंगा भी मैली करी,साधन बचा न कोय॥
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लाज़वाब ..बहुत सुन्दर ...
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