कंधों पर तू ढो रहा ,क्यों कागज
का भार|
आरक्षण तुझको मिले,पढ़ना है बेकार||-------(व्यंग्य)
मन कागज पर जब चले ,होकर कलम अधीर|
शब्द-शब्द मिलते गले ,बह जाती है पीर||
भावों-शब्दों में चले,जब आपस में द्वंद|
मन के कागज पर तभी,रचता कोई छंद||
टूटे रिश्ते जोड़ दे ,इक नन्हीं सी जान|
कोप सुनामी मोड़ दे ,बालक की मुस्कान||
तन की पाती सब पढ़ें ,मन की पढ़ें न कोय|
जो मन की पाती पढ़ें ,तो दुख काहे होय||
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बहुत बढ़िया और सन्देशपरक दोहे!
जवाब देंहटाएंआभार!
सादर आभार आदरणीय
हटाएंशुभ संध्या दीदी
जवाब देंहटाएंसमझाती हुई सुन्दर रचना
सादर
सादर आभार यशोदा जी
हटाएंbahut sundar dohe hai adarneeya rajesh kumaari ji*******
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज बृहस्पतिवार (04-07-2013) को सोचने की फुर्सत किसे है ? ( चर्चा - 1296 ) में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
हार्दिक आभार आदरणीय शास्त्री जी
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