यह ब्लॉग खोजें

रविवार, 31 दिसंबर 2017

बणी-ठणी जी--- कवयित्री रसिक बिहारी व किशनगढ़ चित्रकला---डा श्याम गुप्त ...



                              

---- बणी-ठणी जी--- कवयित्री रसिक बिहारी व किशनगढ़ चित्रकला ------
=================== ===========
Image may contain: 1 person
बनी ठनी जी
“बणी-ठणी” राजस्थान के किशनगढ़ की विश्व प्रसिद्ध चित्रशैली है| पर बहुत कम लोग जानते होंगे कि इसका नाम “बणी-ठणी” क्यों और कैसे पड़ा ?
\
राजस्थान के इतिहास में शाही परिवारों की दासियों ने भी अपने कार्यों से प्रसिद्धि पायी है| “बणी-ठणी” भी राजस्थान के किशनगढ़ रियासत के तत्कालीन राजा सावंत सिंह की दासी व प्रेमिका थी| राजा स्वयं बड़े अच्छे कवि व चित्रकार थे| उनके शासन काल में बहुत से कलाकारों को आश्रय दिया गया|
---
-----नागरी दास व रसिक बिहारी -----
------ “बणी-ठणी” रूप सौंदर्य में अदभुत होने के साथ उच्च कोटि की कवयित्री थी| राजा सावंतसिंह तथा दासी दोनों कृष्ण भक्त थे| उनके प्रेम व कला प्रियता के कारण प्रजा ने भी उनके भीतर कृष्ण-राधा की छवि देखी | दोनों को कई अलंकरण प्रदान किये गए | राजा को नागरीदास चितेरे, आदि तो दासी को कलावंती, लवलीज, नागर, उत्सव प्रिया आदि संबोधन मिले| वह स्वयं रसिकबिहारी के नाम से कविता लिखती थी|
-----बनी ठनी --“बणी-ठणी जी ----
------ राजा सावंतसिंह ने इस सौंदर्य और रूप की प्रतिमूर्ति दासी को रानियों की पोशाक व आभूषण पहनाकर एकांत में उसका एक चित्र बनाया| और इस चित्र को नाम दिया “बणी-ठणी” | राजस्थानी भाषा के शब्द “बणी-ठणी” का मतलब होता है "सजी-संवरी","सजी-धजी" | राजा ने अपना बनाया यह चित्र राज्य के राज चित्रकार को दिखाया और उसे अपने दरबार में प्रदर्शित कर सार्वजानिक किया|
----- इस चित्र की सर्वत्र बहुत प्रसंशा हुई और उसके बाद दासी का नाम “बणी-ठणी” पड़ गया| सब उसे “बणी-ठणी” के नाम से ही संबोधित करने लगे|
------ राज्य के चित्रकारों को भी अपनी चित्रकला के हर विषय में राजा की प्रिय दासी “बणी-ठणी” ही आदर्श मोडल नजर आने लगी और “बणी-ठणी” के ढेरों चित्र बनाये गए जो बहुत प्रसिद्ध हुए और इस तरह किशनगढ़ की चित्रशैली को “बणी-ठणी” के नाम से ही जाना जाने लगा|
Image may contain: 1 person
राजा नागरीदास व बनी ठनी चित्रकला
------किशनगढ़ के चित्रकारों के लिए यह प्रेम वरदान सिद्ध हुआ है क्योंकि यह विश्व प्रसिद्ध चित्रशैली भी उसी प्रेम की उपज है और इस चित्रशैली की देश-विदेश में अच्छी मांग है|
\
“बणी-ठणी” सिर्फ रूप और सौंदर्य की प्रतिमा ही नहीं थी वह एक अच्छी गायिका व उत्तम कोटि की कवयित्री और भक्त-हृदया नारी थी | बनीठनी की कविता भी अति मधुर, हृदय स्पर्शी और कृष्ण-भक्ति अनुराग के सरोवर है|
-----वह अपना काव्य नाम “रसिक बिहारी” रखती थी| रसिक बिहारी का ब्रज, पंजाबी और राजस्थानी भाषाओँ पर सामान अधिकार था|
-----रसीली आँखों के वर्णन का एक पद उदाहरणार्थ प्रस्तुत है-
रतनारी हो थारी आँखड़ियाँ |
प्रेम छकी रस बस अलसारणी, जाणी कमाल पांखड़ियाँ |
सुन्दर रूप लुभाई गति मति हो गई ज्यूँ मधु मांखड़ियाँ|
रसिक बिहारी वारी प्यारी कौन बसि निसि कांखड़ियाँ||

---------उनके द्वारा कृष्ण राधा लीला वैविध्य की मार्मिक अभिव्यक्ति पदों में प्रस्फुटित हुई है| एक सांझी का पद इस प्रकार पाठ्य है-
खेले सांझी साँझ प्यारी|
गोप कुंवरि साथणी लियां सांचे चाव सों चतुर सिंगारी||
फूल भरी फिरें फूल लेण ज्यौ भूल री फुलवारी|
रहया ठग्या लखि रूप लालची प्रियतम रसिक बिहारी||

---------प्रिय की अनुपस्थिति प्रिया के लिए कैसी कितनी पीड़ाप्रद और बैचेनी उत्पन्न करने वाली होती है, यह तथ्य एक पंजाबी भाषा के पद में प्रकट है-
बहि सौंहना मोहन यार फूल है गुलाब दा|
रंग रंगीला अरु चटकीला गुल होय न कोई जबाब दा|
उस बिन भंवरे ज्यों भव दाहें यह दिल मुज बेताब|
कोई मिलावै रसिक बिहारी नू है यह काम सबाब दा || 



चित्र-१-कविवर नागरी दास ( राजा सावंत सिंह ) एवं बनी ठनी चित्रकला
चित्र २ -बणी-ठणी जी रसिक बिहारी ...
चित्र ३ व अन्य चित्रकला राधा कृष्ण व बनी ठनी जी

मंगलवार, 12 दिसंबर 2017

गुरुवासरीय गोष्ठी दिनांक ०७ दिसंबर २०१७ गुरूवार---डा श्याम गुप्त






                                



           
 
                           विशिष्ट गुरुवासरीय गोष्ठी दिनांक ०७ दिसंबर २०१७ गुरूवार  
       प्रत्येक माह के प्रथम गुरूवार को होने वाली विशिष्ट गुरुवासरीय गोष्ठी दिनांक ०७ दिसंबर २०१७ गुरूवार को डा श्यामगुप्त के आवास सुश्यानिदी , के-३४८, आशियाना, लखनऊ पर संपन्न हुई | गोष्ठी में साहित्यभूषण डा रंगनाथ मिश्र सत्य, नवसृजन संस्था के अध्यक्ष डा योगेश गुप्त, कविवर श्री बिनोद कुमार सिन्हा,अनिल किशोर शुक्ल निडर, श्री रामदेवलाल विभोर,  प्रदीप कुशवाहा, महेश अस्थाना, प्रदीप गुप्ता, श्रीमती पुष्पा गुप्ता, विजयलक्ष्मी महक , मंजू सिंह एवं श्रीमती सुषमागुप्ता व डा श्यामगुप्त ने भाग लिया |
       वाणी वंदना डा श्याम गुप्त, सुषमागुप्ता व श्रीमती विजय लक्ष्मी महक ने की | गोष्ठी का प्रारंभ करते हुए श्री अनिल किशोर शुक्ल निडर ने तम्बाकू की हानियों पर प्रकाश डालते हुए दोहे प्रस्तुत किये---
तम्बाकू से फेफड़े होने लगते ग्रस्त |

उल्टी होती जब कभी गिरने लगता रक्त |
       डा.योगेशगुप्त ने नदी रेत व सागर के अंतर्संबंध की दार्शनिक व्याख्या करते हुए अतुकांत रचना प्रस्तुत की ---बाँध बांधने से भी क्या होगा

          नदी को तो खोना ही है ;

          रेत के विस्तार में

          या सागर के प्यार में |
       श्रीमती पुष्प गुप्ता ने गृहस्थ जीवन को अग्निपथ बताते  हुए कहा—
गृहस्थ जीवन अग्निपथ, गृहणी की कर्मभूमि,

तपोभूमि, निष्ठा परिपक्व, सहज मन, अच्युत थिर हो | 
      श्रीमती मंजू सिंह ने फूलों की विशिष्टता पर गीत सुनाते हुए कहा-
फूल कभी रोते नहीं ,

फूलों को तो बस हंसना आता है |
       श्रीमती विजय लक्ष्मी महक ने बेटी व दुल्हन समन्वित गीत प्रस्तुत किया—
बेटी वाला क्या देगा, क्या लोगो तुम,

बेटी से बढकर कोइ सौगात नहीं होती
      कविवर  श्री महेश अस्थाना प्रकाश ने दिल से दिल को राहत पर गुनगुनाया---
आओ हम गुनगुनालें, दिल से दिल मिला हम लें |

ना शिकवा हो ना शिकायत, दिल से दिल को राहत मिले |
    कवि प्रदीप गुप्ता ने भी फूलों की नाजुकता यूं बयाँ की---
फूल आहिस्ता फैंको, फूल बड़े नाज़ुक होते हैं,

होजाते हैं खुद तो घायल, पर औरों को सुख देते हैं|
    प्रदीप कुशवाहा ने जीवन के बारे में अपना अभिमत प्रस्तुत करते हुए कहा –
जीवन स्वयं एक प्रश्न है,सबको हल करना है |

हंसकर या रोकर, प्रदीप जीवन जीना है |
      
      बिनोद कुमार सिन्हा ने पुराने ज़माने को याद करते हुए गुनगुनाया—
वे भी क्या ज़माने थे  हर क्षण खुश के तराने थे |

मेरी हसरत भरी निगाहें, बेसब्र रही थी दीदार के |
    श्री रामदेव लाल विभोर ने अँधेरे और जुगनूं की बात की –
चमकना गर न आता हो, तो पूछो उस अँधेरे से,

उड़ा करता जहां जुगनूं, है खुद की रोशनी लेकर |
     सुषमागुप्ता जी ने मुरलीधर कान्हा को करुणा का सागर बताते हुए गीत प्रस्तुत किया—
हे करुणा के सागर श्याम,

मुरलीधर कान्हा घनश्याम |
       डा श्यामगुप्त ने आजकल चिकित्सकों व अस्पतालों में हो रही लापरवाही पर जन सामान्य को भी दोषी बताते हुए एक नवीन तथ्य की प्रस्तुति की ---
पैसा आज बहुत पब्लिक पर, सभी चाहते, ‘वहीं’ दिखाएँ |

चाहे जुकाम या कुछ खांसी, विशेषज्ञ ही हमको देखे |.......
    तथा उन्होंने नारी की त्रासदी को इंगित करते हुए एक प्रश्न उठाया---–
औरत आज भी डर डर कर जिया करती है ,

जाने किस बात की कीमत अदा करती है |
        अगीत विधा के प्रवर्तक एवं अखिल भारतीय अगीत परिषद् के संस्थापक अध्यक्ष साहित्यभूषण साहित्यमूर्ति डा रंगनाथ मिश्र सत्य ने गोष्ठी की समीक्षात्मक सराहना करते हुए अपना सुप्रसिद्ध गीत सुनाया....
जगमगाता हुआ दीप मैं बन सकूं

स्नेह इतना ह्रदय में भरो आज तुम |
      द्वितीय सत्र में कविगण पुष्पा गुप्ता, विजय लक्ष्मी महक, मंजू सिंह, प्रदीप कुशवाहा, महेश अष्ठाना, श्री रामदेव लाल विभोर एवं सुषमा गुप्ता को सम्मान पात्र देकर को सम्मानित भी किया गया |
      संक्षिप्त जलपान एवं डा श्याम गुप्त द्वारा धन्यवाद ज्ञापन के पश्चात् गोष्ठी समाप्त हुई |

गुरुवार, 9 नवंबर 2017

दो कह मुकरियाँ ---डा श्याम गुप्त....



                    

दो कह मुकरियाँ ---

१.
बात गज़ब की वह बतलाये
सोते जगते दिल बहलाए
उसके रँग ढंग की सखि कायल,
री सखि, साजन !, ना मोबायल |

२.
उंगली पर वह मेरी नाचे,
जग भर की वह बातें बांचे
रूप रंग से सब जग घायल
री सखि साजन ? सखि मोबायल |

शुक्रवार, 3 नवंबर 2017

डा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’—हिन्दी साहित्य की विकास यात्रा के अग्रगण्य पथदीप--- एक पुनरावलोकन ---डा श्याम गुप्त...



                    
 डा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’—हिन्दी साहित्य की विकास यात्रा के अग्रगण्य पथदीप--- एक पुनरावलोकन

 No automatic alt text available.






























-.















 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
                            काँधे पर झोला डाले, आँखों पर काला चश्मा, मुखमंडल पर विद्वतापूर्ण ओजस्वी एवं तेजपूर्ण आभा के साथ सरल भोलापन लिए हुए, सबकी सुनते हुए, सबसे सहज व कपटहीन भाव से मिलते हुए, अगणित युवा, प्रौढ़ व वरिष्ठ कवि, कवयित्रियों, साहित्यकारों, विद्वानों द्वारा गुरूजी, सत्यजी, डा सत्य संबोधन के साथ अभिवादन को सहेज़ते हुए काव्य व मंच संचालन में व्यस्त-अभ्यस्त व्यक्तित्व, जो काव्य गोष्ठियों व मंचों से प्रत्येक उपस्थित कवि को उनके नाम से पहचान कर बुलाते हैं, कविता पाठ किये बिना जाने नहीं देते, हर युवा कवि के प्रेरणास्रोत, वरिष्ठ कवियों के सहयोगी साथी सहायक प्रेरक कविवर डा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’ लखनऊ के साहित्यिक क्षेत्र में एवं हिन्दी साहित्याकाश में एक अप्रतिम व निराले व्यक्तित्व हैं|
                              स्वतन्त्रता पश्चात एवं परवर्ती निराला युग में जब कविता का क्षेत्र असमंजस, भ्रम, कुंठा, हताशा, वर्ग संघर्ष, पौर्वात्य व पाश्चात्य समीकरणों के मिश्रत्व के विभ्रम से गुजर रहा था तथा अधिकाँश साहित्यकार समाज को दिशा देने की अपेक्षा समाज से दिशा ले रहे थे तथा उसी प्रकार का साहित्य-सृजन कर रहे थे जो तात्कालिक लाभ व लोभ की पूर्ति तो करता था परन्तु दीर्घकालीन श्रेष्ठता संवर्धक एवं अत्यावश्यक आचरण संवर्धन की दिशा-प्रदायक नहीं था |
                ऐसे समय में हिन्दी साहित्याकाश में एक नये युगप्रवर्तक का उद्भव हुआ जो अतुकांत कविता की एक नवीन विधा ‘अगीत’ के सूत्रपात के साथ ही एक नए रूप में हिन्दी भाषा एवं साहित्य के अग्रगण्य बनकर उभरे | वे डा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’ के नाम से हिन्दी जगत में जाने जाते हैं|
                   इस संक्रांति-काल में सभी प्रकार की कविता व साहित्य की सभी विधाओं में समर्थ व सक्षम होते हुए भी डा रंगनाथ मिश्र ने काव्य को गति व दिशा प्रदान करने हेतु सरलता, संक्षिप्तता की अधुना आवश्यकता के साथ सर्वग्राहिता, जन-जन सम्प्रेषणीयता सरल भाषा के साथ काव्य में सामजिक सरोकारों की भारतीय भाव-भूमि प्रदायक काव्य हेतु “अगीत कविता “ का उद्घोष किया | इन शब्दों के साथ ....
“ मैं भटकते हुओं का सहारा बनूँ,
डूबते साथियों का किनारा बनूँ |
दे सकूं मैं प्रगति साधना से भरी,
जागरण-ज्योति का ही इशारा बनूँ |” 

     तथा “
हिन्दी हिन्दवासियों की
चेतना का मूल मन्त्र, 

सब मिल देवनागरी
 को अपनाइए | “
                          काव्य हो या संस्था, समाज, मानवता सभी को प्रगतिवादी दृष्टिकोणयुत एवं अग्रगामी होना चाहिए| गतिमयता ही जीवन है | परिवर्तन प्रकृति का नियम है, प्रवाह है, निरंतरता है | अगीत कविता उसी प्रवाह, निरंतरता, नवीनता की ललक लिए हुए अवतरित हुई डा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’ नाम के उत्साही व समर्थ कवि साहित्यकार के मनो-गगनांगन से | आज एक वटवृक्ष की भांति विविध छंदों, स्वरूपों,काव्यों, महाकाव्यों,आलेखों, शोधों, शोधग्रंथों तथा अगणित कवियों, साहित्यकारों, साहित्याचार्यों रूपी शाखाओं के साथ स्थापित है, हिन्दी साहित्य के आकाश में |
                     “चलना ही नियति हमारी है ...” के मंत्रदाता डा सत्यजी यहीं नहीं रुके अपितु हिन्दी साहित्य की प्रत्येक विधा को गति प्रदान करने के अंदाज़ में आपने १९७५ ई. में ‘संतुलित कहानी’ एवं १९९५ ई. में ‘संघात्मक समीक्षा पद्धति ‘ को जन्म दिया | इसके साथ ही ‘अगीतायन’ पत्रिका का सम्पादन , अपने स्वगृह का नाम ‘अगीतायन’ रखना एवं माह के प्रत्येक अंतिम रविवार को अपने आवास पर काव्य-गोष्ठी आयोजित करना उन्होंने अपनी नियति ही बनाली |
                १९६६ से आजतक इस गोष्ठी की क्रमिकता भंग नहीं हुई, किसी भी स्थिति में | इस गोष्ठी में कोइ भी सम्मिलित होसकता है बिना किसी आमंत्रण के | उनकी इस सर्व-समर्थता एवं सबको साथ लेकर चलने की क्षमता के कारण ही आज लखनऊ, प्रदेश व देश में अगीत साहित्य परिषद् के अगणित सदस्य, कवि, शिष्य-शिष्याओं का समूह अगीत साहित्य के साथ-साथ साहित्य की प्रत्येक विधा गदय-पद्य, गीत-अगीत में रचनारत हैं| उनके लिए कोइ भी विधा अछूत नहीं है | वे अगीत के संस्थापक डा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’ की ही भांति गीत, छंद, कहानी, उपन्यास, समीक्षा ग़ज़ल, हाइकू आदि सभी में पारंगत हैं|
                         ऐसे युगप्रवर्तक, हिन्दी साहित्य के प्रकाश-स्तम्भ डा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’ जो अपने साहित्यिक कार्यकाल में अब तक लगभग ५ हज़ार काव्य-गोष्ठियों, मंचों, सम्मेलनों से सम्बंधित रहे हैं | उनके व उनकी संस्था अखिल भारतीय अगीत परिषद् के तत्वावधान में, संयोजन में जाने कितनी संस्थाएं समारोह आयोजन कराने को तत्पर रहती हैं | यह एक मानक है रिकार्ड है | आज भी ७४ वर्ष की आयु में वे युवा जोश के साथ साहित्य को नयी-नयी ऊचाइयों पर लेजाने हेतु क्रियाशील हैं| वे निश्चय ही हिन्दी साहित्य की विकास यात्रा के अग्रगण्य साहित्यकार हैं| आशा है वे एक लम्बे समय तक हिन्दी साहित्य के पथदीप बने रहेंगे |

                                                                                             ---डा श्याम गुप्त
सुश्यानिदी, के-३४८ ,                                                    , एम् बी बी एस, एम् एस (सर्जन)
आशियाना लखनऊ २२६०१२.                                        . साहित्याचार्य, साहित्यविभूषण
मो.-९४१५१५६४६४ .

शुक्रवार, 27 अक्तूबर 2017

अगीत विधा का अमूल्य दस्तावेज़ : 'अगीत साहित्य दर्पण '----समीक्षा -डा उषा सिन्हा ....डा श्याम गुप्त



                                         पुस्तक समीक्षा -  
         अगीत विधा का अमूल्य दस्तावेज़ : 'अगीत साहित्य दर्पण '
\
नाम पुस्तक---- अगीत साहित्य दर्पण ..... रचयिता -- डा श्याम गुप्त ....प्रकाशक-- अखिल भारतीय अगीत परिषद् , लखनऊ एवं सुषमा प्रकाशन , लखनऊ ...मूल्य --१५०/- रु.

समीक्षक --प्रोफ. उषा सिन्हा, पूर्व अध्यक्ष , भाषा विज्ञान विभाग, लखनऊ विश्व विद्यालय , लखनऊ ...

\Image may contain: 1 person
---------------मुझे डा श्याम गुप्त द्वारा प्रणीत 'अगीत साहित्य दर्पण' के अवगाहन का सुयोग प्राप्त हुआ | शल्य चिकित्सक डा गुप्त साहित्य के प्रति समर्पित अगीत विधा के सशक्त रचनाकार हैं| उन्होंने अत्यंत परिश्रमपूर्वक प्रचुर सामग्री का संकलन करके वर्णानात्मक एवं विश्लेषणात्मक पद्दतियों के आधारपर अगीत विधा का सांगोपांग अध्ययन प्रस्तुत करके नि:संदेह श्लाघनीय कार्य किया है | हिन्दी साहित्य की स्थापित एवं समृद्ध अगीत विधा का समग्र अध्ययन छः सुगठित अद्यायों में विभाजित है |
\
---------------अगीत विधा के प्रणेता, दिशावाहक, ध्वजावाहक डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' द्वारा लिखित प्रस्तावना में अगीत विधा का सम्यग् परिचय स्तुत्य है | मंगलाचरण से कृति का शुभारम्भ हुआ है जिसमें रचनाकार ने वाग्देवी माँ सरस्वती से अगीत को नवीन भावों के साथ सुर लय ताल से परिपूर्ण करने और उसके प्रचार-प्रसार हेतु आशीर्वाद प्रदान करने की याचना की है |
\
------प्रथम अध्याय 'एतिहासिक पृष्ठभूमि व परिदृश्य ' ------में डा. गुप्त विवेचन ने अगीत के आविर्भाव एवं विकास यात्रा का सम्यक विवेचन किया है | डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य' द्वारा लखनऊ में स्थापित 'अखिल भारतीय अगीत परिषद् . के बढ़ते चरणों, अभिनव कलेवर, अगीत त्रैमासिक मुखपत्र 'अगीतायन', संतुलित कहानी विधा, संघात्मक समीक्षा पद्धति तथा विश्व-विद्यालयों के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में अगीत विधा को महत्त्व प्राप्त होने की सार्थक चर्चा की गयी है | अगीत विधा के प्रचार प्रसार में योगदान देने वाले वरिष्ठ साहित्यकारों के साथ ही नवांकुरों के कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर इसकी अनुगूंज को भी रेखांकित किया गया है |
\
-------द्वितीय अध्याय---- के अंतर्गत अगीत की उत्पत्ति की पृष्ठभूमि, अवधारणा व अभिप्राय की सारगर्भित व्याख्या करते हुए डा गुप्त ने उसके स्वरुप, वैशिष्ट्य एवं उपयोगिता को रेखांकित किया है | लेखक का मानना है.. 'यह एक वैज्ञानिक पद्धति है, सामाजिक सरोकारों व उनके समाधान के लिए एक विद्रोह है, एक नवीन खोज है | भाषा की नयी संवेदना, कथ्य का अनूठा प्रयोग, संक्षिप्तता व परिमाण की पोषकता, बिम्बधर्मी प्रयोग के साथ सरलता से भाव सम्प्रेषण अगीत का एक और गुण है ' .... अगीत रचनाकार सिर्फ कल्पनाजीवी नहीं वह स्वजीवी, यथार्थजीवी व समाजजीवी है | वह निराशावादिता के विपरीत सौन्दर्यबोध व आशावादिता को स्वीकारता है | अगीत में पश्चिम के अन्धानुकरण की अपेक्षा कविता को अपनी जमीन, अपने चारों और के वातावरण पर रचने का प्रयास खूब है |
\---
-------अगीत के वर्त्तमान परिदृश्य एवं संभावना------ की विस्तृत विवेचना तृतीय अध्याय की विषय वस्तु है | अगीत के विस्तृत फलक की चर्चा करते हुए डा गुप्त ने लखनऊ व बाहर के अनेक रचनाकारों, समीक्षकों, कवियों, उनकी रचनाओं, पत्र-पत्रिकाओं, महाकाव्य, खंडकाव्यों शोधग्रंथों का सम्यक निरूपण किया | विदेशों में बसे अगीत रचनाकारों का भी उल्लेख किया है | इसके अतिरिक्त अगीत के प्रचार-प्रसार में सक्रिय साहित्यकारों द्वारा आयोजित गोष्ठियों, बृहद आयोजनों, सम्मानों आदि विविध गतिविधियों को भी उद्घाटित किया है | इसी सन्दर्भ में अगीत के उत्कर्ष में सहायक विभिन्न भारतीय एवं अभारतीय विद्वानों, कवियों, साहित्यकारों के विचारों, सम्मतियों तथा टिप्पणियों को भी प्रस्तुत किया गया है|
------चतुर्थ अध्याय -'अगीत छंद एवं उनके रचना विधान' -------अत्यंत महत्वपूर्ण है | वर्त्तमान में अगीत विधा में प्रचलित एवं विविध नवीन प्रयोगों यथा अगीत छंद, लयबद्ध अगीत, शताप्दी अगीत, नव-अगीत, गतिमय सप्तपदी अगीत, त्रिपदा अगीत एवं त्रिपदा अगीत ग़ज़ल के रचना विधान को डा गुप्त ने समुचित उद्धरणों के माध्यम से स्पष्ट करने का सार्थक प्रयास किया है|
-------------अगीत विधा एक भावपक्ष प्रधान सशक्त काव्य-विधा है, इसका गहन चिंतन एवं विवेचन -----पंचम अध्याय 'अगीत की भाव संपदा' -------के अंतर्गत प्रस्तुत किया गया है | अगीत की बहुआयामी भाव-भूमि ...सामाजिक सरोकार, सामाजिक बदलाव,युग परिवर्तन, विचारक्रान्ति, स्त्री विमर्श, प्रकृति चित्रण, हास्य-व्यंग्य, सन्दर्भ, मनोविज्ञान, धर्म एवं दर्शन के साथ ही स्वदेश, स्वभाषा, स्वसंस्कृति के प्रति निष्ठा,प्रेम की अभिव्यक्ति का निरूपण विभिन्न रचनाओं के उद्धरणों के माध्यम से डा गुप्त ने अपने विषय ज्ञान का परिचय दिया है |
-------'अगीत का कलापक्ष ' षष्ट अध्याय -------है जिसमें कलापक्ष पर समुचित प्रकाश डाला गया है | इस सन्दर्भ में इस तथ्य का भी उल्लेख किया गया है कि " यद्यपि अगीत रचनाकार शव्द-विन्यास, अलंकार, रस लक्षणाओं आदि कलापक्ष पर अधिक आधारित नहीं रहता तथापि छंद विधा व गीत का समानधर्मा होने के कारण अगीत में भी पर्याप्त मात्रा में आवश्यक रस, छंद अलंकर व अन्य काव्य के गुण सहज व स्वतः रूप से ही आजाते हैं| डा रंगनाथ मिश्र 'सत्य', सोहनलाल सुबुद्ध,पार्थोसेन व डा श्याम गुप्त ने अपने आलेखों एवं कृतियों के माध्यम से अगीत काव्य में प्रयुक्त शिल्प सौन्दर्य की चर्चा की है| डा श्याम गुप्त ने इस अध्याय में अनेक सटीक उद्धरणों द्वारा अगीत में रस, छंद , अलंकारों, माधर्य, ओज,प्रसाद के साथ अभिधा, लक्षणा, व्यंजना के प्रयोग की सारगर्भित एवं विषद विवेचना की है |
----------------इस प्रकार अगीत रचनाकार डा श्याम गुप्त ने अगीत काव्य की सुदीर्घ सृजन यात्रा विभिन्न आयामों एवं अभिनव कलेवर का सार्थक विवेचन करके इस तथ्य को भी उदघाटित किया है कि हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाने में इसका सराहनीय योगदान आज सर्वस्वीकृत है | कृति की भाषा सहज, बोधगम्य व प्रवाहपूर्ण एवं शैली विषयानुरूप है | तथ्यानुसंधान एवं प्रस्तुतीकरण के दृष्टि से यह कृति अगीत काव्य को समझने एवं इस दिशा में रचनाक्रम में प्रवृत्त होने के लिए डा श्याम गुप्त को हार्दिक बधाई एवं अगीत काव्य एवं समस्त रचनाकारों के उज्जवल भविष्य हेतु मंगल कामनाएं |
-----
--प्रोफ. उषा सिन्हा
पूर्व अध्यक्ष
भाषा विज्ञान विभाग
लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ


t

मंगलवार, 24 अक्तूबर 2017

हिन्दी एवं साहित्य जगत के लिए गौरव के अनमोल क्षण ---प. रघुनन्दन मिश्र मार्ग 'का लोकार्पण ---डा श्याम गुप्त



          .


हिन्दी एवं साहित्य जगत के लिए गौरव के अनमोल क्षण ---
\\
                    साहित्यमूर्ति, साहित्यभूषण लखनऊ कवि समाज में गुरूजी के नाम से जाने जाने वाले सुप्रसिद्ध साहित्यकार कविवर डा रंगनाथ मिश्र सत्य के परम पूज्य पिताजी, प्रखर समाज सेवी प.रघुनन्दन प्रसाद मिश्र के नाम से -ई ब्लोक टेम्पो स्टेंड , राजाजी पुरम , लखनऊ में एक सड़क मार्ग प. रघुनन्दन मिश्र मार्ग 'का लोकार्पण मा. विधायक श्री सुरेश कुमार श्रीवास्तव एवं मा. पार्षद श्री शिवपाल सिंह सांवरिया के कर कमलों द्वारा हुआ |
\
                         यह लखनऊ एवं देश के सभी साहित्यकारों एवं हिन्दी जगत के लिए गौरव की बात है | समस्त साहित्य जगत की ओर से डा रंगनाथ मिश्र सत्य जी को बधाई एवं सत्ता व शासन को साहित्य व काव्य जगत के प्रति समादर प्रदर्शन हेतु धन्यवाद व आभार .....

Image may contain: 4 people, indoor



पर्यावरण संदेषित काव्य गोष्ठी ---डा श्याम गुप्त




पर्यावरण संदेषित काव्य गोष्ठी -----
\\
कल दिनांक २२-१०- १७ को कविवर श्री राजेन्द्र वर्मा के आवास ३/२९, विकास नगर पर एक कविगोष्ठी हुई, जिसमें पटना से पधारे पर्यावरणविद डॉ. मेहता नगेन्द्र सिंह के अलावा स्थानीय कवियों ने भाग लिया।
------कवि-गोष्ठी की शुरुआत प्रसिद्ध कवि-गज़लकार देवकीनंदन शांत के काव्यपाठ से हुई । उन्होंने प्रकृति और मानव के रिश्ते को उजागर करते हुए एक ग़ज़ल पढ़ी :
आग-पानी-हवा है, माटी है----
-----
तन का दीपक है, मन की बाती है ।
दूसरों के लिए जो जीते हैं
उनको ही ज़िन्दगी सुहाती है ।

------ ग़ज़ल-पाठ के क्रम को आगे बढ़ाया जाने-माने ग़ज़लगो श्री कुँवर कुसुमेश ने । अपनी ग़ज़ल में उन्होंने उदात्त भावों को इस प्रकार रखा :
न अमीर है, न ग़रीब है ,
मेरा यार अहले-नसीब है ।
------ इसी भावभूमि पर डॉ. सुरेश उजाला ने एक रचना पढ़ी :
हर कठिन कार्य को आसाँ बनाइए,
ज़िन्दगी के बोझ को हँस के उठाइए ।
-------प्रसिद्ध हास्यकवि डॉ. डंडा लखनवी ने उद्बोधन देते हुए कहा :
धीरे चलते रहिए, थकन लगे, पग मलते रहिए ।
जड़ता लोकतंत्र की बैरन, नायक सदा बदलते रहिये |
जड़ता लोकतंत्र की बैरन, नायक सदा बदलते रहिये |
जड़ता लोकतंत्र की बैरन,नायक सदा बदलते रहिए ।
----------कवि अमरनाथ ने दोहों से गोष्ठी में यथार्थ का रंग भरा :
गूँज उठी थी रात में, सन्नाटे की चीख ।
गुंडों ने क़ब्ज़ा किया, रोजी जिसकी भीख ।।
--------प्रसिद्ध कथाकार-कवि अखिलेश श्रीवास्तव ‘चमन’ ने अपनी रचना में पर्यावरण के प्रति सचेत रहने को कहा अन्यथा उसके दुष्परिणाम हमें भुगतने होंगे :
ख्वाहिशों का, लालचों का यह सिला हो जाएगा,
दूर तक बरबादियों का सिलसिला हो जाएगा ।
पेड़-परबत-नदी-धरती चीखकर कहने लगे,
गर नहीं चेतेगा इंसाँ, ज़लज़ला हो जाएगा ।
---------देश के प्रसिद्ध कवि वाहिद अली वाहिद ने भी पर्यावरण तथा अन्य विषयों पर अपनी कविताओं के सस्वर पाठ से गोष्ठी को कवि-सम्मलेन जैसी ऊँचाई प्रदान की ।
--------संचालक राजेन्द्र वर्मा ने एक ग़ज़ल पढ़ी जो केवल काफ़िये और रदीफ़ पर आधारित थी । मतला था :
चाँदनी में हैं सभी, मैं ही नहीं हूँ,
तिश्नगी में हैं सभी, मैं ही नहीं हूँ ।
--------अतिथि डॉ. मेहता ने प्रकृति को बचाने हेतु आत्ममंथन का आह्वान किया :
हवा हुई ज़हरीली कैसे, मैं भी सोचूँ, तू भो सोच |
फ़ज़ा बनी ये नशीली कैसे, मैं भी सोचूँ, तू भो सोच !
नदी उतरती जब पर्वत से, निर्मल रहती है लेकिन,
नदी हुई मटमैली कैसे, मैं भी सोचूँ, तू भो सोच !
--------गोष्ठी के अध्यक्ष डॉ. श्याम गुप्त ने अपने अध्यक्षीय भाषण में गोष्ठी में प्रस्तुत कविताओं पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ करते हुए पर्यावरण के बचाने की बात कही । काव्यपाठ में उन्होंने ज़माने के व्यवहार पर टिपण्णी करते हुए एक आगी एवं एक ग़ज़ल से कहा :
कम संसाधन/ अधिक दोहन/
न नदिया में जल/ न बाग़ न्गीचों का नगर /
न कोकिल की कूक/ न मयूर की नृत्य सुषमा/
कहीं अनावृष्टि, कहीं अति वृष्टि
किसने किया भ्रष्ट /
प्रकृति सुन्दरी का यौवन |
-------
दर्दे-दिल सँभालकर रखिए,
ज़ख्मेदिल सँभालकर रखिए ।
----------गोष्ठी के अन्त में सभी कवियों ने पर्यावरण को प्रदूषित न करने तथा उसे संरक्षित करने की शपथ ली ।
बाएं से- डॉ मेहता, डॉ डंडा लखनवी, मैं (राजेन्द्र वर्मा), डॉ श्याम गुप्त, अमरनाथ, कुंवर कुसुमेश, वाहिद अली वाहिद, सुरेश उजाला तथा कैलाशनाथ तिवारी।


शुक्रवार, 13 अक्तूबर 2017

श्याम मधुशाला --- डा श्याम गुप्त


                    

श्याम मधुशाला
\\
शराव पीने से बड़ी मस्ती सी छाती है ,
सारी दुनिया रंगीन नज़र आती है ।
बड़े फख्र से कहते हैं वो ,जो पीता ही नहीं ,
जीना क्या जाने ,जिंदगी वो जीता ही नहीं ।।


पर जब घूँट से पेट में जाकर ,
सुरा रक्त में लहराती ।
तन के रोम-रोम पर जब ,
भरपूर असर है दिखलाती ।

होजाता है मस्त स्वयं में ,
तब मदिरा पीने वाला ।
चढ़ता है उस पर खुमार ,
जब गले में ढलती है हाला।

हमने ऐसे लोग भी देखे ,
कभी न देखी मधुशाला।
सुख से स्वस्थ जिंदगी जीते ,
कहाँ जिए पीने वाला।

क्या जीना पीने वाले का,
जग का है देखा भाला।
जीते जाएँ मर मर कर,
पीते जाएँ भर भर हाला।

घूँट में कडुवाहट भरती है,
सीने में उठती ज्वाला ।
पीने वाला क्यों पीता है,
समझ न सकी स्वयं हाला ।

पहली बार जो पीता है ,तो,
लगती है कडुवी हाला ।
संगी साथी जो हें शराबी ,
कहते स्वाद है मतवाला ।

देशी, ठर्रा और विदेशी ,
रम,व्हिस्की जिन का प्याला।
सुंदर -सुंदर सजी बोतलें ,
ललचाये पीने वाला।

स्वाद की क्षमता घट जाती है ,
मुख में स्वाद नहीं रहता ।
कडुवा हो या तेज कसैला ,
पता नहीं चलने वाला।

बस आदत सी पड़ जाती है ,
नहीं मिले उलझन होती।
बार बार ,फ़िर फ़िर पीने को ,
मचले फ़िर पीने वाला।

पीते पीते पेट में अल्सर ,
फेल जिगर को कर डाला।
अंग अंग में रच बस जाए,
बदन खोखला कर डाला।

निर्णय क्षमता खो जाती है,
हाथ पाँव कम्पन करते।
भला ड्राइविंग कैसे होगी,
नस नस में बहती हाला।

दुर्घटना कर बेठे पीकर,
कैसे घर जाए पाला।
पत्नी सदा रही चिल्लाती ,
क्यों घर ले आए हाला।

बच्चे भी जो पीना सीखें ,
सोचो क्या होनेवाला, ।
गली गली में सब पहचानें ,
ये जाता पीने वाला।

जाम पे जाम शराबी पीता ,
साकी डालता जा हाला।
घर के कपड़े बर्तन गिरवी ,
रख आया हिम्मत वाला।

नौकर सेवक मालिक मुंशी ,
नर-नारी हों हम प्याला,
रिश्ते नाते टूट जायं सब,
मर्यादा को धो डाला।

पार्टी में तो बड़ी शान से ,
नांचें पी पी कर हाला ।
पति-पत्नी घर आकर लड़ते,
झगडा करवाती हाला।

झूम झूम कर चला शरावी ,
भरी गले तक है हाला ।
डगमग डगमग चला सड़क पर ,
दिखे न गड्डा या नाला ।

गिरा लड़खडाकर नाली में ,
कीचड ने मुंह भर डाला।
मेरा घर है कहाँ ,पूछता,
बोल न पाये मतवाला।

जेब में पैसे भरे टनाटन ,
तब देता साकी प्याला ।
पास नहीं अब फूटी कौडी ,
कैसे अब पाये हाला।

संगी साथी नहीं पूछते ,
क़र्ज़ नहीं देता लाला।
हाथ पाँव भी साथ न देते ,
हाला ने क्या कर डाला।

लस्सी दूध का सेवन करते ,
खास केसर खुशबू वाला।
भज़न कीर्तन में जो रमते ,
राम नाम की जपते माला।

पुरखे कहते कभी न करना ,
कोई नशा न चखना हाला।
बन मतवाला प्रभु चरणों का,
राम नाम का पीलो प्याला।

मन्दिर-मस्जिद सच्चाई पर,
चलने की हैं राह बताते।
और लड़ खडा कर नाली की ,
राह दिखाती मधुशाला।

मन ही मन हैं सोच रहे अब,
श्याम क्या हमने कर डाला।
क्यों हमने चखलीयह हाला ,
क्यों जा बैठे मधुशाला॥



गुरुवार, 12 अक्तूबर 2017

विज्ञान कथा---भुज्यु-राज की सागर में डूबने से रक्षा---डा श्याम गुप्त


फ़ॉलोअर

मेरे द्वारा की गयी पुस्तक समीक्षा--डॉ.श्याम गुप्त

  मेरे द्वारा की गयी पुस्तक समीक्षा-- ============ मेरे गीत-संकलन गीत बन कर ढल रहा हूं की डा श्याम बाबू गुप्त जी लखनऊ द्वारा समीक्षा आज उ...