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मंगलवार, 16 जुलाई 2013

लोकतंत्र


मुद्दों को हम दें भुला , डालें जब भी वोट |
लोकतंत्र में फिर सभी , निकालते हैं खोट ||
निकालते हैं खोट , भूलकर अपनी गलती |
पछताते उस वक्त , चोट जब गहरी लगती ||
जब भी डालो वोट, जाति-धर्म सब भुला दो |
कहता सबसे विर्क , मुख्य मानों मुद्दों को ||


उठती न बात देश की , हो मुद्दों की हार ।
जाति - धर्म जैसे कई, उगते  खरपतवार ।।
उगते खरपतवार, वोट के दिन जब आते ।
यूं रहते हैं गौण , रंग इस वक्त दिखाते ।।
लोकतंत्र की साख , इसी कारण है गिरती 
बना है भीड़तन्त्र, ऊँगली इस पर उठती ।।

-------- दिलबाग विर्क 

7 टिप्‍पणियां:

  1. बेहद सुन्दर प्रस्तुतीकरण ....!!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज बुधवार (17-07-2013) को में” उफ़ ये बारिश और पुरसूकून जिंदगी ..........बुधवारीय चर्चा १३७५ !! चर्चा मंच पर भी होगी!
    सादर...!

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  2. कोई रूप नहीं बदलेगा सत्ता के सिंहासन का
    कोई अर्थ नहीं निकलेगा बार-बार निर्वाचन का
    एक बड़ा खूनी परिवर्तन होना बहुंत जरूरी है
    अब तो भूखे पेटों का बाग़ी होना मजबूरी है

    हम वो कलम नहीं है जो बिक जाती हों दरबारों में
    हम शब्दों की दीप-शिखा हैं अंधियारे चौबारों में
    हम वाणी के राजदूत हैं सच पर मरने वाले हैं
    डाकू को डाकू कहने ली हिम्मत करने वाले हैं
    ----- ।। हरी ॐ पवार ।। -----

    जवाब देंहटाएं
  3. कोई रूप नहीं बदलेगा सत्ता के सिंहासन का
    कोई अर्थ नहीं निकलेगा बार-बार निर्वाचन का
    एक बड़ा खूनी परिवर्तन होना बहुंत जरूरी है
    अब तो भूखे पेटों का बाग़ी होना मजबूरी है

    हम वो कलम नहीं है जो बिक जाती हों दरबारों में
    हम शब्दों की दीप-शिखा हैं अंधियारे चौबारों में
    हम वाणी के राजदूत हैं सच पर मरने वाले हैं
    डाकू को डाकू कहने की हिम्मत करने वाले हैं
    ----- ।। हरी ॐ पवार ।। -----

    जवाब देंहटाएं
  4. हर चौराहे से आवाजें आती हैं संत्रासों की
    पूरा देश नजर आता है मंडी ताजा लाशों की
    सिंहासन को चला रहे हैं नैतिकता के नारों से
    मदिरा की बदबू आती है संसद की दीवारों से

    जागो कलम पुरोधा जागो मौसम का मजमून लिखो
    चम्बल की बाग़ी बंदूकों को ही अब कानून लिखो
    हर मजहब के लम्बे लम्बे खून सने नाख़ून लिखो
    गलियाँ-गलियाँ बस्ती-बस्ती धुंआ गोलियां खून लिखो
    ----- ।। हरो ॐ पवार ।। -----

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