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शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

"पहाड में मामा-मामी उपहार में मिले" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक)



पहाड़ में मामा-मामी उपहार में मिले!
यह बात 1966 की है। उन दिनों मैं कक्षा 11 में पढ़ रहा था। परीक्षा हो गईं थी और पूरे जून महीने की छुट्टी पड़ गई थी। इसलिए सोचा कि कहीं घूम आया जाए। तभी संयोगवश् मेरे मामा जी हमारे घर आ गये। वो उन दिनों जिला पिथौरागढ़ में ठेकेदारी करते थे। उन दिनों मोटरमार्ग तो थे ही नहीं इसलिए पहाड़ों के दुर्गम स्थानों पर सामान पहुँचाने का एक मात्र साधन खच्चर ही थे।

   मेरे मामा जी के पास उन दिनों 20 खच्चर थीं जो आरएफसी के चावल को दुर्गम स्थानों तक पहुँचातीं थीं। दो खच्चरों के लिए एक नौकर रखा गया था इसलिए एक दर्जन नौकर भी थे। खाना बनाने वाला भी रखा गया था और पड़ाव बनाया गया था लोहाघाट। मैं पढ़ा-लिखा था इसलिए हिसाब-किताब का जिम्मा मैंने अपने ऊपर ही ले लिया था।
मुझे यहाँ कुछ दिनों तक तो बहुत अच्छा लगा। मैं आस-पास के दर्शनीय स्थान मायावती आश्रम और रीठासाहिब भी घूम आया था। मगर फिर लौटकर तो पड़ाव में ही आना था और पड़ाव में रोज-रोज आलू, अरहर-मलक की दाल खाते-खाते मेरा मन बहुत ऊब गया था। हरी सब्जी और तरकारियों के तो यहाँ दर्शन भी दुर्लभ थे। तब मैंने एक युक्ति निकाली जिससे कि मुझे खाना स्वादिष्ट लगने लगे।
मैं पास ही में एक आलूबुखारे (जिसे यहाँ पोलम कहा जाता था) के बगीचे में जाता और कच्चे-कच्चे आलूबुखारे तोड़कर ले आता। उनको सिल-बट्टे पर पिसवाकर स्वादिष्ट चटनी बनवाता और दाल में मिलाकर खाता था। दो तीन दिन तक तो सब ठीक रहा मगर एक दिन बगीचे का मालिक नित्यानन्द मेरे मामा जी के पास आकर बोला ठेकेदार ज्यू आपका भानिज हमारे बगीचे में से कच्चे पोलम रोज तोड़कर ले आता है। मामा जी ने मुझे बुलाकार मालूम किया तो मैंने सारी बता दी।
नित्यानन्द बहुत अच्छा आदमी था। उसने कहा कि ठेकेदार ज्यू तुम्हारा भानिज तो हमारा भी भानिज। आज से यह खाना हमारे घर ही खाया करेगा और मैं नित्यानन्द जी को मामा जी कहने लगा।
उनके घर में अरहर-मलक की दाल तो बनती थी मगर उसके साथ खीरे का रायता भी बनता था। कभी-कभी गलगल नीम्बू की चटनी भी बनती थी। जिसका स्वाद मुझे आज भी याद है। पहाड़ी खीरे का रायता उसका तो कहना ही क्या? पहाड़ में खीरे का रायता विशेष ढंग से बनाया जाता है जिसमें कच्ची सरसों-राई पीस कर मिलाया जाता है जिससे उसका स्वाद बहुत अधिक बढ़ जाता है। ऐसे ही गलगल नीम्बू की चटनी भी मूंगफली के दाने भूनकर-पीसकर उसमें भाँग के बीज पीसकर मिला देते हैं और ऊपर से गलगल नींबू का रस पानी की जगह मिला देते हैं। (भाँग के बीजों में नशा नहीं होता है)
एक महीने तक मैंने चीड़ के वनों की ठण्डी हवा खाई और पहाड़ी व्यंजनों का भी मजा लिया। अब सेव भी पककर तैयार हो गये थे और आलूबुखारे भी। जून के अन्त में जब मैं घर वापिस लौटने लगा तो मामा और मामी ने मुझे घर ले जाने के लिए एक कट्टा भरकर सेव और आलूबुखारे उपहार में दिये।
आज भी जब मामा-मामी का स्मरण हो आता है तो मेरा मन श्रद्धा से अभिभूत हो जाता है।
काश् ऐसी पिकनिक सभी को नसीब हो! जिसमें की मामा-मामी उपहार में मिल जाएँ!
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आज वो पहाड़ी मामा-मामी तो नहीं रहे मगर उनका बेटा नीलू आज भी मुझे भाई जितना ही प्यार करता है।
पहाड़ का निश्छल जीवन देखकर मेरे मन में बहुत इच्छा थी कि मैं भी ऐसे ही निश्छल वातावरण में आकर बस जाऊँ और मेरा यह सपना साकार हुआ 1975 में। मैं पर्वतों में तो नहीं मगर उसकी तराई में आकर बस गया।

सोमवार, 24 नवंबर 2014

ग़ज़ल की ग़ज़ल...डा श्याम गुप्त ....

कुछ लोग ग़ज़ल के परिपेक्ष्य में सदा बहर -बहर की ही बात करते रहते हैं , मेरा कथन है ……
-कुछ अपना ही अंदाज़ हो वो न्यारी ग़ज़ल होती है | --

""-ग़ज़ल तो बस, इक अंदाज़े बयाँ है दोस्त
    श्याम तो जो कहदें, वो ग़ज़ल होती है ||""

               ग़ज़ल की ग़ज़ल
शेर मतले का हो तो कुंवारी ग़ज़ल होती है |
हो काफिया ही जो नहीं,बेचारी ग़ज़ल होती है

और भी मतले हों, हुश्ने तारी ग़ज़ल होतीं है
हर शेर मतला हो हुश्ने-हजारी ग़ज़ल होती है

  
हो बहर में सुरताल लय में प्यारी ग़ज़ल होती है
सब कुछ हो कायदे में वो संवारी ग़ज़ल होती है            

हो दर्दे दिल की बात मनोहारी ग़ज़ल होती है,
मिलने का करें वायदा मुतदारी ग़ज़ल होती है ।

हो रदीफ़ काफिया नहीं नाकारी  ग़ज़ल होती है  ,
मतला बगैर हो ग़ज़ल वो मारी ग़ज़ल होती है

मतला भी मकता भी रदीफ़  काफिया भी हो,
सोची समझ के लिखे के सुधारी ग़ज़ल होती है

जो वार दूर तक करे वो  करारी ग़ज़ल होती है ,
छलनी हो दिल आशिक का शिकारी ग़ज़ल होती है


हर शेर एक भाव हो वो ज़ारी ग़ज़ल होती है,
हर शेर नया अंदाज़ हो वो भारी ग़ज़ल होती है

मस्ती में कहदें झूम के गुदाज़कारी ग़ज़ल होती है,
उनसे तो जो कुछ भी कहें दिलदारी ग़ज़ल होती है

तू गाता चल यारकोई  कायदा  देख,
कुछ अपना ही अंदाज़ हो खुद्दारी ग़ज़ल होती है।


जो उसकी राह में कहो इकरारी ग़ज़ल होती है,
अंदाज़े बयाँ हो श्याम का वो न्यारी ग़ज़ल होती है






शनिवार, 22 नवंबर 2014

"ग़ज़ल-गधे सा काम हमारा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

भटक रहा है मारा-मारा।
गधा हो गया है बे-चारा।।

जनसेवक ने लील लिया है,
बेचारों का भोजन सारा।

चरागाह अब नहीं बचे हैं,
पाये कहाँ से अब वो चारा।

हुई घिनौनी आज सियासत,
किस्मत में केवल है नारा।

कंकरीट के जंगल हैं अब,
हरी घास ने किया किनारा।

कूड़ा-करकट मैला खाता,
भूख हो गयी है आवारा।

भूसी में से तेल निकलता,
कठिन हो गया आज गुज़ारा।

"रूप" हमारा चाहे जो हो,
किन्तु गधे सा काम हमारा।

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मेरे द्वारा की गयी पुस्तक समीक्षा--डॉ.श्याम गुप्त

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