यह ब्लॉग खोजें

रविवार, 25 अक्तूबर 2015

तुलसी-रामायण- रामचरित मानस की भाषा ...डा श्याम गुप्त


                           

           तुलसी-रामायण- रामचरित मानस की भाषा ...

                             


                 
          
         बचपन से लेकर इंटर कक्षाओं तक हम महाकवि तुलसीदास व रामचरितमानस को पढ़ते रहे हैं| हिन्दी भाषा व साहित्य की परीक्षाओं हेतु तुलसी महत्वपूर्ण कवि हुआ करते थे, आज भी हैं| ५०-६० वर्षों से हम उन्हें सदा हिन्दी भाषा के अग्रगण्य विश्वकवि के रूप में पढ़ते-लिखते रहे हैं | अब मुझे सुनने –पढ़ने को मिल रहा है कि तुलसी की रामायण -रामचरित मानस- की भाषा अवधी है | ये अवधी भाषा कहाँ से आई |
     रामचरित मानस की लोकप्रियता अद्वितीय है| यह हिन्दी भाषा का कालजयी एवं विश्व-प्रसिद्द ग्रन्थ है | परंतु आजकल शायद लगभग १५-२० वर्षों से  इस ग्रंथ के किसी न किसी पहलू को लेकर विवाद उठने लगे हैं। रामचरितमानस की भाषा के बारे में भी आज के विद्वान एकमत नहीं हैं। कोई इसे अवधी मानता है तो कोई भोजपुरी। कुछ लोक मानस की भाषा अवधी और भोजपुरी की मिलीजुली भाषा मानते हैं। मानस की भाषा बुंदेली मानने वालों की संख्या भी कम नहीं है।
       मानस में संस्कृत, फारसी और उर्दू के शब्दों की भरमार है | तुलसीदास अवधी और ब्रजभाषा में बराबर निष्णात थे। उन्होंने संस्कृत शब्दों को गाँवों में प्रचलित किया एवं देसी शब्दों को को पढ़े-लिखे लोगों के बीच लोकप्रिय बनाया। हिन्दी भाषा व साहित्य का इतिहास उनका सदैव ऋणी रहेगा |
        वस्तुतः तुलसीदास ने संस्कृत, खड़ीबोली, पूर्वी हिन्दी --अवधी, भोजपुरी, बुन्देली, छत्तीसगढ़ी, वैसवारी, कन्नौजी, बघेली, मागधी, कौशली और पश्चिमी हिन्दी ब्रजभाषा व उत्तर-पश्चिम की भारतीय भाषाओं के मिले-जुले स्वरूप को प्रचलित किया। इसके साथ ही उन्होंने फारसी –उर्दू और अन्य भाषाओं के शब्दों का प्रयोग किया। इस प्रकार के प्रयोगों के उदाहरण बिरले ही मिलते हैं। तुलसीदास ने भाषा को नया स्वरूप दिया। यह अवधी नहीं अपितु वही भाषा थी जो प्राकृत से शौरसेनी अपभ्रंश होते हुए, १५ दशकों तक समस्त भारत की साहित्यिक भाषा रही ब्रजभाषा के नए रूप मागधी, अर्धमागधी आदि से सम्मिश्र होकर आधुनिक हिन्दी की ओर बढ़ रही थी जिसे ‘भाखा’ कहा गया एवं जो आधुनिक हिन्दी ‘खड़ीबोली’ का पूर्व रूप थी | काशी पंडितों द्वारा संस्कृत में निष्णात होते हुए भी संस्कृत के स्थान पर भाषा या ‘भाखा’ में रामचरित मानस लिखने पर कठोर आपत्ति की थी.....’कहा भाखा में लिखत हौ पंडित हौ संस्कृत में लिखौ ‘....यह जग प्रसिद्द घटना है | इन्हीं आपत्तियों के चलते काशी में तुलसीदास व मानस के बारे में विभिन्न घटनाएँ हुईं |
       चित्रकूट स्थित अंतरराष्ट्रीय मानस अनुसंधान केन्द्र के प्रमुख स्वामी रामभद्राचार्य के अनुसार रामचरितमानस के वर्तमान संस्करणों में कर्तृवाचक उकार शब्दों की बहुलता हैं। उन्होंने इसे अवधी भाषा की प्रकृति के विरुद्ध बताया है। इसी प्रकार उन्होंने उकार को कर्मवाचक शब्द का चिन्ह मानना भी अवधी भाषा के विपरीत बताया है। उकारांत कर्तृवाचक शब्दों के प्रयोग भी अवधी भाषा के विरुद्ध है।
        तुलसीदास 'ग्राम्य गिरा' के पक्षधर थे। परन्तु वे जायसी की गँवारू भाषा अवधी के पक्षधर नहीं थे। तुलसीदास की तुलना में जायसी की अवधी अधिक शुद्ध है तुलसीदास के अन्य अनेक ग्रन्थों में पार्वतीमंगलतथा जानकीमंगलअच्छी अवधी में है। संस्कृत के विद्वान् होने के कारण संस्कृत व आधुनिक शुद्ध हिन्दी खडीबोली का प्रयोग भी स्वाभाविक रूप में हुआ है |  स्वामी रामभद्रचार्य ने 'न्ह' के प्रयोग को भी अनुचित और अनावश्यक बताया है। उनके अनुसार नकार के साथ हकार जोड़ना ब्रजभाषा का प्रयोग है अवधी का नहीं। स्वामीजी के अनुसार मानस की उपलब्ध प्रतियों में तुम के स्थान पर 'तुम्ह' और 'तुम्हहि' शब्दों के जो प्रयोग मिलते हैं वे अवधी में नहीं होते | इसी प्रकार '' न तो प्राचीन अवधी की ध्वनि है और न ही आधुनिक अवधी की।
       रामचरितमानस की तुलसीदास द्वारा लिखित कोई प्रति उपलब्ध नहीं है। मानस की रचना आज से लगभग ५०० वर्ष पहले की गई थी। वह भारत भर में हिन्दी साहित्य में ब्रजभाषा का काल था जो भाखा के रूप में हिन्दी का रूप लेती जारही थी | निम्न चौपाइयों की भाषा देखिये लगभग शुद्ध हिन्दी है --

“सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू। बिधि हरि हर बंदित पद रेनू।
सेवत सुलभ सकल सुखदायक। प्रनतपाल सचराचर नायक।“


धीरज धर्म मित्र अरु नारी | आपत काल परखिये चारी |
कीरति भनिति भूति भलि सोई \ सुरसरि सम सब कहं हित होई |

            प्रश्न यह है कि अवधी का उद्गम किस प्राकृत से है। अवधी उत्तर भारत में बोले जाने वाली भारतीय-आर्य वर्ग की पूर्वी हिन्दी शाखा की एक बोली है। अवधी शब्द से बोध होता है कि यह अवधमात्र की बोली है, किन्तु यह एक ओर अवध के कुछ क्षेत्रों में (जैसे हरदोई जिले में अथवा खीरी और फैजाबाद के कुछ अंशो में) नही बोली जाती है और दूसरी ओर अवध के बाहर कुछ जिलो में (जैसे फतेहपुर, इलाहाबाद, जौनपुर और मिर्जापुर में) बोली जाती है। अवधी के पश्चिम में वे बोलियां  है जिनका सम्बन्ध शौरसेनी प्राकृत से है कन्नौजी और बुन्देली और पूर्व में बिहारी बोलियां है भोजपुरी आदि जिनका सम्बन्ध मागधी से है। मध्य-पश्चिम भागों पर कन्नौजी का प्रभाव है| दक्षिण की ओर कोसल का विस्तार, अर्थात दक्षिण कोसल है जहाँ  बघेली और छत्तीसगढ़ी बोली जाती है, जो मुस्लिमकाल में विशेषतया गोंडवाना के नाम से ज्ञात और वन्य गोंड-भील जातियों से बसा हुआ था। अवधी के उद्गम का कोई इतिहास ही नहीं प्राप्त होता |
      पूर्वीका शब्दशः अर्थ है, पूर्व प्रदेशीय और यह कभी अवधी के लिए और कभी भोजपुरी के लिए प्रयुक्त होता रहा है। है। कोशली कोसल राज्य की भाषा का नाम था | बैसवाड़ी बैसवाड़ाके लिए प्रयुक्त होता है जिसके अन्र्तगत उन्नाव, लखनऊ, रायबरेली और फतेहपुर जिलों के अंश आते है। तुलसीदास ने अयोध्या के लिए अवध शब्द प्रयुक्त किया और लालदास आदि ने इसे अउध कहा है। अवध का सम्बंध प्राचीन नगरी अयोध्या से है| जो कि मुसलमानी काल में पर्याप्त महत्वपूर्ण हुई। मिर्जापुर जिले के दक्षिण पूर्वी त्रिकोण में -सोनपार प्रदेश में अवधी भोजपुरी से मिश्रित बोली जाती है। सोनपार के और दक्षिण में छत्तीसगढ़ी की एक बोली सरगुजिआ मिलती है।
       अर्थात अवधी भाषा का अपना मुख्य क्षेत्र केवल अवध ही है| इसका कोई प्राचीन इतिहास भी नहीं है | वास्तव में उत्तर-मुगल काल में फैजाबाद तथा लखनऊ का बड़ा महत्व रहा है। दिल्ली दरवार टूटने के पश्चात मुगलिया नबावी संस्कृति लखनऊ की ओर बढी | अवध के नवाब अपनी संस्कृति, खुशमिजाजी और शान-शौकत के लिए प्रसिद्ध रहे है। अतः अवधी भाषा का प्रचार–प्रसार होने लगा |
     अतः मानस की भाषा अवधी नहीं अपितु १५ दशकों तक समस्त भारत की साहित्यिक भाषा रही  ब्रजभाषा के नए रूप मागधी, अर्धमागधी एवं कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, पंजाब से लेकर बंगाल तक अन्य पुरानी व नयी भारतीय भाषाओं आदि से सम्मिश्र होकर आधुनिक हिन्दी की ओर बढ़ रही भाषा थी जिसे ‘भाखा’ कहा गया एवं जो आधुनिक हिन्दी ‘खड़ीबोली’ का पूर्व रूप थी | तुलसी हिन्दी को जन-मानस में प्रतिष्ठित करना चाहते थे | अतः उन्होंने मानस की भाषा हिन्दी रखी | इसीलिये उन्होंने अपने अन्य ग्रन्थ शुद्ध अवधी ( रामलला नहछू, जानकी मंगल आदि ) व ब्रजभाषा ( कवितावली, विनयपत्रिका आदि ) में लिखे |
      बांदा में जन्मे, काशी में पढ़े-लिखे व अयोध्या में स्थित होकर मानस रचने वाले गोस्वामी तुलसीदास दोनों मूल भाषाओं पूर्वी व पश्चिमी हिन्दी में पारंगत थे अतः वे मूलतः हिन्दी के कवि हैं| आज भाषा का यह प्रश्न हिन्दी के विरुद्ध एक षडयंत्र की भांति लगता है जो हिन्दी की बोलियों में मत-भिन्नता उत्पन्न करके हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के प्रयत्न को दूर तक टालने का कुप्रयास है |

शनिवार, 24 अक्तूबर 2015

सनातन धर्म की वैज्ञानिकता ...डा श्याम गुप्त .....



सनातन धर्म की वैज्ञानिकता


         मानव जब वृक्षों व कंदराओं से बाहर आया और रहन-सहन के सामूहिक रूप की स्थापना हुई तो सामाजिकता के नियमन व समन्वय हेतु कुछ नियमों का प्रचलन हुआ| वही नियम सार्वभौम होकर धर्म, समाज, संस्कृति व सभ्यता बने| इस प्रकार एक सनातन व्यवस्था मानव की प्रथम उत्पत्ति की भूमि, ब्रह्मा के प्रदेश सुमेरु पर्वतीय क्षेत्र में स्थापित हुई जो ब्रह्मा की मानस पुत्री सरस्वती के उद्गम क्षेत्र मानसरोवर एवं प्रवाह क्षेत्र स्वर्ग आदि में प्रतिष्ठित हुई, तत्पश्चात सरस्वती के पृथ्वी क्षेत्र में अवतरण, वेदों के आविर्भाव एवं मानव के विकास प्रक्रिया में पृथ्वी पर चहुँओर प्रसार द्वारा उसके भूतलीय प्रवाह क्षेत्र में सारस्वत-सभ्यता के नाम से प्रतिष्ठित हुई, जो पृथ्वी की प्रथम सनातन व्यवस्था, धर्म व संस्कृति हुई, सनातन वैदिक सभ्यता |
    यह बहुदेववादी व्यवस्था थी, केवल सामाजिक विज्ञान से ओत-प्रोत ही नहीं अपितु पूर्णरूपेण वैज्ञानिक तंत्र व नियम आधारित व्यवस्था, जिसमें प्रत्येक मानव क्या विस्तृत रूप में धरती, सूर्य, तारे, मिट्टी, पानी, वृक्ष, प्राणी, जीव-निर्जीव सभी को देव या भगवान माना जाता है | देवताओं को सृष्टि के पालनकर्ता और नैतिक वृत्ति के पोषक के रूप में दर्शाया जाता है। कण कण में भगवान की अवधारणा बनी| यह विज्ञान के साथ साथ ईश्वर पर आस्था व विश्वास की संस्कृति व धर्म था| अत: यह कभी न मिटने वाली सतत-प्रवहमान, कालजयी धर्म व संस्कृति हुई एवं ‘धर्म की जड़ सदा हरी’ जैसे वाक्य अस्तित्व में आये| वेद, उपनिषद्, पुराण साहित्य से ज्ञान का प्रकाश उद्भासित हुआ|  ईश्वर, आत्मा व जीव के सम्बन्ध की श्रेष्ठतम मान्यताएं व दर्शन प्रतिष्ठित हुए | जम्बू द्वीपे, भरत-खंडे से उद्भूत यह व्यवस्था व धर्म मानव के विश्व में प्रसार के साथ समस्त विश्व में फैला |      
        प्रारम्भ से ही उचित-अनुचित, धर्म-अधर्म, कृतित्व-अकृतित्व के समुचित व्याख्या-भाव के कारण इस श्रेष्ठ व्यवस्था को  बुराई से, समाज के नियमों की अवमानना करने वालों से चुनौती मिलती रही है| मानव अहं, कि ईश्वर सर्वोपरि है या मानव स्वयं के प्रश्न पर, भौतिकता, सुख-समृद्धि के अति-प्रचलन तथा मानव आचरण की स्वयं की हीनता से भी विभिन्न पथ व पंथ इसके विरोध में अस्तित्व में आते रहे हैं | जिसके कारण कभी कोई सागर में सभ्यता स्थापित करता है, कभी कोई नभ में नगर स्थापना करता है, कभी कोई समस्त धरती का सम्राट बनाने की लालसा | देव-दैत्य, सुर-असुर, आर्य-अनार्य संस्कृतियों-सभ्यताओं की उत्पत्ति, टकराहट व युद्ध एवं अवतारवाद और अंततः इस प्रक्रिया में प्रत्येक बार सनातन शक्तियों व नियमों की विजय इन्हीं की विश्व-गाथाएँ हैं जो वेदों व पुराणों में वर्णित हैं|
       परशुराम की विजय गाथाएँ, राम द्वारा रावणत्व का विनाश, कृष्ण द्वारा भारत-युद्ध इसी सनातन संस्कृति, धर्म की पुनर्स्थापना की घटनाएं हैं जो हर बार, हर युग में अनैतिकता, अनाचरण, अनाचार, अतिवादिता के विरुद्ध सनातन आचरण, आचार व मानवतावाद की विजय है|
       पश्च द्वापर युग में भी मानव आचरण की कमी, धर्म व सत्कर्मों में आये क्षरण के कारण सनातन व्यवस्था के विरोध में एकेश्वरवाद व अनीश्वरवाद का प्रसार हुआ| ये प्रायः महाभारत युद्ध के पश्चात एवं सम्राट हर्षवर्धन की पराजय के पश्चात समाज में आयी धार्मिक शिथिलता, अकर्मण्यता, ब्राह्मणवाद व निरंकुशता का विरोध था| मूलतः अनीश्वरवादी सम्प्रदाय ये थे---
          गोसाल द्वारा स्‍थापित आजीविक सम्‍प्रदाय .. कर्म सम्‍बन्‍धी कार्य कारण सम्‍बंध के व्‍यवस्‍थाक्रम को स्‍वीकार नहीं करता था। उनकी मान्‍यता थी कि सृष्टि के घटक तत्‍वपृथ्‍वी, जल, अग्नि, वायु, सुख, दुख ओर जीवात्‍मा (जीव)अरचित,  अखंडनीय पदार्थ के अणुओं के रूप में विद्यमान हैं जो परस्‍पर क्रिया नहीं करते हैं।
         अजित द्वारा प्रतिपादित लोकायत या चार्वाक दर्शन भी कर्म के सिद्धांत को अस्‍वीकार करता था। इतना ही नहीं, यह दर्शन पुनर्जन्‍म और जीवात्‍मा जैसी संकल्‍पना को भी अस्‍वीकार करता था।
       संजयिन द्वारा प्रशस्‍त अनीश्‍वरवादियों के अज्ञान दर्शन में यह कहा गया कि तत्‍वज्ञान सम्‍बन्‍धी चिन्‍तन या तर्क पर आधारित वाद-विवाद से किसी भी प्रकार का निर्णायक ज्ञान प्राप्‍त करना असम्‍भव है। इस दर्शन में ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले ऐसे मठों में रहने की शिक्षा दी गई जो केवल साहचर्य के भाव पर बल देते हैं।
         महावीर द्वारा प्रतिपादित जैन या निर्ग्रन्‍थ दर्शन का प्रादुर्भाव लोकायत दर्शन के विरूद्ध कड़ी प्रतिक्रिया के रूप में हुआ। इस दर्शन में कर्म गति के कारण जीवात्‍मा के पुनर्जन्‍म की प्रक्रिया से गुजरने की बात पर बल दिया गया।
        जैन धर्म की अहिंसा वैदिक उपनिषदीय तत्वों से पृथक नहीं है उनकी अपनी राम कथा है एवं अन्य हिन्दू धर्म ग्रंथों की उनकी अपनी व्याख्याएं हैं| स्वामी नेमिनाथ तो स्वयं श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे | अतः उसे सनातन हिन्दू धर्म ने अपने सर्व-आत्मलयी, सर्वग्राही बहुरूप के कारण स्वयं के एक दर्शन के रूप में स्वीकार करलिया, अनीश्वरवादी दर्शन के रूप में | अंतत जैन धर्म केवल एक प्रमुख भारतीय धार्मिक व्‍यवस्‍था के रूप में हिन्दू धर्म का एक पंथ की भांति रह गया|
        बौद्ध मत का प्रादुर्भाव एक ऐसे श्रमण दर्शन के रूप में हुआ जो कर्म गति को पुनर्जन्‍म के कारण के रूप में स्‍वीकार करता था, लेकिन अन्‍य दर्शनों की मान्‍यता वाले आत्‍मा के स्‍वरूप को अस्‍वीकार करता था। बुद्ध ने तर्क और शास्‍त्रार्थ तथा नैतिक आचरण को मुक्ति के मार्ग में सहायक उपायों के रूप में स्‍वीकार किया, लेकिन उन्‍होंने इसे जैन दर्शन जैसी तपश्‍चर्या के रूप में स्‍वीकार नहीं किया।  इस प्रकार बौद्ध मत ने पूर्व में उल्लिखित चारों श्रमण दर्शनों की अतिशयताओं का परिवर्जन किया। महात्मा बुद्ध व बौद्ध धर्म के प्रादुर्भाव ने अतिवादितापूर्ण अन्य सभी मतों को स्वयं ही निर्मूल कर दिया और वे इतिहास बन कर रह गए |
              स्वयं बौद्ध-धर्म जो अपने दया, त्याग, करुणा, संयम आदि के कारण यज्ञों में हिंसा व ब्राहमणत्व के विरोध स्वरुप एक धार्मिक सुधार के रूप में भारत भर में एवं भारत के पडौसी देशों में तेजी से फैला परन्तु आज स्वयं भारत से ही निष्कासित अवस्था में है | क्योंकि बुद्ध के चार आर्य-धर्म, पंचशील, अष्टांगिक मार्ग वैदिक धर्म के ही अंग थे, उन्होंने कोई नवीन तथ्य उपस्थित नहीं किया | उनके दया, करुणा आदि हिन्दू वैष्णव धर्म के ही अंग थे | अंतत उसे भी वैष्णव धर्म ने बुद्ध को कृष्ण के वाद अपना नवां अवतार घोषित करके( जो उनके अनुसार जो विष्णु के नकारात्मक अवतार थे, दुष्टों व अपराधियों को पथभ्रष्ट करने हेतु .. एवं इस प्रकार वैदिक धर्म में आयी कुरीतियों को समाप्त करने को हुआ था..) उसे हिन्दू धर्म का ही एक अनीश्वरवादी दर्शन स्वीकार कर लिया | इस प्रकार  बुद्ध के बाद अत्यधिक तांत्रिकता, मठों आदि में अव्यवस्था, मत-मतान्तर, जन साधारण से पृथक रहने के कारण बौद्ध धर्म ध्वस्त प्राय होगया| शंकराचार्य की वैदिक विजय एवं ईसाई व इस्लाम धर्म के एकेश्वरवाद का आगमन इसकी विलुप्ति का अन्य कारण बना | आखिर देश की साहित्य व संस्कृति पर बौद्ध दर्शन का प्रभाव तो लाभदायी ही रहा | जब वैदिक संस्कृत का लोप हुआ तो पाली भाषा में बौद्ध धर्म की कथा कहानियां, ग्रंथों में भारतीय संस्कृति के मूल किस्सों को जीवित रखा गया |   
       अब बात दो विदेशी धर्मों की है | अनीश्वरवादियों की अनास्था एवं बुद्ध व जैन धर्मों की अकर्मण्यता से उत्पन्न भारतीय समाज असमंजसता की स्थिति में था | अनिश्चयता व राजनैतिक अस्थिरता के इस काल में देश पर इस्लाम का आक्रमण हुआ | इस्लाम एकेश्वरवादी धर्म है जो तलवार के जोर पर दुनिया में फैला | इस्लाम शब्द का अर्थ है – 'अल्लाह को समर्पण'। इस्लाम धर्म का आधारभूत सिद्धांत अल्लाह को सर्वशक्तिमान, एकमात्र ईश्वर और जगत का पालक तथा हज़रत मुहम्मद को उनका संदेशवाहक या पैगम्बर मानना है। भारत में पृथ्वीराज चौहान की निर्णायक हार के पश्चात् यह शासन के धर्म एवं तलबार के बल पर भारत में फैला | परन्तु सनातन धर्म के सच्चे अनुयाइयों ने कभी भी इसे नहीं स्वीकारा | 
         ईसाई धर्म मूलतः योरोपीय धर्म है | बौद्ध धर्म की दया, करुणा व सेवा ईसाई धर्म का भी मूल है | ईसाई  एकेश्वरवादी हैं, लेकिन वे ईश्वर को त्रिक के रूप में समझते हैं -- परमपिता परमेश्वर, उनके पुत्र ईसा मसीह (यीशु मसीह) और पवित्र आत्मा। ईसामसीह ने ईसाई धर्म का फ़िलीस्तीन में सर्वप्रथम प्रचार किया, जहाँ से वह रोम और फिर सारे यूरोप में फैला। ईसाई धर्म अधिकाँश राजनैतिक संरक्षण युद्धों व तलवार के बल पर एवं गरीब व दलित जनता को लालच लोभ व चमत्कारों के बल पर फैला | इस्लाम व ईसाइयों के धर्म-युद्ध सारे योरोप में अधिकार के लिए होते रहे हैं जिनका रक्तरंजित इतिहास है | ईसामसीह द्वारा सभी के पाप माफ़ कर देने की व्यवस्था के कारण अनुपालन में सबसे सरल यह धर्म विश्व का सबसे अधिक अनुयायियों वाला धर्म है |
         ईसा मसीह के प्रमुख शिष्यों में से एक संत टामस ने प्रथम शताब्दी ईस्वी में ही भारत में मद्रास के पास आकर ईसाई धर्म का प्रचार किया था। उसी समय से इस क्षेत्र में ईसाई धर्म का स्वतंत्र रूप में प्रसार होता रहा है। उत्तर भारत में अकबर के दरबार में सर्व धर्म सभा में विचार-विमर्श हेतु जेसुइट फ़ादर उपस्थित थे। उन्होंने आगरा में एक चर्च भी स्थापित किया था। इसी काल में ईसाई सम्प्रदाय रोथ ने लैटिन भाषा में संस्कृत व्याकरण लिखा। 16वीं सदी में पुर्तग़ालियों के साथ आये रोमन कैथोलिक धर्म प्रचारकों के माध्यम से उनका सम्पर्क पोप के कैथोलिक चर्च से हुआ। अंग्रेजों के भारत पर अधिकार के साथ शासन के धर्म के सारे लाभ ईसाई धर्म को मिले | भारत में सुदूर पूर्वोत्तर व दक्षिण के कुछ भागों में में ईसाई धर्म का प्रभाव है | मदर टेरेसा द्वारा 1950 में कलकत्ता में शासन की सहायता से स्थापित मिशनरीज और चेरिटी मानवता की सेवा में कार्यरत हैं।भारत में ईसाइयों मूलतः दो प्रकार की धाराएं हैं –
-----गोवा, मंगलोर, महाराष्ट्रियन समूह, जो पश्चिमी विचारों से प्रभावित था परन्तु पूरी तरह भारतीय आचार विचारों से कटा नहीं है |
----तमिल समूह जो ईसाई धर्म में होते हुए भी अपनी प्राचीन भाषा-संस्कृति से जुड़ा रहा है |

         वस्तुतः यह सनातन धर्म या दर्शन, सभ्यता, संस्कृति या जीवन व्यवहार, मानव सभ्यता के अत्यंत उच्चतम शिखर पर स्थित होने पर वैचारिक प्रक्रिया के द्वारा उत्पन्न व प्रतिष्ठित हुआ कि इसे अंतिम सत्य की भांति स्वीकारा गया | इसका ताना-बाना इतना विशाल, बहुरूपवादी, सर्वग्राही, उदार है कि मानवता के सत्य का प्रत्येक विचार, दर्शन, धर्म व तत्व इसके अन्दर समाहित होसकता है व होता आया है, हाँ उसके मानव हितकारी अंश को स्वयं में लय एवं अनिष्टकारी अंश को अस्वीकार करके | यह सतत विकासमान प्रक्रिया का धर्म है | हर युग में, प्रत्येक बार सारे झंझावातों, अनिष्टों, आक्रमणों से जूझकर विजयी भाव में प्रतिष्ठित होता है, क्योंकि इसकी विजय मानवता व मानव मात्र के विजय है |  
        देश की स्वतन्त्रता के पश्चात विश्व स्थित व वैश्विक-राजनीति के अनुसार भारत एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है आज यहाँ विश्व के प्रत्येक धर्म व देश के निवासी अपने अपने धार्मिक विश्वासों के अनुसार रह रहे हैं जो सनातन धार्मिक विश्वास के अनुसार इसी मूल सनातन धर्म की विकृतियाँ, शाखाएं, प्रशाखाएं हैं जो अपने मूल से दिग्भ्रमित या नवोन्मेषी भाव में उत्पन्न होती हैं | यह धार्मिक निरपेक्षता वस्तुतः उसी सनातन भारतीय धर्म का ही मूल-भाव है | विश्व में आज भारतीय संस्कृति, सभ्यता व धर्म का पुनः डंका बजने लगा है | हिन्दू व सनातन-धर्मियों के जाग्रत व क्रियाशील होते जाने एवं गरीबी, अशिक्षा के निराकरण के साथ भारत में सनातन धर्म का पुनर्जागरण होरहा है जो एक बार पुनः विश्व को दिशा प्रदान करेगा सदा की भांति |

फ़ॉलोअर

मेरे द्वारा की गयी पुस्तक समीक्षा--डॉ.श्याम गुप्त

  मेरे द्वारा की गयी पुस्तक समीक्षा-- ============ मेरे गीत-संकलन गीत बन कर ढल रहा हूं की डा श्याम बाबू गुप्त जी लखनऊ द्वारा समीक्षा आज उ...