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शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2013

ब्रज बांसुरी" की रचनाएँ ....भाव अरपन ..दस -द्रौपदी की पतियाँ .. ....डा श्याम गुप्त....



            ब्रज बांसुरी" की रचनाएँ .......डा श्याम गुप्त ...
              
                     मेरे शीघ्र प्रकाश्य  ब्रजभाषा काव्य संग्रह ..." ब्रज बांसुरी " ...की ब्रजभाषा में रचनाएँ  गीत, ग़ज़ल, पद, दोहे, घनाक्षरी, सवैया, श्याम -सवैया, पंचक सवैया, छप्पय, कुण्डलियाँ, अगीत, नवगीत आदि  मेरे अन्य ब्लॉग .." हिन्दी हिन्दू हिंदुस्तान " ( http://hindihindoohindustaan.blogspot.com ) पर क्रमिक रूप में प्रकाशित की जायंगी ... .... 
        कृति--- ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा में विभिन्न काव्यविधाओं की रचनाओं का संग्रह )
         रचयिता ---डा श्याम गुप्त 
                     ---   सुषमा गुप्ता 
प्रस्तुत है .....भाव अरपन ..दस ...द्रौपदी की पतियाँ .....


 
सुमन १-
हे धरमराज !
मैं बंधन में हती ,
समाज औ संस्कार के हित 
दिनरात खटति रही 
गेह-कारज हेतु,
परिवार पति पुरुष की सेवा में |
आजु मैं स्वतंत्र हूँ-
बड़ी कंपनी  की सेवा में नियुक्त हूँ ,
आपुनि इच्छा ते दिन रात खटति हूँ 
कंपनी के लें ,
अन्य पुरुषन  के संग या अधीन
कंपनी सेवा के हित में |
सुमन २.
हे भीम !
मैं बंधन में हती , परिवार के,
परवार के शोसन औ हिंसा के 
सिकार के हेतु|
आजु मैं मुक्त हूँ 
पाठसालाओं,  क्लब, बाजारनि  में ,
दफ्तर औ राजनीति की गलियन में -
शोषण, हिंसा और वलात्कार के लें |
सुमन-३ ..
हे बृहन्नला !
मैं बंधन में हती,
दिन राति खटति रही,
पति-पुरुष की गुलामी मैं |
अब मैं स्वाधीन हूँ,
सिनेमा, टीवी कलाकार हूँ,
दिना देखूं न रात 
हाड़ तोड़ श्रम करूं हूँ,
अंग प्रदर्शन हू,
पैसा -पुरुष की गुलामी में |
सुमन -४ 
हे नकुल !
मैं बंधन में हती,
धर्म, संसकृति, सुसंसकार की
धारक कौ चोला ओढि कें,
आजु मैं सुतंत्र हूँ -
लाजु औ हया के बसननि कौ
चोला छोडि कें |
सुमन-५..
हे सहदेव !
मैं बंधन में हती,
संस्कृति, संस्कार, सुरुचि के -
परिधान कंधा पै धारिकें |
अब मैं स्वाधीन हूँ,
हंसी-खुशी वस्त्र उतारि कें |
सुमन ६-..
माते कुंती !
तिहारी  बहू बंधन में हती,
बंटिकें -
माता, बिटिया ,पत्नी के रिस्तनि  में |
अब वो सुतंत्र है ,
बंटिवे के लें किश्तन में|
सुमन-७...
दुर्योधन!
ठगे रहि  गए हते, तुम, देखिकें -
'नारी बीच सारी है,
कि सारी बीच नारी है |'
आजु कलजुग में हू ,
सफल नहीं है पाओगे ...
सारी हीन नारी देखि-
ठगे रहि जाओगे |
सुमन-८ ..
सखा कन्हैया !
द्वापर में एक ही दुरजोधन हतो,
द्रोपदी की लाजु बचाय पाए |
आजु डगर-डगर, वन-बाग़, चौराहेनि पै,
दुरजोधन ठाड़े हैं ,
कौन-कौन कों सारी पहिराओगे ?
सोचूँ हूँ - अब की बेरि-
अवतार कौ जनमु लैकें न आऔ,
मानुष के मानस में ,
संस्कार बनिकें ,
उतरि जाऔ |
                          ---क्रमश भाव अरपन ११ ...घनाक्षरी छंद  .....अगले अंक में ...

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

कहानी साहित्य की – कविता जन से दूर क्यों ....डा श्याम गुप्त ...

                                    
  कहानी साहित्य की – कविता जन से दूर क्यों ....

                            

           यह कहानी है या आलेख, मैं स्वयं समझ नहीं पारहा हूँ,  सुनने पढ़ने वाले व विज्ञ साहित्यकार स्वयं निश्चय करें |  कविता जन से क्यों दूर हुई है? ...यूं तो भौतिकवादी जीवन की भागदौड़, बाजारवाद आदि तमाम कारण हैं परन्तु यह कहानी साहित्य की है |  आज साहित्य जगत में अज्ञान, भ्रम व प्रमाद व गुरुता -बोध का पर्याप्त बोलबाला है|  अधिकाँश कवि, साहित्यकार, साहित्याचार्य, मठाधीश ...न छंद का अर्थ समझ रहे हैं न काव्य में हिन्दी भाषा व व्याकरण  आदि के समुचित ज्ञान की आवश्यकता को प्रश्रय दे रहे हैं |  न वे काव्य के मूल... भावपक्ष—कथ्य, विषय व सत्य व सहज कथ्यांकन द्वारा स्पष्ट भाव-सम्प्रेषण एवं मानव-आचरण के सरोकारों की अनिवार्यता पर ही ध्यान देरहे हैं|  अधिकाँशतः छंदों, ग़ज़लों, गीतों आदि के तकनीकी पक्ष की घिसी-पिटी लीक पर बिना किसी नवीन गति व प्रगति की ललक के अथवा नए नए शब्दाडम्बर युक्त क्लिष्ट कथ्यों युक्त रचनाओं में आत्म-मुग्ध हैं फलतः तुलसी, रहीम, कबीर,जैसे युगकाव्य; भारतेंदु युग जैसी प्रगतिशीलता : प्रसाद, महादेवी, पन्त, मैथिली शरण गुप्त जैसे सौन्दर्ययुक्त, दर्शन व सरोकार एवं निराला जैसी गति-प्रगतिशील कविता का सृजन कहाँ हो पा रहा है |
           मैंने तमाम नयी-पुरानी संस्थाओं के समारोहों, गोष्ठियों भाग लिया|  अंतर्जाल पर फैले तमाम काव्य व साहित्य के चिट्ठों, सामूहिक ब्लागों का सदस्य बना और देखा कि मूलतः साहित्य खांचों में बंटा हुआ है| कवि-साहित्यकार की अपेक्षा गीतकार, गज़लकार, नवगीतकार, छंदकार, व्यंगकार, कहानीकार, दलित कथाकार, महिला कथाकार हैं|  कवि का, साहित्यकार का बिखंडन हो चला है |  
          कोई छंद के विशाल कलेवर को समझे बिना सिर्फ छंदीय-विधा की साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था बनाए बैठा है तो कोई सिर्फ ‘सनातनी छंद’ का ब्लॉग सजाये बैठा है, सनातन का अर्थ जाने बिना | वे प्रायः छंद का अर्थ सिर्फ तुकांत मुक्तक छंदों...सवैया, कुण्डलिया, दोहा अदि से समझते हैं|  कुछ तो सिर्फ सवैया-घनाक्षरी को ही छंद  समझते हैं |  हर संस्था व ब्लॉग पर एक शास्त्रीजी या गुरु अवश्य होते हैं|  गुरुबोध से निमज्जित उनकी रचनाओं या कथन पर प्रशंसा से अन्य टिप्पणी की अपेक्षा या आवश्यकता अनुभव नहीं की जाती | 
         सिर्फ छंदीय कविता वाली संस्था में एक तथाकथित महत्वपूर्ण कवि से मैंने पूछ लिया, सिर्फ छंदयुक्त कविता ही क्यों ?
        वे बोले,’ अछान्दस कविता, छंदमुक्त कविता ने कविता की बहुत हानि की है |’
        मैंने पूछ लिया,’ क्या कविता कभी बिना छंद के हो सकती है ?’ भई, वे मुक्त-छंद हैं, अतुकांत-छंद ..कविता में .छंद या तुकांत होगा या अतुकांत | फिर निराला द्वारा चलाये गए अतुकांत छंद-कविता को क्यों इतना प्रश्रय मिला कि विश्व भर में मान्य है |’
       ‘नहीं मिलना चाहिए था|’ उनका उत्तर था |
       ‘यह तो समय ही निश्चित करता है, आप चार लोग थोड़े ही |’  मैंने कहा | अब वे मुझे अपने समारोह अदि में आमंत्रित नहीं करते|
       सनातनी छंद ब्लॉग वालों से मैंने पूछा, ‘पांडेजी ! ये सनातनी छंद का क्या अर्थ है?
       ‘जो दंडी, भामह आदि आचार्यों द्वारा स्थापित पिंगल- निश्चित छंदानुशासन के अनुसार हों,’ पांडेजी बोले | ‘घनाक्षरी, सवैया, कुण्डलिया जेसे शास्त्रीय छंद |’
       ‘दंडी, भामह अदि ने स्वयं कितनी काव्य-रचनाएँ की हैं? मैंने कहा |...और फिर आचार्यों ने तो छंद की एक कोटि मुक्तछंद को भी माना है|’ वे नाराज होगये, बोले, यह कुतर्क है आचार्यों का अपमान |
      ‘क्या ये छंद ऋग्वेद में वर्णित हैं ? मैंने पुनः एक अन्य कविवर से प्रश्न किया जो ज्योतिषाचार्य भी हैं..’ हमारी सनातन संस्कृति तो वेदों से है| वेदों में तो सारे मन्त्र व ऋचाएं अतुकांत हैं| अतः अतुकांत छंद व कविता वास्तव में सनातनी हुई, तुकांत छंद तो बाद में आये |
              मैंने अपने नवीन स्वनिर्मित छः पंक्तियों वाले  ‘श्याम सवैया छंद’ का रसपान कराया तो वे उसमें गण ढूँढने लगे काव्य के मूल तत्व ..गेयता, लय ,यति, गति हैं या नहीं पूछने पर उत्तर नदारद, बोले, पिंगल के बिना छंद को हम छंद नहीं मानते | कहने लगे आजकल हर एरा-गैरा बिना छंद नियम जाने कविता छांट रहा है |
             उचित ही है, मैंने कहा, ‘पर न मानने का अर्थ न होना थोड़े ही है वह भी कौन निश्चय करेगा कि क्या सही है, सिर्फ आप ही तो नहीं |’
            वाजपेयी जी कहने लगे,’वेद ही अंतिम सत्य है | उसके विरुद्ध न चलना अपराध है |’
            मैंने उन्हें याद दिलाया कि फिर तो वेदों की अतुकांत परम्परा के विरुद्ध चलकर तुकांत-छंदों  के सृजनकर्ता आचार्यों ने अपराध किया है |  फिर हंसते हुये कहा कि, ये कुण्डली छंद तो दोहा-रोला का मिश्र छंद है निश्चय ही उनके बाद में सृजित हुआ होगा किसी कवि के द्वारा | सनातनी तो हो ही नहीं सकता | भैया ! पुरातननता, सनातनता निश्चय ही माननीय हैं क्योंकि वे पदचिन्ह हैं, अनुभव हैं पुरखों के परन्तु काव्य व साहित्य भी गतिशील हैं समाज की भांति, यदि आप पुरा छंदों में ही रत रहेंगे, उसी घिसी-पिटी लीक पर और नए छंद नए नियम सृजित नहीं होंगे तो नए पदचिन्ह कैसे बनेंगे प्रगतिपथ की ओर |’ निरुत्तरता की स्थिति में वे भड़क गए| मैंने अपने फेसबुक से वह ब्लॉग ही हटा दिया | जहां मति ही नहीं वहां तुलसी बाबा की ‘कु’ या ‘सु‘ मति की बात ही नहीं उठती |
        ग़ज़ल वाले एक अन्य सामूहिक ब्लोग का भी मैं सदस्य बना | कुछ छुटभैये इधर-उधर से नक़ल किये हुए ग़ज़ल के नीति-नियम के आलेख लिख रहे थे और वही बहर, वज्न, तक्तीअ, लफ्ज़ को गिराने उठाने आदि में लिपटे पड़े थे |  मुझे वहां से भी भागना पडा |
       मुझे याद आता है कि छंदों वाले एक अच्छे ब्लॉग पर एक सुन्दर कविता प्रकाशित की गयी , प्रशंसाएं भी हुईं | ब्लॉग संचालक व  सारे सदस्य उसमें छंद  ढूँढने लगे, नहीं मिला ...तो मैंने कहा ...
                              किसी भी छंद में फिट बैठता नहीं है |
                              ख़ास छंद की खासियत यही है |


              प्रश्न पूछने, तर्क करने, आलोचना, नवीनता की बात, सत्य तथ्य व कथ्यों की बात एवं प्रगतिशीलता का आग्रह आदि के कारण अब तक जाने कितने ब्लोगों आदि की सदस्यता को मैंने छोड़ा है, भागा हूँ, हटाया व निकला गया हूँ | कुछ साहित्यिकार-ठेकेदार मुझे भटका हुआ कहते हैं | तमाम संस्थाएं मुझे अपने समारोहों के आमंत्रण पत्र भेजने में कतराती हैं|समाचार पत्र मुझे छापते ही नहीं उन्हें रेटिंग चाहिए चटपटे रचनाओं खबरों द्वारा , कड़ी प्रतिक्रया नहीं | अंततः मैंने अपने स्वयं के चिट्ठों व साहित्य सृजन में व्यस्त रहने का फैसला लिया है|
            आज वास्तव में साहित्य की दशा यह है कि अधिकाँश कवि व साहित्यकार या तो विशेष खांचों में बंटी विधाओं में लिख रहे हैं या उल-जुलूल निरर्थक छंद –सवैये आदि या क्लिष्ट शब्दाम्बर पूर्ण  काव्य रचना कर रहे हैं जिसे अपने अपने ग्रुप से अन्यथा कोई जन सामान्य न पढ़ता है न समझता है | फलतः जनता व समाज हास्य-व्यंग्य के चुटुकुलों, नेताओं पर व्यंग्य जैसी कविताओं में ही आनंद खोजने में व्यस्त हैं और वास्तविक कविता रो रही है |
             यद्यपि एसा नहीं है कि अच्छे ज्ञानी, विद्वान्, साहित्यकार, ब्लॉग, संस्थाएं हैं ही नहीं | तमाम संस्थाएं, ब्लॉग, साहित्यकार ऐसे भी हैं जो सभी प्रकार की रचनाओं को, हर विधा..तुकांत –अतुकांत, गीत, ग़ज़ल, छंद सभी को प्रश्रय व बढ़ावा दे रहे हैं | नवीन विधाओं व प्रयोगों को अस्तित्व में ला रहे हैं | उन्हें किसी से भी विरोध, लगाव या परहेज़ नहीं है और साहित्य के हितार्थ अपने कर्म में लगे हुए हैं|
            साहित्य जन जन तक कैसे पहुंचे व जन सामान्य साहित्य तक कैसे पहुंचे | आदर्श व सत्साहित्य का निर्माण व प्रसार कैसे हो एवं साहित्य समाज का आदर्श कैसे बने? ये सब यक्ष प्रश्न तो हैं ही |
 

रविवार, 20 अक्तूबर 2013

दो छंद ....डा श्याम गुप्त.......

            सवैया..... छलके

छलके सत-शुचि जो विचार रहें, तिनकी भाषा कर्मनि छलके,
छलके शुभ-कर्म की आभा से, आत्मा की शुचिता मन छलके |
छलके तन से भाषा मन की, आनन पै तन-मन दुति छलके |
छलके उर में प्रभु भक्ति की धार, औ नयनन आनंद-रस छलके ||


          कुंडली छंद .....छंद

गति जाने नहीं छंद की, छंद छंद चिल्लाय,
अनुशासन युत कथ्य जो, कविता वही कहाय | 
कविता वही कहाय, भिन्न हो गद्य भाव से,
हो अतुकांत -तुकांत, सजे हों भाव काव्य के |
बस तुकांत ही छंद, भाव यह अल्प-ज्ञान मति,
छान छंद चिल्लाय, छंद की नहीं जाने गति ||

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

कुण्डलिया : प्रेम पात सब झर गये


पीपल अब सठिया गया,रहा रात भर खाँस
प्रेम पात सब झर गये , चढ़-चढ़ जावै साँस

 
चढ़- चढ़ जावै साँस , कहाँ वह हरियाली है
आँख  मोतियाबिंद , उसी की  अब लाली है


छाँह गहे अब कौन , नहीं रहि छाया शीतल
रहा रात भर खाँस, अब सठिया गया पीपल ||


 
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर , दुर्ग (छत्तीसगढ़)
विजय नगर , जबलपुर (म.प्र.)

बुधवार, 9 अक्तूबर 2013

एक अनूठे dhउपन्यास 'इंद्रधनुष' की समीक्षा......

डा श्याम गुप्त के अनूठे उपन्यास 'इंद्रधनुष' की समीक्षा..............





डा श्याम गुप्त के उपन्यास 'इंद्रधनुष'  की समीक्षा ......हिन्दी प्रचारक पत्रिका में ....पढ़ें ....


बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

संकल्प



दुर्मिल सवैया ( 8 सगण l l S)

अधिकार मिले अति भाग खिले, नहिं दम्भ दिखे प्रण आज करो
करना  नहिं  शासन  ताकत से , दिल पे  दिल से बस राज करो
कब  कौन  कहाँ  बिछड़े बिसरे , लघु कौन यहाँ ,गुरु कौन यहाँ
उसकी  फुँकनी  सुर  साज  रही , वरना  हर साज त मौन यहाँ ||

प्रण  आज  करो  सब  एक  रहें , नहिं  भेद  रहे  तुझमें  मुझमें
उसके  शुभ  अंश  बँटे  सब में  ,  जल में  थल में  इसमें  उसमें
दिन  चार  मिले  कट तीन गये , बस  एक बचा बरबाद न हो
किस काम क जीवन हाय सखे, यदि जीवन में मधु स्वाद न हो ||

अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
शम्भूश्री अपार्टमेंट, विजय नगर, जबलपुर ( मध्य प्रदेश)

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मेरे द्वारा की गयी पुस्तक समीक्षा--डॉ.श्याम गुप्त

  मेरे द्वारा की गयी पुस्तक समीक्षा-- ============ मेरे गीत-संकलन गीत बन कर ढल रहा हूं की डा श्याम बाबू गुप्त जी लखनऊ द्वारा समीक्षा आज उ...