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सोमवार, 8 जुलाई 2013

अरुण निगम के दोहे :



जल  वे  भरने    गये   ,  जलवे  लेकर  साथ
नल  की  साँसें  थम  गई , खाली  गगरी  हाथ  |

नल  नखरे  दिखला  रहा , चिढ़ा रहा नलकूप
पल  भर में  मुरझा  गया , निखरा निखरा रूप |

ताल - तलैया  शुष्क थे  , नल की थी  हड़ताल
नयनों का जल छलकता, काजल बहता गाल  |

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पानी  पानी  हो  गई  ,   ऐसी  आई  लाज
घूंघट पट खोला नहीं  , सैंया  हैं  नाराज |

देख सकी पनघट नहीं, कैसे भरती नीर
घूंघट  ही   बैरी  हुआ , कासे  कहती  पीर |

घूंघट पट पलटा गई ,  ऐसी  चली  बयार
निर्निमेष  पिय  देखते , सूरत  पानीदार |
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10 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार ८ /७ /१ ३ को चर्चामंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां हार्दिक स्वागत है ।

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  2. बहुत सुन्दर दोहे रचे हैं आपने भाई अरुण निगम जी।

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  3. देख सकी पनघट नहीं, कैसे भरती नीर
    घूंघट ही बैरी हुआ, कासे कहती पीर |

    सुंदर दोहे हैं ..बधाई आपको !

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुंदर दोहे है, बधाई आपको

    यहाँ भी पधारे ,
    रिश्तों का खोखलापन
    http://shoryamalik.blogspot.in/2013/07/blog-post_8.html

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  5. 'पानी पानी' हो गई, लिख कर किया कमाल |
    'जल' कर'जल' को मांगते, रसिक बिहारी लाल |....... क्या खूब लिखा है मान्यवर

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  6. टीला टीली घोड़ चढ़, लिए सत फेरी फेर ।
    ढाई घर ढिलाई के , ढाई मैं भए ढेर । ५ ६ ।

    भावार्थ : -- टीला और टीली ने घोड़ चढ़ी कर सात फेरे ले लिए । ढाई घर चलने के पश्चात गत बंधन शिथिल पढ़ गया शेष ढाई घर में तो ढेर ही गए ॥

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  7. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज बुधवार (10-07-2013) को निकलना होगा विजेता बनकर ......रिश्तो के मकडजाल से ....बुधवारीय चर्चा-१३०२ में "मयंक का कोना" पर भी है!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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