मित्रों!
अभी तक आप सबने दोहा छन्द पर एक से एक
बढ़िया पोस्ट लगायीं। आप सभी रचनाधर्मियों को हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ।
अब इस क्रम में कल सोमवार
(15-07-2013) से दोहा से ही सम्बन्धित कुण्डलिया छन्द की शुरूआत की जा रही है।
मुझे आशा ही नहीं अपितु विश्वास भी है कि
आपके योगदान से स्वयं मुझे, आप सभी योगदानकर्ताओं और पाठकों को भी बहुत कुछ
सीखने को मिलेगा।
यहाँ यह भी उल्लेख करना चाहूँगा कि हमारे
सहयोगियों में श्री दिनेश चन्द्र गुप्ता “रविकर” जैसा कुण्डलियों का पुरोधा है। जिसने
3000 से अधिक कुण्डलियों की रचना की है।
अपनी अल्पबुद्धि के अनुसार कुण्डलिया के बारे में अपना मत प्रस्तुत कर
रहा हूँ।
अधिकांश विद्वान कुण्डलिया छन्द की परिभाषा निम्नवत् देते हैं-
कुण्डलिया मात्रिक छंद है।
दो दोहों के बीच एक रोला मिला कर कुण्डलिया बनती है। पहले दोहे का अंतिम चरण ही
रोले का प्रथम चरण होता है तथा जिस शब्द से कुण्डलिया का आरम्भ होता है, उसी शब्द से कुण्डलिया समाप्त भी होता है। परन्तु
यह मेरी समझ के बाहर है। क्योंकि यह तर्क परिभाषा की कसौटी पर खरा नहीं उतरता
है।
यह बिल्कुल सत्य है कि कुण्डलिया छन्द का प्रारम्भ दोहे से ही होता है।
जिसके प्रथम और तीसरे चरण में 13 मात्राएं और दूसरे तथा चौथे चरण में 11
मात्राएँ होती हैं। परन्तु अन्तिम दो पंक्तियों को हम दोहे की श्रेणी में नहीं
रख सकते क्योंकि इसके प्रथम और तीसरे चरण में 11 मात्राएं और दूसरे तथा चौथे चरण
में 13 मात्राएँ होती हैं। इसे हम सोरठा या रोला भी कह सकते हैं परन्तु दूसरे और
अन्तिम चरण के वर्ण दीर्घ होने चाहिएँ। जिससे की छन्द की लय और गेयता बनी रहे।
कुण्डलिया छन्द में जिस शब्द से कुण्डलिया का आरम्भ होता है, उसी शब्द से कुण्डलिया समाप्त भी होता है। इसमें
कुण्डलिया का बहुत बड़ा रहस्य छिपा है। सत्य तो यह है कि इसी से इसका कुण्डलिया
नाम पड़ा है।
सर्प जब कुण्डली बना कर बैठता है तो उसका मुँह और पूँछ बिल्कुल पास में
होते हैं। सम्भवतः काव्यशास्त्र के मनीषियों ने इससे प्रेरणा लेकर ही इसका नाम कुण्डलिया
रखा होगा और इसकी उत्पत्ति की होगी।
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इस क्रम में आज प्रस्तुत कर रहा हूँ
स्वरचित दो कुण्डलियाँ!
(1)
केशर-क्यारी को सदा, स्नेह सुधा से सींच।
पुरुष न होता उच्च है, नारि न होती नीच।।
नारि न होती नीच, पुरुष की खान यही है।
विडम्बना की बात, इसे सम्मान नहीं है।।
कह ‘मयंक’ असहाय, नारि अबला-दुखियारी।
बिना स्नेह के सूख रही यह केशर-क्यारी।।
(2)
दिल मिल जाएँ परस्पर, समझो तभी बसन्त।
पल-प्रतिपल मधुमास है, समझो आदि न अन्त।।
समझो आदि न अन्त, खिलेंगे सुमन मनोहर।
रखना इसे सँभाल, प्यार अनमोल धरोहर।।
कह ‘मयंक’ कविराय, हृदय में चाह जगाएँ।
ऐसे करें उपाय, जगत में दिल मिल जाएँ।।
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ati sunder
जवाब देंहटाएंबहुत खूब,सुंदर प्रस्तुति,,,, कुंडलियाँ लिखने की कोशिश कर आपको भेजता हूँ !!!
जवाब देंहटाएंRECENT POST : अपनी पहचान
गुरु जी प्रणाम
जवाब देंहटाएंलाजवाब कुण्डलिया
तस्वीर तो और भी लाजवाब
आदरणीय शास्त्री जी, कुण्डलिया छंद के बारे में बहुत ही उपयोगी जानकारी प्रस्तुत की गई है.
जवाब देंहटाएंमेरी जानकारी के अनुसार एक दोहा और एक रोला का मेल कुण्डलिया छंद होता है. दोहा दो पंक्तियों में लिखा जाता है किंतु इसके चार चरण होते हैं. इसी प्रकार रोला चार पंक्तियों में लिखा जाता है किंतु इसके आठ चरण होते हैं.दोहा में 13 और 11 मात्रायें होती हैं.[विषम चरण में 13 तथा सम चरण में 11 मात्रा]
रोला में 11 और 13 मात्रायें होती हैं.[विषम चरण में 11 तथा सम चरण में 13 मात्रा]
सादर........
जी अरुण जी!
जवाब देंहटाएंअब शुद्ध कर दिया है।
आपका आभार!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति....
जवाब देंहटाएंआदरणीय गुरूदेव बहुत ही उपयोगी जानकारी उपलब्ध करायी है आपने! हम सभी को इससे बहुत लाभ होगा।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंबहुत खूब,सुंदर प्रस्तुति,,,
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