(१)
सुन्दरियाँ इठला रहीं, रन वर्षा के साथ।
अंग प्रदर्शन कर रहीं, हिला-हिला कर हाथ।।
हिला-हिला कर हाथ, खूब मटकाती कन्धे।
खुलेआम मैदान, इशारे करतीं गन्दे।।
कह मयंक कविराय, हुई नंगी बन्दरियाँ।
लाज-हया को छोड़, नाचती हैं सुन्दरियाँ।।
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(२)
आई कैसी सभ्यता, फैला कैसा रोग।
रँगे विदेशी रंग में, भारत के अब लोग।।
भारत के अब लोग, चले हैं राह वनैली,
उपवन में उग रही, आज है घास विषैली।।
कह मयंक कविराय, वतन में आँधी छाई।
घटे बदन के वस्त्र, सभ्यता कैसी आई।।
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बढ़िया
जवाब देंहटाएंनव रचनाकार के सीखने के लिए आदर्श- कुण्डलियाँ छंद-
*बारमुखी देखा सुखी , किन्तु दुखी भरपूर
इधर उधर हरदिन लुटी, जुटी यहाँ मजबूर
जुटी यहाँ मजबूर, करे मजदूरी थककर
लेती पब्लिक घूर, सेक ले आँखें जी भर
मुश्किल है बदलाव, यही किस्मत का लेखा
सहमति का व्यवसाय, बारमुखि रोते देखा
* वेश्या / बार-बाला
रविकर---- कुण्डलियाँ छंद- अशुद्ध शब्द है...या तो कुण्डलियाँ.. होगा... या कुण्डलिया छंद ...
हटाएं--- एकदम शुद्ध आदर्श में तो ..अंत में बारमुखी..आना चाहिए...
सटीक !
जवाब देंहटाएंwaaaaaaaaaaah khub
जवाब देंहटाएंबहुत खूब सटीक रचना ,,,
जवाब देंहटाएंRECENT POST: तेरी याद आ गई ...
बहुत सटीक खुबसूरत अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंlatest post हमारे नेताजी
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वाह .....क्या बात है शास्त्रीजी....नंगी बंदरियां....बहुत खूब व सटीक....
जवाब देंहटाएंबढ़िया कुंडली लाये हैं थोड़ा सा बस थोड़ा सा भाषा पर ध्यान रख लें। नंगी बंदरियां शब्द अखरता है। साहित्यिक शब्दावली ही लायें कुंडलियों में।
जवाब देंहटाएंबढिया कुडलियां विषय भी समयानुकूल ।
जवाब देंहटाएंउम्दा पंक्तियाँ
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