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मंगलवार, 1 जुलाई 2025

चिकित्सक दिवस पर एक कहानी ------- -पाल ले इक रोग नादां ---डॉ. श्याम गुप्त ---

 


चिकित्सक दिवस पर एक कहानी ---डॉ. श्याम गुप्त ----------------------------------------- -

                      



पाल ले इक रोग नादां . ..        

          अभी हाल में ही एक ख़ास मित्र, बैचमेट, सीटपार्टनर, क्लासफेलो से भेंट हुई, वार्तालाप का कुछ अंश यूं है--

    हैं, रिटायर होगये हो !

    हाँ भई |

    लगते तो नहीं हो..(मुस्कान ), अब क्या कर रहे हो? कुछ ज्वाइन किया ।

    नहीं, अब मैं कविता व साहित्य का डाक्टर बन गया हूँ ।

    अरे वाह ! तो मेरी सौत को अब तक साथ लगाए हुए हो, .ही...ही...ही...तभी वैसे के वैसे ही हो | पर आजकल कविता को पूछता ही कौन है, रमा की पूछ है हर तरफ | कोई पढ़ता भी है तुम्हारी कविता ?

    यह तो सच कहा, तुमने  |

    सच है , आज कविता जन-जन से दूर होगई है और जन, जीवन से| हम लोग कठिन अध्ययन-अध्यापन के साथ भी कितना पढ़ते थे साहित्य को, प्रसाद, निराला, महादेवी पर वाद-विवाद भी...| मुझे लगता है आज समाज में सारे दुःख-द्वंद्वों का एक मुख्य कारण यह भी है कि हम साहित्य से दूर होते जारहे हैं |

      कितना सच कहा रमा ने | एक विचार सूत्र की उत्पत्ति हुई मन में| अपने कथन, वाक्यों, उक्तियों से न जाने कितने कविता, कथा, आलेखों के सूत्र दिए हैं रमा ने मुझे | आवश्यक नहीं कि विचार-सूत्र किसी विद्वान, ज्ञानी या अनुभवी बडे लोगों के विचार ही दें, अपितु किसी भी माध्यम से मिल सकते हैं--बच्चों, युवाओं व तथाकथित अनपढ लोगों के माध्यम से भी ।  प्रेरक-प्रदायक सूत्र तो मां सरस्वती, मां शारदे, मां वाग्देवी ही है। मैं सोचता हूँ कि वस्तुतः आज के भौतिकवादी युग के मारा-मारी, भाग-दौड़, अफरा-तफरी, ट्रेफिक-जाम, ड्राइविंग, आफिस-पुराण, एक ही गति में निरंतर भागते हुए, दिन-रात कार्य, परिश्रम, कमाई-सुख-सुविधा-भोग रत आज की पीढी को कविता व साहित्य पढ़ने का अवकाश और आकांक्षा ही कहाँ है |

       विकास की तीब्र गति के साथ हर व्यक्ति को घर बैठे प्रत्येक सुविधा प्राप्ति-भाव तो मिला है परन्तु यह सब स्व-भाषा, स्वदेशी तंत्र के अपेक्षा पर-भाषा व विदेशी तंत्र चालित होने के कारण उसी चक्रीय क्रम में सभी को अपने अपने क्षेत्र में दिन-रात कार्य व्यस्तता व कठोर परिश्रम के अति-रतता भी स्वीकारनी पड़ीं है | एसे वातावरण में आज के पीढी को स्वभाषा कविता व साहित्य पढ़ने, लिखने, समझने, मनन करने की इच्छा, आकांक्षा व ललक ही नहीं रही है | यद्यपि अतिव्यस्तता में भी युवा पीढी द्वारा मनोरंजन के विभिन्न साधन भी उपयोग किये जाते हैं, हास्य-व्यंग्य की कवितायें आदि भी पढी-सुनी जाती हैं; परन्तु जन-जन की स्व-सहभागिता नहीं है, कविता जीवन-दर्शन नहीं रह गया  है | साहित्य--ज्ञान व अनुभव का संकलन व इतिहास होता है जो जीवन की दिशा-निर्धारण में सहायक होता है | शायद अधिकाधिक भौतिकता में संलिप्तता व सांस्कृतिक भटकाव का एक कारण यह भी हो, साहित्य व स्व-साहित्य की उपेक्षा से उत्पन्न स्व-संस्कृति की अनभिज्ञता | 

         और साहित्य व कविता भी तो अब जन जन व जन जीवन की अपेक्षा अन्य व्यवसायों की भांति एक विशिष्ट क्षेत्र में सिमट कर रह गए हैं | वे ही लिखते हैं; वे ही पढ़ते हैं | समाज आज विशेषज्ञों में बँट गया है | विशिष्टता के क्षेत्र बन गए हैं | जो समाज पहले आपस में संपृक्त था, सार्वभौम था, परिवार की भांति, अब खानों में बँटकर एकांगी होगया है।   विशेषज्ञता के अनुसार नई-नई जातियां-वर्ग बन रहे है | व्यक्ति जो पहले सर्वगुण-भाव था अब विशिष्ट-गुण सम्पन्न-भाव रह गया है | व्यक्तित्व बन रहा है, व्यक्ति पिसता जारहा है। जीवन सुख के लिए जीवन आनंद की बलि चढ़ाई जा रही है | यह आज की पीढी की संत्रासमय अनिवार्य नियति है |

          पर मैं सोचता हूँ कि निश्चय ही हमारी आज यह पीढी क्या उचित सहानुभूति व आवश्यक दिशा-निर्देशन की हकदार नहीं है; क्योंकि वास्तव में वे हमारी पीढी की भूलों व अदूरदर्शिता का परिणाम भुगत रहे हैं| अपने सुखाभिलाषा भाव में रत हमारी पीढी उन्हें उचित दिशा निर्देशन व आदर्शों को संप्रेषित करने में सफल नहीं रही |

             इसीलए मैंने तो, जो कोई भी परामर्श के लिए आता है या विभिन्न पार्टी, उत्सव, आयोजनों में, चलिए  डाक्टर साहब, अब आप मिल ही गए हैं तो पूछ ही लेते हैं के भाव में मुफ्त ही....., सभी को यही  परामर्श देना प्रारम्भ कर दिया है कि ...हुज़ूर, कविता पढ़ने व लिखने का रोग पाल लीजिये, सभी रोग-शोक की यह रामवाण औषधि है ..

आप सब का क्या ख्याल है....|

सोमवार, 29 जुलाई 2024

मेरी नवीन प्रकाशित पुस्तक---दिल की बात, गज़ल संग्रह ....डॉ. श्याम गुप्त

              

                दिल की बात, गज़ल संग्रह   का  आत्मकथ्य

 

                     काव्य या साहित्य किसी विशेष, कालखंड, भाषा, देश या संस्कृति से बंधित नहीं होते| मानव जब मात्र मानव था जहां जाति, देश, वर्ण, काल, भाषा, संस्कृति से कोई सम्बन्ध नहीं था तब भी प्रकृति के रोमांच, भय, आशा-निराशा, सुख-दुःख आदि का अकेले में अथवा अन्य से सम्प्रेषण- शब्दहीन इंगितों, अर्थहीन उच्चारण स्वरों में करता होगा |

 

             आदिदेव शिव के डमरू से निसृत ध्वनि से बोलियाँ, अक्षर, शब्द की उत्पत्ति के साथ ही श्रुति रूप में काव्य साहित्य  का आविर्भाव हुआ| देव-संस्कृति में शिव आदिशक्ति की अभाषित रूप में व्यक्त प्रणय-विरह की सर्वप्रथम कथा के उपरांत देव-मानव या मानव संस्कृति की,मानव इतिहास की सर्वप्रथम भाषित रूप में व्यक्त प्रणय-विरह गाथाउर्वशीपुरुरवाकी है | कहते हैं कि सुमेरु क्षेत्र, जम्बू-द्वीप, इलावर्त-खंड स्थित इन्द्रलोक या आज के उजबेकिस्तान की अप्सरा ( बसरे की हूर) उर्वशी, भरतखंड के राजा पुरुरवा पर मोहित होकर उसकी पत्नी बनी

         प्रणय-सुख भोगने के पश्चात उर्वशीगंधर्वों अफरीदियों के साथ अपने देश चली गई और पुरूरवा उसके विरह में छाती पीटता रोता रहा, विश्व भर में उसे खोजता रहा। उसका विरह-रूदन गीत ऋग्वेद के मंत्रों में है, यहीं से संगीत, साहित्य और काव्य का प्रारम्भ हुआ। अर्वन देश (घोड़ों का देश) अरब तथा फारस के कवियों ने इसी की नकल में रूवाइयां लिखीं जाऊँ शायरी कहलाई तत्पश्चात ग़ज़ल आदि शायरी की विभिन्न विधाएं परवान चढी जिनमें प्रणय भावों के साथ-साथ मूलतः उत्कट विरह वेदना का निरूपण है यही गज़ल का अर्थ भी ..अर्थात इश्के-मजाज़ी - आशिक-माशूक वार्ता या प्रेम-गीत, जिनमें मूलतः विरह वियोग की उच्चतर अभिव्यक्ति होती है| इसीलिये ग़ज़ल में शमा-परवाना, गुल-बुलबुल, आदि प्रसंग प्रभावी हुए | यद्यपि जिस प्रकार हिन्दी परम्परा मेंगीत आदि में नायिकानायिका संवोधन, वर्णन, बातचीत, संभाषण, सम्प्रेषणविभिन्न विरहसंयोग भावों का मिलता है यथा-  एरी सखी...कैसे कहूं सखी...कहा कहूं सखी --उर्दू परम्परा में नहीं मिलता, अतः औरतों से औरतों के बारे में बातें के बावजूद ग़ज़लों में इस प्रकार के संभाषण नहीं मिलते।

 

            साहित्य में गजलोँ  का अपना एक अलग ही महत्व है गज़लेँ जीवन के हए पहलू को स्पर्श करती आई हैँ जीवन के हर भाव को अपने शब्दोँ में में बयाँ करती हैँ गज़लेँ। प्रेम शृंगार साकी, मीना सागर इश्के मज़ाज़ी गज़ल का सदैव ही प्रिय विषय रहा है बकौल मिर्ज़ा गालिव

                                       बनती नहीँ है वादा सागर कहे बगैर

             जीवन का सञ्चलन सौन्दर्य,  श्रृंगार में है और स्वयं श्रृंगार का सौन्दर्य आचरण में है, मर्यादा में है विश्व संचालन में मानव आचरण की महत्ता सर्वोपरि है जिसके बिना कुछ नहीं होता| संचरण सञ्चालन प्रवाह प्रचालन, स्थायित्व|अत: साहित्य में  सौंदर्य , शृंगार व विरह क़े वर्णन , कथन, कथोपकथन में भी मर्यादायुत आचरण का अपन ही महत्व है ।

              हर भाषा बोली में  सबसे मीठी बातें होती हैं प्यार-मोहब्बत की और जब ये उर्दू में कही जायें तो इन्हें ग़ज़लकहा जाता है। ग़ज़ल एक ख़ास किस्म की काव्य-विधा है जिसकी शुरुआत अरबी साहित्य में पायी जाती है। अरबी से जब ग़ज़ल फ़ारसी में आयी तो इसमें सूफ़ीवाद और अध्यात्म भी जुड़ गये और हिन्दुस्तान की सरज़मीं पर आते-आते ग़ज़ल की बोली भाषा उर्दू हो गयी। हिन्दुस्तानियों ने ग़ज़ल को पूरी तरह से अपना बना लिया और इसे देवनागरी में भी लिखा जाने लगा तथा  प्रतीकों और संकेतों के ज़रिये भावपूर्ण अभिव्यक्ति करने वाली ग़ज़ल में प्रेम और श्रृंगार के अलावा दर्शनसूफ़ीवाद, अध्यात्मदेशभक्ति, नैतिक सिद्धान्त सभी विषयों पर लिखा जाता है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

                     शृंगार रस से गजल से पूरी तहर सज संवर जाती है तो उसका युवा सौंदर्य बोध का आकर्षक और मनमोहक बन जाता है। सुखद स्थिति है कि गज़लें राजघरानों और कोठों की दुनिया से बाहर गई है और संपूर्ण विश्व के परिदृश्य में अपनी पहचान बना रही है। ...

 

         गज़ल शब्द भारत तथा अरबी रेगिस्तान में पाए जाने वाले एक छोटे, चंचल पशु हिरण ( या हिरणी, मृग-मृगी) से लिया गया है जिसे अरबी में ग़ज़ल (ghazal या guzal ) कहा जाता है| भारत में भी छोटे हिरण कोगज़ेली कहा जाता है | इसकी चमकदार, भोली-भाली नशीली आँखें, पतली लंबी टांगें, इधर-उधर उछल-उछल कर एक जगह टिकने वाली, नखरीली चाल के कारण उसकी तुलना अतिशय सौंदर्य के परकीया प्रतिमान वाली स्त्री से की जाती थी जैसे हिन्दी में मृगनयनी| अरबी लोग इसका शिकार बड़े शौक से करते थे| अतः अरब-कला प्रेम-काव्य में स्त्री-सौंदर्य, प्रेम, छलना, विरह-

2.   

 

वियोग, दर्द का प्रतिमान गज़ल के नाम से प्रचलित हुआ| जैसे भारतीय काव्य-गीतों में वीणासारंग का पीड़ात्मक-भावुक प्रसंग यथा शिकारी द्वारा वीणा वादन स्वर से आकर्षित मृग स्वत: शिकार बन जाता है, अथवा जब कोई शिकारी जंगल में कुत्तों के साथ हिरन का पीछा करता हैं और हिरन भागते-भागते झाड़ी में फंस जाता है और निकल नहीं पाता, उस समय उसके कंठ से एक दर्द भरी आवाज निकलती है, उसी करूण स्वर को गजल कहते हैं इसलिये विवशता का दिव्यतम रूप में प्रकट होना, स्वर का करूणतम हो जाना ही गजल का आदर्श है |

 

                  गजल के मूल स्वर प्रेम, प्रेम की पीर, शृंगार, वस्ल की बातेँ अर्थात इश्के हकीकी से सिक्त प्रस्तुत कृति गज़ल संग्रह  ‘  दिल की बात   प्रबुद्ध पाठकोँ  के मानस कों हर्षित, पुलकित पल्लवित करने में सफल होगी एसी मेरी आशा कामना है

 

                                                                                  ----   डॉ.श्याम गुप्त







                          समर्पण

        उन सभी को,

          जो- 

     दिल के नज़दीक हैँ,

 

       दिल में बसे हुए हैँ,

               

                                

             दिल में बसाये हुए हैँ                              

 

·                

                     आभार

 

    प्रेम की समस्त मूर्त अमूर्त विभूतियोँ का -  

                                                                                               

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