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बुधवार, 28 मई 2014

कितना अच्छा होगा जब....नव गीत ----डा श्याम गुप्त .....

कितना अच्छा होगा जब,
बिजली पानी न आयेगा |

                  ऐसी कूलर नहीं चलेंगे ,
                   पंखा नाच नचाएगा ||

छत की शीतल मंद पवन में,
सोने का आनंद मिलेगा |
जंगल-झाडे के ही बहाने,
 प्रातः सैर को  वक्त मिलेगा |

नदी कुआं और ताल नहर फिर,
जल क्रीडा का सेतु बनेंगे |
शाम-सुबह छत पर, क्रीडाओं-
चर्चाओं के दौर चलेंगे |

                   नहीं चलेंगे फ्रिज टीवी ,
                    डिश-केबुल न आयेगा ||

मिलना जुलना फिर से होगा,
नाते-रिश्तेदारों में |
उठाना बैठना घूमना होगा,
पास पडौसी यारों में |

घड़े सुराही के ठन्डे जल-
की सौंधी सी गंध मिलेगी |
खिरनी फालसा शरवत कांजी ,
लस्सी औ ठंडाई घुटेगी |

                   घर-कमरों में बैठे रहना,
                   शाम समय न भाएगा ||

भोर में मंदिर के घंटों की,
ध्वनि  का सुख आनंद मिलेगा |
चौपालों पर ज्ञान वार्ता,
छंदों का संसार सजेगा |

धन्यवाद है शासन का,
इस अकर्मण्यता का वंदन है
धन्य धन्य हम भारत वासी ,
साधुवाद है अभिनन्दन है |

                      लगता है अब तो यारो,
                      सतयुग जल्दी आजायेगा ||

मंगलवार, 20 मई 2014

सहारा----लघु कथा ---निर्मला सिंह गौर

                                                          
सुमित्रा देवी पति की मृत्यु के बाद बहुत अकेलापन महसूस कर रहीं थी ,दोनो पुत्रों का विवाह पति के सामने ही हो चुका  था ,बड़ा बेटा  सारांश अपनी पत्नी दीपा के साथ अमेरिका में सेटिल  हो गया और छोटा दिव्यांश यहीं दिल्ली में आईटी  सेक्टर में काम करता है,उसकी पत्नी चित्रा भी उसके साथ रहती है और वो भी बैंक में अकाउंटेंट के पद पर कार्यरत है ,जहाँ बड़ी बहू  दीपा का स्वभाव अत्यंत सरल एवं विनम्र है वहीं छोटी बहू चित्रा तेज़ तर्रार और कर्कश स्वभाव की लड़की है ,सुमित्रा देवी बचपन से एक छोटे से गांव की भारतीय संस्कृति के बेहद ट्रेडिशनल परिवार  में पली बढ़ी हैं ,बड़े शहरों की भीड़ और भागम भाग ,लोगों का निर्लिप्त एवं मौका परस्त व्यवहार  उनको कतई  रास नहीं आता था फिर भी अपने मृदुल स्वभाव के कारण  आस-पड़ोस में उनकी  ३-४ हमउम्र महिलाएं उनकी  सहेलियां बन गयीं हैं जहां दिन में दो -तीन  घंटे बैठ कर वो अपने दुःख सुख बाँट लेतीं  हैं। 
उनके पति श्री गंगा धर जी उत्तर प्रदेश के छोटे से पुस्तैनी कस्वे के मिडिल स्कूल  में  हेड मास्टर के पद पर कार्य करते थे और शाम ४ से ६  बजे तक ट्यूशन भी पढाते  थे । उनका समाज में काफ़ी सम्मान एवं रुतवा था,ज़मीन जायदाद भी बहुत थी,जो उनके दो बड़े भाई सम्हालते थे, फसल में उन्हें हिस्सा मिल जाता था, उनके  ही  कुटुंब के कई परिवार पास पास ही बसे थे और आपस में भी बड़ा एका  था ,पत्नी सुमित्रा सभ्रांत परिवार से आई थीं और ग्यारवी पास थीं ।  अपने मधुर स्वभाव से  सबके साथ दूध में पानी की तरह घुल मिल गयीं थी, बड़ों का आदर सत्कार, पर्दा और शगुन संस्कार करने में भी कहीं  कसर नहीं छोड़तीं थी । गंगा धर जी स्वम् को खुशनसीव समझते थे और पत्नी का भी बहुत सम्मान करते थे।
दो वर्ष पूर्व एक मनहूस सुबह वो टहलने के लिए अपने खेत की तरफ गए,और गिर कर बेहोश हो गए ,उनको हृदयाघात हुआ था ,जब तक लोगों ने देखा और अस्पताल पहुँचाया ,उनकी मृत्यु हो चुकी थी।   
गांव में कुछ माह रहने के बाद दीपांश अपनी माँ को दिल्ली ले आया और तब से यहीं रह रही हैं । 
यहाँ अब उनका मन कुछ लगने लगा है,लेकिन सारांश और दीपा उनको अपने साथ अमेरिका में रखना  चाहते हैं,उनका पासपोर्ट भी बन कर आ गया है ,चित्रा  का विपरीत स्वभाव होने के बावजूद वो स्वम् को बहुत एडजस्ट कर रहीं थीं की कहीं उनको विदेश न भेज दिया जाये,हालाँकि बड़ी बहू दीपा से उनकी केमिस्ट्री ज्यादा  मिलती थी फिर भी वो अपनी मिटटी को नहीं छोड़ना चाहतीं थीं। फिर दीपा भी तो वहां नौकरी ही करती है ,अकेले दिन कैसे कटेगा । तरह तरह के ख्याल उनका मन विचलित कर रहे थे,वो यहाँ रहने की ज़िद भी कर लेतीं ,पर आज चित्रा  ने बहुत स्पष्ट तौर  पर कह  दिया कि  जब दो बेटे हैं तो उनको दोनों के पास रहना चाहिए ,दिव्यांश  ने जब हस्तक्षेप किया तो चित्रा ने बेडरूम का दरवाजा बंद करके पति से काफी कहासुनी की ,सुमित्रा देवी हमेशा अपने बच्चों की ख़ुशी के लिए सब कुछ सहन  करती रही हैं,यहाँ तक कि  चित्रा की बदसुलूकी  और  उसके मायके वालों के कठाक्ष  तक  सहती रहीं कि  अगर बेटे को बताएंगी तो पति पत्नी में दरार पड़ेगी,और कहीं बहू  उनको विदेश भेजने   की रट न लगा ले । पर कोई फर्क नहीं पड़ा, अपनी अटैची लगाते वक़्त उनकी आँखे बार बार भर आतीं हैं,रात  की फ्लाइट है, दिव्यांश यहाँ से विदा करने एयर पोर्ट जायेगा और  सारांश वहां एयरपोर्ट पर लेने आ जायगा। १७ -१८  घंटे हवाईजहाज में बैठ कर उनके घुटने भी दर्द करेंगे और वहां उनकी सहेलियां भी नहीं मिलेंगी। लेकिन अब इतना सुनने के बाद वो यहाँ अपने स्वाभिमान को मार  कर कैसे रहें। 
तभी फोन की घंटी बजी ,गांव से फोन आया था ,जेठजी को दिल का दौरा पड़ा था ,अस्पताल में भर्ती हैं ,सुमित्रा देवी को गांव बुलाया है ,पहली बार कोई दुखद खबर उन्हें शुकुन दे गयी 
"भगवान जेठजी को लम्बी उम्र दे" ये शब्द अनायास उनके होठों से निकल पड़े। 
और उन्होंने अपने मन में संकल्प किया कि  अब वो किसी पुत्र के साथ नहीं रहेंगी ,चाहे कोई कितना भी बुलाये । उनके लिए पति की पेंशन ही बहुत है खर्च चलाने को ,और खेती से मिलने वाला हिस्सा अलग ,वो अपने साथ एक अनाथ लड़की का पालन पोषण भी करेंगी जो भविष्य में उनका सहारा बनेगी --सोच कर अनायास उनके अधरों पर मुस्कान खिल पड़ी।।   
निर्मला सिंह गौर

शनिवार, 17 मई 2014

"पंक में खिला कमल" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')



अंक है धवल-धवल।
पंक में खिला कमल।।

हाय-हाय हो रही,
गली-गली में शोर है,
रात ढल गई मगर,
तम से भरी भोर है,
बादलों में घिर गया,
भास्कर अमल-धवल।
अंक है धवल-धवल।
पंक में खिला कमल।।

पर्वतों की चोटियाँ,
बर्फ से गयीं निखर,
सर्दियों के बाद भी,
शीत की चली लहर,
चीड़-देवदार आज,
गीत गा रहे नवल।
अंक है धवल-धवल।
पंक में खिला कमल।।

चाँदनी लिए हुए,
चाँद भी डरा-डरा,
पादपों ने खो दिया
रूप निज हरा-भरा,
पश्चिमी लिबास में,
रूप खो गया सरल।
अंक है धवल-धवल।
पंक में खिला कमल।।

रविवार, 11 मई 2014

"माँ का कर्ज चुकाना है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मित्रों!
कई वर्ष पहले यह गीत रचा था!
पिछले साल इसे श्रीमती अर्चना चावजी को भेजा था।
उसके बाद मैं इसे ब्लॉग पर लगाना भूल गया।
आज अचानक ही एक सी.डी. हाथ लग गई,
जिसमें मेरा यह गीत भी था!
इसको बहुत मन से समवेत स्वरों में मेरी मुँहबोली भतीजियों श्रीमती अर्चना चावजी और उनकी छोटी बहिन रचना बजाज ने गाया है। आप भी इस गीत का आनन्द लीजिए!

तन से, मन से, धन से हमको, माँ का कर्ज चुकाना है।
फिर से अपने भारत को, जग का आचार्य बनाना है।।

राम-कृष्ण, गौतम, गांधी की हम ही तो सन्तान है,
शान्तिदूत और कान्तिकारियों की हम ही पहचान हैं।
ऋषि-मुनियों की गाथा को, दुनिया भर में गुंजाना है।
फिर से अपने भारत को, जग का आचार्य बनाना है।।

उनसे कैसा नाता-रिश्ता? जो यहाँ आग लगाते हैं,
हरे-भरे उपवन में, विष के पादप जो पनपाते हैं,
अपनी पावन भारत-भू से, भय-आतंक मिटाना है।
फिर से अपने भारत को, जग का आचार्य बनाना है।।

जिनके मन में रची बसी, गोरों की काली है भाषा,
ये गद्दार नही समझेंगे, जन,गण, मन की अभिलाषा ,
हिन्दी भाषा को हमको, जग की शिरमौर बनाना है।
फिर से अपने भारत को, जग का आचार्य बनाना है।।

प्राण-प्रवाहक, संवाहक हम, यही हमारा परिचय है,
हम ही साधक और साधना, हम ही तो जन्मेजय हैं,
भारत की प्राचीन सभ्यता, का अंकुर उपजाना है।
फिर से अपने भारत को, जग का आचार्य बनाना है।।

वीरों की इस वसुन्धरा में, आयी क्यों बेहोशी है?
आशाओं के बागीचे में, छायी क्यों खामोशी है?
मरघट जैसे सन्नाटे को, दिल से दूर भगाना है।
फिर से अपने भारत को, जग का आचार्य बनाना है।।

रविवार, 4 मई 2014

ग़ज़ल ज्ञान .. डा श्याम गुप्त ...

ग़ज़ल की कोइ किस्म नहीं होती है दोस्तो|
ग़ज़ल का जिस्म उसकी रूह ही होती है दोस्तो |

हो जिस्म से ग़ज़ल विविध रूप रंग की ,
पर रूह लय गति ताल ही होती है दोस्तों |

कहते हैं विज्ञ कला-कथा ग़ज़ल ज्ञान की ,
यूं ग़ज़ल दिले-रंग ही होती है दोस्तो |

बहरें वो किस्म किस्म की, तक्ती सही-गलत ,
पर ग़ज़ल दिल का भाव ही होती है दोस्तो |

उठना व गिरना लफ्ज़ का, वो शाने ग़ज़ल भी ,
बस धडकनों का गीत ही होती है दोस्तो |

मस्ती में झूम कहदें श्याम ' ग़ज़ल-ज्ञान क्या ,
हर ग़ज़ल सागर ज्ञान का ही होती है दोस्तों ||

शनिवार, 3 मई 2014

चार पंक्तियाँ परिचय हेतु

हैं सुनाने  को  कई  गीत  मगर  साज़ नहीँ,
बात करनी है मगर साथ में आवाज़ नहीं।
अब गिला कैसा और तुमसे शिकायत कैसी,
रूठना क्या जो मनाने का ही रिवाज़ नहीँ।


गुरुवार, 1 मई 2014

"समझदार को मीत बनाओ" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')


सच्चाई में बल होता है,
झूठ पकड़ में है आ जाता।
नाज़ुक शाखों पर जो चढ़ता,
वो जीवनभर है पछताता।

समझदार को मीत बनाओ,
नादानों को मुँह न लगाओ।
बैरी दानिशमन्द भला है,
राज़ न अपना उसे बताओ।
आसमान पर उड़नेवाला,
औंधे मुँह धरती पर आता।
नाज़ुक शाखों पर जो चढ़ता,
वो जीवनभर है पछताता।

उससे ही सम्बन्ध बढ़ाओ,
प्रीत-रीत को जो पहचाने।
गिले भुलाकर गले लगाओ,
धर्म मित्रता का जो जाने।
मन के सागर में पलता है,
वफा-जफा का रिश्ता-नाता।
नाज़ुक शाखों पर जो चढ़ता,
वो जीवनभर है पछताता।

शक्ल सलोनी, चाल घिनौनी,
मुख में राम, बगल में चाकू।
धर्म-गुरू का रूप बनाए,
लूट रहे जनता को डाकू।
मूषक का मन भरमाने को,
हर बिल्ला नाखून छिपाता।
नाज़ुक शाखों पर जो चढ़ता,
वो जीवनभर है पछताता।

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मेरे द्वारा की गयी पुस्तक समीक्षा--डॉ.श्याम गुप्त

  मेरे द्वारा की गयी पुस्तक समीक्षा-- ============ मेरे गीत-संकलन गीत बन कर ढल रहा हूं की डा श्याम बाबू गुप्त जी लखनऊ द्वारा समीक्षा आज उ...