कृष्ण मेघ से कृष्णता, ले केशों में डाल |
उठा दूज का चाँद ज्यों, रचा विधाता भाल |
खिची कमान भोंहें रची, पलक सितारे डाल |
नयन कटीले रख दिए, मृग से नयन निकाल |
तीखी, सीधी और खड़ी, रची विधाता नाक |
रक्तवर्ण, रस से भरे, रचे होंठ रस-पाक |
चिबुक अनारों से रचे , ठोड़ी पर तिल तीन |
दंत पंक्ति दिप-दिप दिपें, ज्यों मोती रख दीन |
ग्रीवा का भी रूप क्या, सुरा भरा सा पात्र |
भुजवल्लरि ऐसी बनी, पुष्प लदे हों मात्र |
उठा हिमालय से धरा, दो शिखरों का भार |
भार धरा कैसे सहे, कृष तन है लाचार |
बांकी बड़ी कटार सा, सौम्य कमर का रूप |
क्षीण सुगढ़ ऐसी लगे, लघुतम धरा स्वरूप |
शिखर भार को साधने, विधना ने अविलम्ब |
विन्द्याचल से धर दिए, उन्नत सुगढ़ नितम्ब |
स्वर्ण-कमल की नाल से, सृजित तुम्हारे पैर |
रूप तलैया डूब कर, कौन सकेगा तैर |
स्वर्णिम तारक से जडित, तन गुलाब की पांख |
निमिष 'राज' तुमको तके, टिक जाती है आँख |
शब्दाभूषण से अहा !! सुंदर सजी सु-नार
जवाब देंहटाएंनिर्निमेष तकता रहा, हतप्रभ खड़ा सुनार ||
हृदय से बधाइयाँ ,आदरणीय राज जी...........
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज बुधवार (10-07-2013) को निकलना होगा विजेता बनकर ......रिश्तो के मकडजाल से ....बुधवारीय चर्चा-१३०२ में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
अति सुन्दर
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