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सोमवार, 26 सितंबर 2016

दोहे "सोचो ठोस उपाय" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

बैरी है ललकारता, प्रतिदिन होकर क्रुद्ध।
हिम्मत है तो कीजिए, आकर उससे युद्ध।।
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बन्दर घुड़की दे रहा, हो करके मग़रूर।
लेकिन शासक देश के, बने हुए मजबूर।।
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गाँधी जी ने कब कहा, हो मिन्नत-फरियाद।
शठ को करवा दीजिए, दूध छठी का याद।।
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पामर करवाता यहाँ, दंगे और फसाद।
करो अन्त नापाक का, दूर करो अवसाद।।
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हाथ जोड़कर तो नहीं, हुआ देश आजाद।
क्रान्तिकारियों ने भरा, जन-गण में उन्माद।।
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आजादी के बाद से, रहा पाक ललकार।
बदले में हम कर रहे, केवल सोच-विचार।।
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आकाओं की भूल से, अब तक हैं बेचैन।
ऐसे करो उपाय अब, रहे चमन में चैन।।
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हठधर्मी से ही हुआ, निर्मित पाकिस्तान।
झेल रहा इस दंश को, अब तक हिन्दुस्तान।।
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बिगड़ा अब भी कुछ नहीं, बन्द करो अध्याय।
सही समय अब आ गया, सोचो ठोस उपाय।। 
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कदम-कदम पर जो सदा, करता है उत्पात।
उस बैरी से अब कभी, मत करना कुछ बात।।
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गुरुवार, 15 सितंबर 2016

गज़लोपनिषद......शुद्ध हिन्दी गज़ल...डा श्याम गुप्त ..

------एक शुद्ध हिन्दी गज़ल.....

***गज़लोपनिषद*****

एक हाथ में गीता हो और एक में त्रिशूल |
यह कर्म-धर्म ही सनातन नियम है अनुकूल |


संभूति च असम्भूति च यस्तदवेदोभय सह ,
सार और असार संग संग नहीं कुछ प्रतिकूल |

ज्ञान व संसार- माया, साथ साथ स्वीकारें ,
यही जीवन व्यवहार है संस्कृति का मूल |

पढ़ें लिखें धन कमायें ,परमार्थ हित साथ हो,
ज्ञान दर्शन धर्म श्रृद्धा के खिलाएं फूल |

किसी के भी धन व स्वत्व का नहीं करें हरण ,
चंचला कब हुई किसकी , जाएँ नहीं भूल |

यही सत जीवन का पथ, मुक्ति, ईश्वर प्राप्ति ‘श्याम,
जीव ! आनंद परम आनंद के हिंडोले झूल ||

सोमवार, 12 सितंबर 2016

बकरीद "कविता-औरों को भी जीने दो" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

बकरे की माँ कब तक, अपनी खैर मना पाएगी।
बेटों के संग-संग, उसकी भी कुर्बानी हो जाएगी।।

बकरों का बलिदान चढ़ाकर, ईद मनाई जाती है।
इन्सानों की करतूतों पर, लाज सभी को आती है।।

यश-गौरव पाना है तो, कुछ अपनी भी कुर्बानी दो।
प्राणों को परवान चढ़ा, राहे-हक़ में बलिदानी हो।

निर्दोषों की गर्दन पे, क्यों छुरा चलाया जाता है?
आह हमारी लेकर, क्यों त्यौहार मनाया जाता है??

हिंसा करना किसी धर्म में, ऩहीं सिखाया जाता है।
मोह और माया को तजना, त्याग बताया जाता है।।

तुम अमृत को पियो भले, औरों को तो जल पीने दो।
खुद भी जियो शान से, लेकिन औरों को भी जीने दो।।

गुरुवार, 8 सितंबर 2016

संतुलित कहानी---डा श्याम गुप्त....

------ संतुलित कहानी -----

--------संतुलित कहानी, कथा की एक विशेष धारा है | इन कहानियों में मूलतः सामाजिक सरोकारों से युक्त कथाएं होती है जिनमें सरोकारों को इस प्रकार संतुलित रूप में प्रस्तुत किया जाता है कि उनके किसी कथ्य या तथ्यांकन, चित्र, बिम्व या वर्णन का समाज व व्यक्ति के मन-मष्तिष्क पर कोई विपरीत अनिष्टकारी प्रभाव न पड़े अपितु कथ्यांकन में भावों व विचारों का एक संतुलन रहे एवं समाज व मानवता के उच्चादर्शों से समन्वित रहे तथा वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक व सामाजिक तथ्यों कथ्यों को इस प्रकार समन्वित भाव में प्रस्तुत किया जाय कि राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक रूप में समतामूलक संतुलन स्थापित का प्रयत्न रहे |
--------जिस प्रकार बहुत सी कहानियों या सिने-कथाओं में सेक्स वर्णन, वीभत्स रस या आतंकवाद-अनाचार, अत्याचार, अपराध, वलात्कार, हिंसा, नारी शोषण व हिंसा, डकैती, लूटपाट, द्वेष-द्वंद्व, चारित्रिक दुर्बलता, षडयंत्रों के जाल आदि के सामान्य, घिनौने या अतिशय चित्रांकन, कथन, वर्णन आदि से जनमानस में उसे नकारात्मक रूप में अपनाने की प्रवृत्ति व्याप्त हो सकती है | अतः संतुलित कहानियों में इन सबके वर्णन, कथ्यांकन, चित्रण, कथोपकथन से बचा जाता है |
--------कथा साहित्य में यह विधा डा रंगनाथ मिश्र सत्य द्वारा १९७५ ई में आतंकवाद की विभीषिका के विरुद्ध स्थापित की गयी | जो हिन्दी जगत में आतंकवाद, अत्याचार, अनाचार व शोषण के विरुद्ध मानवीय-मनोवैज्ञानिक ढंग से वैचारिक-सांस्कृतिक जागृति उत्पन्न करने का विशिष्ट कृतित्व है एवं समाज को भटकाव से बचाने हेतु एक स्तुत्य प्रयास |
--------संतुलित कहानियों के कई संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, यथा संतुलित कहानी के नौ रत्न-१९९६ संतुलित कहानी के पंचादश रत्न-२००२ ---सम्पादन साहित्यभूषण डा रंगनाथ मिश्र सत्य |
---------डा रंगनाथ मिश्र सत्य की कहानी ‘अनंत पिपासा, व केक्टस..मंजू सक्सेना की कथा-;चितकबरी...स्नेहप्रभा की ‘ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया’.. राजेश द्विवेदी की वाह मानव बेड़ा’ क्षमापूर्णा पाठक की ‘अंततोगत्वा’ अनिल किशोर शुक्ल निडर की प्रायश्चित आदि प्रारम्भिक कहानियां है | वर्तमान में गिरिजाशंकर पाण्डेय, राजेन्द्रनाथ सिंह, सुरेन्द्र नाथ, मंजू सक्सेना, डा श्यामगुप्त आदि की संतुलित कथाएं उल्लेखनीय हैं | हाल में ही श्री टेकचंद प्रेमी का कथा संग्रह 'कालदंड' इस श्रेणी की अगली कड़ी के रूप में प्रकाशित व लोकार्पित हुई है |

--प्रस्तुत है एक मेरी संतुलित कहानी ----


------ आठवीं रचना --- ड़ा श्याम गुप्त ------

----कमलेश जी की यह आठवीं रचना थी | अब तक वे दो महाकाव्य, दो खंड काव्य व तीन काव्य संग्रह लिख चुके थे | जैसे तैसे स्वयं खर्च करके छपवा भी चुके थे | पर अब तक किसी लाभ से बंचित ही थे | आर्थिक लाभ की अधिक चाह भी नहीं रही| जहां भी जाते प्रकाशक, बुक सेलर, वेंडर, पुस्तक-भवन, स्कूल, कालिज, लाइब्रेरी एक ही उत्तर मिलता, आजकल कविता कौन पढ़ता है, वैठे ठाले लोगों का शगल रह गया है या फिर बुद्धिबादियों का बुद्धिविलास, न कोई बेचने को तैयार है न खरीदने को | हां नाते-रिश्तेदार, मित्रगण मुफ्त में लेने को अवश्य लालायित रहते हें और फिर घर में इधरउधर पड़ी रहतीं हैं |
----काव्य गोष्ठियों में उन्हें सराहा जाता, तब उन्हें लगता कि वे भी कवि हैं तथा कालिदास, तुलसी, निराला के क्रम की कड़ी तो हैं ही | पर यश भी अभी कहाँ मिल पाया था | बस एक दैनिक अखवार ने समीक्षा छापी थी, आधी-अधूरी | एक समीक्षा दो पन्ने वाले नवोदित अखवार ने स्थान भरने को छापदी थी | कुछ काव्य संग्रहों में सहयोग राशि के विकल्प पर कवितायें प्रकाशित हुईं | पुस्तकों के लोकार्पण भी कराये, आगुन्तुकों के चाय-पान व कवियों के पत्र-पुष्प समर्पण व आने-जाने के खर्च में जेब ढीली ही हुई | अधिकतर रचनाएँ रिश्तेदारों, मित्रों व कवियों में ही वितरित हो गईं | कुछ विभिन्न हिन्दी संस्थानों को भेज दी गईं जिनका कोई प्रत्युत्तर आजतक नहीं मिला जबकि हुल्लड़-हुडदंग वाली कवितायेँ, नेताओं पर कटाक्ष वाली फूहड़ हास्य-कविताओं वाले मंचीय-कवि, मंच पर, दूरदर्शन पर, केबुल आदि पर अपना सिक्का जमाने के अतिरिक्त आर्थिक लाभ से भी भरेपूरे रहते हैं |
----किसी कवि मित्र के साथ वे प्रोत्साहन की आशा में नगर के हिन्दी संस्थान भी गए | अध्यक्ष जी बड़ी विनम्रता से मिले, बोले, पुस्तकें तो आजकल सभी छपा लेते हैं, पर पढ़ता व खरीदता कौन है? संस्थान की लिखी पुस्तकें भी कहाँ बिकतीं हैं | हिन्दी के साथ यही तो होरहा है, कवि अधिक हैं पाठक कम | स्कूलों में पुस्तकों व विषयों के बोझ से कवितायें पढ़ने-पढ़ाने का समय किसे है | कालिज के छात्र अंग्रेज़ी व चटपटे नाविलों के दीवाने हैं, तो बच्चे हेरी-पोटर जैसी यथार्थ कहानियों के | युवा व प्रौढ़ वर्ग कमाने की आपाधापी में शेयर व स्टाक मार्केट के चक्कर में, इकोनोमिक टाइम्स, अंग्रेज़ी अखवार, इलेक्ट्रोनिक मीडिया के फेर में पड़े हैं | थोड़े बहुत हिन्दी पढ़ने वाले हैं वे चटपटी कहानियां व टाइम पास कथाओं को पढ़कर फेंक देने में लगे हैं | काव्य, कविता, साहित्य आदि पढ़ने का समय-समझने की ललक है ही कहाँ |
----पुस्तक का शीर्षक पढ़कर अध्यक्ष जी व्यंग्य मुद्रा में बोले, " काव्य रस रंग” अच्छा है पर शीर्षक देखकर इसे खोलेगा ही कौन | अरे ! आजकल तो दमदार शीर्षक चलते हैं, जैसे- 'शादी मेरे बाप की', ईश्वर कहीं नहीं है’, ‘नेताजी की गप्पें', ‘राज-दरवारी’ आदि चौंकाने वाले शीर्षक हों तो इंटेरेस्ट उत्पन्न हो |
---- वे अपना सा मुंह लेकर लौट आये | तबसे वे यद्यपि लगातार लिख रहे हैं, पर स्वांत- सुखाय; किसी अन्य से छपवाने या प्रकाशन के फेर में न पड़ने का निर्णय ले चुके हैं | वे स्वयं की एक संस्था खोलेंगे | सहयोग से पत्रिका भी निकालेंगे एवं अपनी पुस्तकें भी प्रकाशित करायेंगे | पर वे सोचते हैं कि वे सक्षम हैं, कोई जिम्मेदारी नहीं, आर्थिक लाभ की भी मजबूरी नहीं है | पर जो नवोदित युवा लोग हैं व अन्य साहित्यकार हैं जो साहित्य व हिन्दी को ही लक्ष्य बनाकर ,इसकी सेवा में ही जीवन अर्पण करना चाहते हैं उनका क्या? और कैसे चलेगा ! और स्वयं हिन्दी भाषा व साहित्य का क्या ?

मंगलवार, 6 सितंबर 2016

हिन्दी के विरुद्ध षडयंत्र ...डा श्याम गुप्त

              हिन्दी के विरुद्ध षडयंत्र ...डा श्याम गुप्त
 
            स्वतन्त्रता के आन्दोलन के साथ हिन्दी की प्रगति का रथ भी तेज़ गति से आगे बढ़ा और हिन्दी राष्ट्रीय चेतना की प्रतीक बनी| स्वाधीनता आन्दोलन का नेतृत्व यह जानता था कि लगभग १००० वर्षों से हिन्दी सम्पूर्ण भारत की एकता का कारक रही है| संतों, फकीरों, व्यापारियों, तीर्थयात्रियों, सैनिकों आदि के माध्यम से यह भाषा समस्त देश के कोने कोने में प्रयुक्त होती रही है।
        मूलतः हिन्दी को यह मान्यता दिलाने वालों में वे विद्वान् थे जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं थी। यथा बंगाल के केशवचन्द्र सेन, राजा राम मोहन राय, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस; पंजाब के बिपिनचन्द्र पाल, लाला लाजपत राय; गुजरात के स्वामी दयानन्द, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी; महाराष्ट्र के लोकमान्य तिलक तथा दक्षिण भारत के सुब्रह्मण्यम भारती आदि । इस प्रकार हिन्दी भारतीय स्वाभिमान और स्वातंत्र्य चेतना की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गई और राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक |
       हिन्दी को सम्पूर्ण भारत में व्यवहार की भाषा बनाने, सम्पर्क भाषा के रूप में विकसित करने एवं राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिलाने में महात्मा गाँधी महत्वपूर्ण रही | गाँधी जी ने कहाः हिन्दुस्तान को अगर सचमुच एक राष्ट्र बनाना है तो चाहे कोई माने या न माने राष्ट्रभाषा हिन्दी ही बन सकती है। कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में गाँधी जी ने हिन्दी में भाषण दिया, आर्य समाज मंडप,गुजरात शिक्षा सम्मेलनमें गाँधी जी ने हिन्दी का प्रतिपादन किया |
      स्वाधीनता के बाद हिन्दी की घोर उपेक्षा कीगयी क्योंकि तत्कालीन सरकार का विचार था कि हिन्दी को आगे बढ़ाने से दक्षिण भारत के लोगों पर विपरीत प्रतिक्रिया होगी | हिन्दी में वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली के लिए वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग बनाया गया जिसने जटिल, क्लिष्ट एवं अप्रचलित शब्दावली तैयार की । सभी जानते हैं कि शब्द बनाए नहीं जाते, लोक के प्रचलन एवं व्यवहार से विकसित होते हैं|
       क्योंकि यह ध्यान नहीं रखा गया कि शब्दकोश व भाषा सामान्य आदमी को समझ में आ सकें, इस कारण व्यवहार में अंग्रेजी के शब्दों का ही प्रयोग होता रहा। भाषा लोकतंत्र में शासन और जनता के बीच संवाद होती है। इस कारण वह आम आदमी के लिए बोधगम्य होनी चाहिए। वही शब्द सरल एवं बोधगम्य लगता है जो हमारी जबान पर चढ़ जाता है। लोक व्यवहार से भाषा बदलती रहती है। यह भाषा की प्रकृति है।            
हिन्दी भाषा व क्षेत्रीय बोलियाँ ---
         हिन्‍दी भाषा क्षेत्र' के अन्‍तर्गत भारत के निम्‍नलिखित राज्‍य एवं केन्‍द्र शासित प्रदेश समाहित हैं_  उत्‍तर प्रदेश, उत्‍तराखंड, बिहार,  झारखंड, मध्‍यप्रदेश, छत्‍तीसगढ़, राजस्‍थान, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, दिल्‍ली, चण्‍डीगढ़। अतः विभिन्न हिन्दी भाषा-बोलियों को स्वतंत्र भाषा स्वीकारने से पहले यह विचार करना चाहिए कि हिन्दी भाषी राज्यों की बोलियों अवधी, भोजपुरी, ब्रजभाषा, बुन्देली, बघेली, मालवी, निमाड़ी, छत्तीसगढ़ी, गढ़वाली आदि भाषाओं को स्वतंत्रता की क्या आवश्यकता है वे सदैव हिन्दी की ही शाखाएं रही हैं उनका साहित्य सदैव से ही हिन्दी साहित्य समझा, माना जाता रहा है |
         प्रत्‍येक भाषा क्षेत्र में भाषिक भिन्‍नताएँ होती हैं। किसी ऐसी भाषा की कल्‍पना नहीं की जा सकती जो जिस भाषा क्षेत्र' में बोली जाती है उसमें किसी प्रकार की क्षेत्रगत एवं वर्गगत भिन्‍नताएँ न हों। व्‍यक्‍ति बोलियों' के समूह को बोली' तथा बोलियों' के समूह को भाषा कहते हैं।
       भारतीय परम्‍परा ने भाषा के अलग अलग क्षेत्रों में बोले जाने वाले भाषिक रूपों को देस की भाखा अथवा ‘देसी भाषा' के नाम से पुकारा, हिन्‍दी भाषा क्षेत्र में हिन्‍दी की मुख्‍यतः 20 बोलियाँ अथवा उपभाषाएँ बोली जाती हैं जो निम्न वर्गों में रखी जा सकती हैं..
क. पश्‍चिमी हिन्‍दी  खड़ीबोली,  ब्रजभाषा,  हरियाणवी,  बुन्‍देली,  कन्‍नौजी
ख. पूर्वी हिन्‍दी अवधी, बघेली, छत्‍तीसगढ़ी, भोजपुरी, मैथिली, मगही
दक्षिण-मध्य हिन्दी (रास्थानी) मारवाड़ी, मेवाती, जयपुरी, मालवी
घ. उत्तरी हिन्दी या पहाड़ी – कुमाऊँनी, गढ़वाली एवं  हिमाचल प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों की हिन्‍दी बोलियाँ जिन्‍हें केवल  ‘पहाड़ी ' नाम से पुकारा जाता है।
       भारत की भाषिक परम्परा के अनुसार एक भाषा के हजारों भेद माने गए हैं मगर अंतर क्षेत्रीय सम्पर्क के लिए एक भाषा की मान्यता रही है। हिन्दी साहित्य की संश्लिष्ट परम्परा रही है। इसी कारण हिन्दी साहित्य के अंतर्गत रास एवं रासो साहित्य की रचनाओं का भी अध्ययन किया जाता है।
      कुछ समय से हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने का सिलसिला मैथिली एवं छत्तीसगढ़ी से आरम्भ हुआ है| मैथिली को अलग भाषा का दर्जा दे दिया गया है यद्यपि हिन्‍दी साहित्‍य के पाठ्‌यक्रम में अभी भी मैथिली कवि विद्‌यापति पढ़ाए जाते हैं| जबसे मैथिली एवं छत्तीसगढ़ी को अलग भाषाओं का दर्जा मिला है तब से भोजपुरी को भी अलग भाषा का दर्जा दिए जाने की माँग प्रबल हो गई है।
       राजस्थानी भाषा जैसी कोई स्वतंत्र भाषा नहीं है।  यदि राजस्थानी का मतलब केवल मारवाड़ी से लेंगे तो क्या मेवाड़ी, मेवाती, जयपुरी, मालवी, हाड़ौती, शेखावाटी आदि अन्य भाषिक रूपों के बोलने वाले अपने अपने भाषिक रूपों के लिए आवाज़ नहीं उठायेंगे। पहाड़ी भाषाएँ भी हिन्दी के अंतर्गत ही हैं| खड़ी बोली' हिन्‍दी भाषा क्षेत्र का उसी प्रकार एक भेद है ; जिस प्रकार हिन्‍दी भाषा के अन्‍य बहुत से क्षेत्रगत भेद हैं।
          हिन्‍दी भाषा के संदर्भ में विचारणीय है कि अवधी, बुन्‍देली, ब्रज, भोजपुरी, मैथिली आदि को हिन्‍दी भाषा की बोलियाँ माना जाए अथवा उपभाषाएँ माना जाए। सामान्‍य रूप से इन्‍हें बोलियों के नाम से अभिहित किया जाता है| यहाँ यह भी उल्‍लेखनीय है कि इन उपभाषाओं के बीच कोई स्‍पष्‍ट विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती है। प्रत्‍येक दो उपभाषाओं के मध्‍य संक्रमण क्षेत्र विद्‌यमान है।
     हिन्‍दी भाषा का क्षेत्र बहुत विस्‍तृत है। इस कारण इसकी क्षेत्रगत भिन्‍नताएँ भी बहुत अधिक हैं। हिन्‍दी भाषा क्षेत्र के प्रत्‍येक भाग में व्‍यक्‍ति स्‍थानीय स्‍तर पर क्षेत्रीय भाषा रूप में बात करता है। औपचारिक अवसरों पर तथा अन्‍तर-क्षेत्रीय, राष्‍ट्रीय एवं सार्वदेशिक स्‍तरों पर भाषा के मानक रूप अथवा व्‍यावहारिक हिन्‍दी का प्रयोग होता है। उत्तर प्रदेश हिन्‍दी भाषी राज्‍य है परन्तु खड़ी बोली, ब्रजभाषा, कन्‍नौजी, अवधी, बुन्‍देली आदि भाषाओं का क्षेत्र है। इसी प्रकार मध्‍य प्रदेश हिन्‍दी भाषी राज्‍य है परन्तु बुन्‍देली, बघेली, मालवी, निमाड़ी आदि भाषायें सम्पूर्ण क्षेत्र में बोली जाती है।
        किसी भाषा के मानक रूप के आधार पर उस भाषा की पहचान की जाती है मगर मानक भाषा, भाषा का एक रूप होता है मानक भाषा ही भाषा नहीं होती। इसी प्रकार खड़ीबोली के आधार पर मानक हिन्‍दी का विकास अवश्‍य हुआ है किन्‍तु खड़ी बोली ही हिन्‍दी नहीं है। तत्‍वतः हिन्‍दी भाषा क्षेत्र के अन्‍तर्गत जितने भाषिक रूप बोले जाते हैं उन सबकी समष्‍टि का नाम हिन्दी है।
     अतः बोलियों को भाषा का दर्जा दिलाने के लिए योजनाबद्ध चिंतकों को तटस्थ भाव से इस पर मनन करना चाहिए | कहीं वे हिन्दी का अहित तो नहीं कर रहे | हिन्दी का अहित देश का अहित है |
       वस्तुतः भारतीय भाषाओं के अस्तित्व एवं महत्व को अंग्रेजी से खतरा है। संसार में अंग्रेजी भाषियों की जितनी संख्या है उससे अधिक संख्या केवल हिन्दी भाषियों की है। यदि हिन्दी के उपभाषिक रूपों को हिन्दी से अलग मान लिया जाएगा तो भारत की कोई भाषा अंग्रेजी से टक्कर नहीं ले सकेगी और धीरे धीरे भारतीय भाषाओं के अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा।
        मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं के आकड़ों के अनुसार हिन्दी को तीसरा स्थान दिया गया है। हिन्दीतर भाषी राज्यों में बहुसंख्यक द्विभाषिक समुदाय द्वितीय भाषा के रूप में अन्य किसी भाषा की अपेक्षा हिन्दी का अधिक प्रयोग करता है। भारत में हिन्दीतर राज्यों में तथा विदेशों में हिन्दी का प्रसार बढ़ रहा है। यह प्रसार बढ़ेगा। चीनी भाषा के बाद हिन्दी के मातृभाषियों की संख्या सर्वाधिक है|
     आज हिन्‍दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने के इस अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय षडयंत्र को विफल करने की आवश्‍कता है |  कुछ ताकतें हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने का कुचक्र एवं षड़यंत्र रच रही हैं। यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि हिन्दी का मतलब केवल खड़ी बोली है। हिन्दी साहित्य को जिंदगी भर पढ़ाने वाले, हिन्दी की रोजी-रोटी खाने वाले, हिन्दी की कक्षाओं में हिन्दी पढ़ने वाले विद्यार्थियों को विद्यापति, जायसी, तुलसीदास, सूरदास जैसे हिन्दी के महान साहित्यकारों की रचनाओं पढ़ाने वाले अध्यापक तथा इन पर शोध एवं अनुसंधान करने एवं कराने वाले आलोचक भी न जाने किस लालच में या आँखों पर पट्टी बाँधकर इस तथ्य को स्वीकार कर रहे हैं |
      क्षेत्रीय भावनाओं को उभारकर एवं भड़काकर ये लोग हिन्दी की संश्लिष्ट परम्परा को छिन्न-भिन्न करने का पाप कर रहे हैं। हिन्दी के किसी आलोचक का यह वक्तव्य दृष्टव्य है---
 हिंदी समूचे देश की भाषा नहीं है वरन वह तो अब एक प्रदेश की भाषा भी नहीं है। उत्तरप्रदेश, बिहार जैसे राज्यों की भाषा भी हिंदी नहीं है। वहाँ की क्षेत्रीय भाषाएँ यथा अवधी, भोजपुरी, मैथिल आदि हैं
      इस कुचक्र को तोड़ना ही होगा | हिन्दी दिवस-पखवाड़े के अवसर पर यह हिन्दी के प्रति सच्ची भावाव्यक्ति होगी।

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