यह ब्लॉग खोजें

सोमवार, 29 जुलाई 2013

ख़लीफ़ा घर से बाहर जो, हमें बन कर दिखाता है |
वही  चूहा  बना घर में, चरण  'उनके'  दबाता है |

सुबह की चाय से लेकर, बनाता लंच घर भर का,
धुलाई कर के कपड़ों की, वही छत पर सुखाता है |

वही स्कूल जाने  को करे  तैयार,  बच्चों   को,
वो जब अंगड़ाई लेती हैं,तो उनकी चाय लाता है |

चला जाता है शापिंग साथ में, चपरासियों सा ये,
यही पेमेन्ट करता है, यही सब लाद  लाता  है |

वो नज़रें कर ज़रा टेढी,   इसे  आवाज  देती  हैं,
तो अन्दरतक ख़लीफ़ा ये,सिहर कर कांप जाता है |

सुनाऊं क्या ख़लीफ़ा की, ये हैं सब 'राज' की बातें ,
बना रहता गधा घर में,अकड़ बाहर दिखाता  है | 

3 टिप्‍पणियां:

फ़ॉलोअर

मेरे द्वारा की गयी पुस्तक समीक्षा--डॉ.श्याम गुप्त

  मेरे द्वारा की गयी पुस्तक समीक्षा-- ============ मेरे गीत-संकलन गीत बन कर ढल रहा हूं की डा श्याम बाबू गुप्त जी लखनऊ द्वारा समीक्षा आज उ...