(1)
बीते दिन वो सुनहरे , नैन ताकते द्वार
कब आएगा डाकिया , लेकर चिट्ठी- तार
लेकर चिट्ठी -तार , डाकखाने के चक्कर
पत्र कभी नमकीन,कभी ले आते शक्कर
सीने से लिपटाय , खतों को लेकर जीते
नैन ताकते द्वार , सुनहरे वो दिन बीते ||
(2)
सोना चाँवल चिट्ठियाँ , जितने हों प्राचीन
उतने होते कीमती , और लगें नमकीन
और लगें नमकीन , भुला दें टूजी थ्रीजी
चिट्ठी की तासीर , मिले कैसे भाई जी
ठीक नई तकनीक,किंतु मत
कल को खोना
बिना कल्पना-स्वप्न ,भला
क्या होता सोना ?
(3)
लिखना भी दुश्वार था -"मुझको तुमसे प्यार"
अब तो सीधे हो रहा , जता-जता कर प्यार
जता-जता कर प्यार , आज उससे कल इससे
पहले सालोंसाल , बना करते
थे किस्से
सौ सुख देता एक झलक
सजनी का दिखना
डूब कल्पना रात रात भर
चिट्ठी लिखना ||
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
शम्भूश्री अपार्टमेंट, विजय नगर,
जबलपुर (मध्यप्रदेश)
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज सोमवार (22-07-2013) को गुज़ारिश प्रभु से : चर्चा मंच 1314 पर "मयंक का कोना" में भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
kya bat hai...sundar...
जवाब देंहटाएंपत्रों के इतिहास को सही पकड़ा है आपने; पुराने युग का वो आनन्द अब कहाँ???
जवाब देंहटाएंआभार
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जवाब देंहटाएंपढ़ कर रचना कार नव, पाता है प्रतिदर्श |
हटाएंशिल्प कथ्य मजबूत है, कुण्डलियाँ आदर्श |
कुण्डलियाँ आदर्श, देखकर वह अभ्यासी |
अल्प-समय उत्कर्ष, रचे फिर अच्छी-खांसी |
अग्रदूत आभार, टिप्पणी करता रविकर |
उत्तम चिट्ठाकार, बनूँ भैया को पढ़ कर ||
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति का लिंक लिंक-लिक्खाड़ पर है ।। त्वरित टिप्पणियों का ब्लॉग ॥
जवाब देंहटाएंपत्रों के मधुर दिन सदा को बीत गए !
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