ईशोपनिषद के प्रथम
मन्त्र के तृतीय भाग भाग ..”मा गृध कस्यविद्धनम." का
काव्य-भावानुवाद......
किसी के धन की सम्पति श्री
की,
इच्छा लालच हरण नहीं कर |
रमा चंचला कहाँ कब हुई ,
किसी एक की सोच अरे नर !
धन वैभव सुख सम्पति कारण,
ही तो द्वेष द्वंद्व होते
हैं|
छीना-झपटी, लूट हरण से,
धन वैभव सुख कब बढ़ते हैं |
अनुचित कर्म से प्राप्त सभी
धन,
जो कालाधन कहलाता है |
अशुभ अलक्ष्मी वास करे गृह,
मन में दैन्य भाव लाता है |
शुचि भावों कर्मों को प्राणी,
मन से फिर बिसराता जाता |
दुष्कर्मों में रत रहकर नित,
पाप-पंक में धंसता जाता |
यह शुभ ज्ञान जिसे हो जाता,
शुभ-शुचि कर्मों को अपनाता |
ज्ञानमार्ग युत जीवन-क्रम
से,
मोक्ष मार्ग पर चलता जाता ||
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार (02-04-2014) को ""स्थायी मूर्ख" चर्चा मंच 1570 में "अद्यतन लिंक" पर भी है!
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चैत्र नवरात्रों की शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद.......शास्त्रीजी...
जवाब देंहटाएं