ईशोपनिषद के द्वितीय मन्त्र ....
' कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतम समा | एवंत्वयि नान्यथेतो S स्ति न कर्म लिप्यते नरे ||'
के द्वितीय भाग ... ' एवंत्वयि नान्यथेतो S स्ति न कर्म लिप्यते नरे ||'.... का काव्य-भावानुवाद ....
सदकर्मों की इच्छा ले यदि ,
मानव, सेवा-धर्म निभाये |
जीवन अल्प हो चाहे जितना ,
शत शत शरद का जीवन पाए |
इसी भावयुत कर्म किये जा ,
यही एक बस उचित पंथ है |
अन्य न जीवन राह है कोई ,
यह जीवन का सत्य मन्त्र है |
कन्टकीर्ण है राह कर्म की,
पग पग पर बाधाएं मग में |
जाने कितने तृष्णा-लालच ,
के पल आते हैं इस पथ में |
कर्म लिपट ही पाते हैं कब,
उससे जो त्यागी अलिप्त है|
लिप्सा तृष्णा उसे बांधती,
अपकर्मों में नर जो लिप्त है |
कर्म भाव के सत्य मार्ग पर,
चलता दृड़ता से जो कोई |
लिप्त न होता उसे न होती ,
कर्मों में आसक्ति न कोई |
लिप्सा लालच स्वार्थ भावना,
नहीं लिपट पाती तन मन से |
ईश्वर प्राप्ति, मोक्ष क्या होगी,
सुन्दर उस पावन जीवन से ||
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार (14-04-2014) के "रस्में निभाने के लिए हैं" (चर्चा मंच-1582) पर भी होगी!
बैशाखी और अम्बेदकर जयन्ती की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
खूबसूरत प्रस्तुति...
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