ईशोपनिषद के द्वितीय मन्त्र ....
' कुर्वन्नेवेह कर्माणि
जिजीविषेच्छतम समा|
एवंत्वयि नान्यथेतो S
स्ति न कर्म लिप्यते
नरे ||'
के प्रथम भाग ...
' कुर्वन्नेवेह कर्माणि
जिजीविषेच्छतम समा
|.... का काव्य-भावानुवाद
....
ईश्वर भाव व त्याग
भाव से,
लालच लोभ रिक्त हो हे मन |
कर्म करे परमार्थ भाव से,
उसको ही कहते हैं जीवन |
क्या जीने की हक़ है उसको ,
जो न कर्म रत रहता प्राणी |
क्या नर जीवन देह धरे क्या ,
अपने हेतु जिए जो प्राणी |
सौ वर्षों तक जीने की तू,
इच्छा कर, पर
कर्म किये जा |
कर्म बिना इक पल भी जीना ,
क्या जीना मत व्यर्थ जिए जा |
श्रम कर, आलस
व्यसन त्यागकर ,
देह वासना मोह त्याग कर |
मनसा वाचा कर्म करे नर,
मानुष जन्म न व्यर्थ करे नर |
कर्मों से ही सदा भाग्य की,
रेखा बिगड़े या बन जाये |
शुभ कर्मों का लेखा हो तो,
रेखा स्वयं ही बनती जाए |
तेरे सदकर्मों की इच्छा,
ही है शत वर्षों का जीवन |
मानव सेवा युत इक पल भी,
है शत शत वर्षों का जीवन ||
---क्रमश द्वितीय भाग....
करमन की गति न्यारी संतों...
जवाब देंहटाएंक्या बात है बांणभट्ट जी .....धन्यवाद ...
हटाएंकरमन की गति न्यारी संतों...
जवाब देंहटाएंसचमुच ...
हटाएंबहुत सुन्दर अनुवाद
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ओंकार जी.....
हटाएंधन्यवाद शास्त्रीजी....
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