भारत की महानता का, नही है अतीत याद,
वोट माँगने को, नेता आया बिनबुलाया है।
देश का कहाँ है ध्यान, होता नित्य सुरापान,
जाति, धर्म, प्रान्त जैसे, मुद्दों को भुनाया है।
युवराज-सन्त चल पड़े, गली-हाट में,
निर्वाचन के दौर ने, ये दिन भी दिखाया है।
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शुक्रवार, 27 सितंबर 2013
"एक मुक्तक" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
गुरुवार, 26 सितंबर 2013
साधू या शैतान
साधू सन्त नाम धारी अनेक
सच्चा होगा शायद हजारों में एक l
बैठे हैं गेरुआ वस्त्र धारण कर
ढोंग करते हैं भक्त का माला जपकर ll
धरकर वेश साधूसन्त जोगन का
साधुसंत का नाम बदनाम किया l
गेरुआ, सफ़ेद हो या और वसना
जब उतर गया तो शैतान निकला ll
तंत्र मंत्र साधने कोई कापालिक बन गया
सिद्धि हेतु मासूम बच्चों का बलि चढ़ाया l
बन बैठा गुरु वो ओड़कर गेरुआ चोले
हंस के रूप में छुपे वो काले कौए निकले ll
हरि भजन करते करते कर गए नारी भजन
नारी देह के सामने गुरु ने कर दिया समर्पण l
जैसा गुरु वैसा चेला , प्रवचन है ढकोसला
भक्त समागम बना है, व्यभिचारियों का मेला ll
गुरु का एकांत वास ,पर
उसमे होती है रंगरेलियां
उसमे होती है रंगरेलियां
हरि छोड़ ,चेलियों के साथ
गुरु करते है रंगरेलियां ll
गुरु करते है रंगरेलियां ll
सहमति है तो सोने में सुहागा
असहमति में तो यह बलात्कार है l
किन्तु सन्त ,बाबाओं को उसमें
नहीं लगता है कोई अनाचार है ll
ऐसे गुरु सन्त साधु जोगिनो के
सब के स्वर में होते हैं एकतान l
इनसे भले तो वे लोग है
जग जिनको कहते हैं शैतान ll
कालीपद "प्रसाद"
सर्वाधिकार सुरक्षित
कालीपद "प्रसाद"
सर्वाधिकार सुरक्षित
बुधवार, 25 सितंबर 2013
छंद सरसी
छंद सरसी
[16, 11 पर यति, कुल 27 मात्राएँ , पदांत में गुरु लघु]
[16, 11 पर यति, कुल 27 मात्राएँ , पदांत में गुरु लघु]
चाक निरंतर रहे घूमता , कौन बनाता देह |
क्षणभंगुर होती है रचना , इससे कैसा नेह ||
जीवित करने भरता इसमें , अपना नन्हा भाग |
परम पिता का यही अंश है , कर इससे अनुराग ||
हर पल कितने पात्र बन रहे, अजर-अमर है कौन |
कोलाहल-सा खड़ा प्रश्न है , उत्तर लेकिन मौन ||
एक बुलबुला बहते जल का , समझाता है यार |
छल-प्रपंच से बचकर रहना, जीवन के दिन चार ||
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
शम्भूश्री अपार्टमेंट, विजय नगर, जबलपुर (म.प्र.)
रविवार, 22 सितंबर 2013
हे निराकार!
हे निराकार निर्गुण ,कहो कहाँ छुपे हो तुम
ढूंढ़ु कहाँ बतलाओ ,किस रूप में हो तुम
हर घड़ी बदलते अनन्त रूप तुम्हारा
कुछ देर ठहरकर ,पहचान अपना कराओ तुम।
पल पल बदलते रूप तुम्हारा
पल पल बदलती तुम्हारी सत्ता
पल पल बदलती तुम्हारी स्थिति
पलपल बदलती हमारी जिंदगी।
तुम हो सर्वोपरि शिरोमणि सर्वशक्तिशाली
तुम हो सर्वेश्वर सिरमौर सर्वक्षमताशाली
कृपासिंधु दीनबन्धु तुम हो परोपकारी
तुम हो शीलवन्त सर्वव्यापी सर्वगुणशाली।
कृपालु हो ,दयालु हो ,हो तुम वनमाली
गौ पर असीम कृपा तुम्हारा ,करते हो रखवाली
सखा तुम्हारा समर्पित ,घर तुम्हारा जग सारा
मुझे बना लो सेवक अपना ,करूँगा तुम्हारी रखवाली।
कालीपद "प्रसाद "
© सर्वाधिकार सुरक्षित
गुरुवार, 19 सितंबर 2013
बैठे ठाले... आलेख...डा श्याम गुप्त....
बैठे ठाले...
भला बताइये शून्य क्या है ?
आप
छूटते ही कहेंगे कि, अजी ये क्या बात हुई !.... शून्य एक अंक है जो '०' से प्रकट किया जाता है....
जिसका अर्थ है - कुछ नहीं, कोई नहीं, रिक्त स्थान आदि | पर हुज़ूर ! आप यह न समझें कि
शून्य एक निरर्थक राशि है या कोई राशि ही नहीं है | साहिबान! यह अंक, शब्द या जो भी है,... है अत्यंत महत्वपूर्ण व महान
| क्या कहा ? क्यों ? तो लीजिये आपने किसी को
१०००० रु दिए और लिखे -
'१०००/- दिए ' ...... अरे ! आप परेशान क्यों हैं ? क्या कहा ? ९००० रु ही रफूचक्कर होगये ! अब रोइए उस महान शून्य को सिर पकड़ कर |
इसे बिंदी भी कहा जाता है | अब बिंदी की सार्थकता पर प्रश्न चिन्ह न लगाइए वरना समझ लीजिये बस
श्रीमतीजी ....... और कहीं महिला संगठनों को
पता चल गया आपकी इस विचार धारा का तो बस ...बेलन-थाली-चिमटा, धरना -प्रदर्शन ..और आप पर महिला-विरोधी होने का.....| अरे तभी तो अपने बिहारी जी भी बहक गए --
"कहत सबै बेंदी दिए, आंकु दस गुनों होत |
तिय लिलार बेंदी दिये, अगणित बढ़त उदोत ||"
"कहत सबै बेंदी दिए, आंकु दस गुनों होत |
तिय लिलार बेंदी दिये, अगणित बढ़त उदोत ||"
और
याद है वह हिन्दी की बिंदी का कमाल जब स्कूल में इमला सत्र में
-" इत्र
बेचने वाले को गंधी कहते हैं "..से बिंदी गायब कर देने पर ....मास्टर जी के
.झापड़ ही झापड़ ..|
पर इस
शून्य का अर्थ कुछ नहीं और महत्त्व बहुत कुछ है...इस विरोधाभास से न तो हम ही
संतुष्ट होंगे, न आप ही | इसका अर्थ कुछ और भी है | यदि न जानते हों तो बताये
देते हैं कि हिन्दी के प्रश्न- पत्र
में
शून्य का अर्थ सिर्फ कुछ नहीं, कोई नहीं न लिख दीजिएगा, नहीं तो निश्चिन्त रहिये, शून्य ही नसीब होगा | अब जरा आकाश के पर्ययाबाची तो दोहराइए ...समझ गए न | अरे तभी तो कबीर जी भी
रहस्य
की बात कह गए---
" सुन्न भवन में अनहद बाजे,
जग का साहिब रहता है || "
प्रिय
पाठक ! परन्तु इस '0' चिन्ह वाले शून्य को शून्य
ही क्यों कहते हैं | सोचिये | क्योंकि शून्य को आकाश भी
कहते हैं और आकाश है भी शून्य -निर्वात, सुन्न
भवन | वह गोल भी है और अनंत भी, जैसे शून्य भी गोल है और अनंत भी | इसकी परिधि पर चक्कर लगाने
वाले को छोर कहाँ मिलता है | जैसे क्षितिज की और दौडने
वाले को क्षितिज नहीं मिलता |
आखिर अपने पूछ ही
लिया; शून्य का आविष्कारक कौन है | जितने मुंह उतनी बातें, बात से बात निकालने में क्या जाता है ? परन्तु शून्य का अविष्कार एक भारतीय मनीषा द्वारा ही हुआ| इससे पूर्व विश्व-गणना सिर्फ ९ तक ही सीमित थी |
महर्षि गृत्समद द्वारा इस असीम शून्य के आविष्कार के पश्चात् ही गणित व भौतिकी अस्तित्व में आये | ससीम मानव की मेधा असीम की और बढ़ी | सभ्यता को आगे चढ़ने का
सोपान प्राप्त हुआ | संसार गणित पर आधारित है और
गणित शून्य पर | मानव की ज्ञान व प्रकृति
नियमन के चरमोत्कर्ष की युग-गाथा
कम्प्युटर-विज्ञान
भी तो शून्य आधारित सिद्धांत की भाषा-भूमि पर टिका है; जिसके कारण आज मानव स्वयं सोचने वाले रोबोट-यंत्र-मानव बनाकर मानव के सृष्टा
होने का सुस्वप्न देखकर ईश्वरत्व के निकट पहुँचने को प्रयास-रत है | और......खैर छोडिये भी....कहाँ आगये .... " आये थे हर भजन को ओटन लगे कपास " |
हाँ तो आपने शून्य का अर्थ
और महत्त्व समझ लिया | परन्तु श्रीमान ! यदि अप
शिक्षार्थी, विद्यार्थी, परीक्षार्थी हैं तो शून्य के महत्त्व को कुछ अधिक ही अधिग्रहण करके परीक्षा
में भी शून्य ही लाने
का यत्न न करें , अन्यथा फिर एक वर्ष तक शून्य का सर पकड़ कर रोइयेगा |
चलिए अब तो अप शून्य का अर्थ
समझ ही गए | क्या कहा ! अब भी नहीं समझे ? तो शून्य की भाँति शून्य के चक्कर लगाते रहिये, कभी तो समझ ही जायेंगे ---
"लगा रह दर किनारे पर, कभी तो लहर आयेगी "
"लगा रह दर किनारे पर, कभी तो लहर आयेगी "
शायद
अब तो आप समझ ही गए की शून्य क्या है | यदि अब भी न समझे तो हम क्या
करें, आपका मष्तिष्क ही शून्य है
और आपकी अक्ल भी शून्य में घास चरने चली गयी है | आपका वर्तमान व भविष्य भी शून्य का भूत ही है | हम तो उस कहावत को सोच के डर रहे हैं कि... " खाली दिमाग शैतान का घर होता है |"
मंगलवार, 17 सितंबर 2013
रुबाइयां --डा श्याम गुप्त ..
शहीदों के लिए सिर्फ शम्मा जलाने से क्या होगा
साल में इक बार दिवस मनाने से क्या होगा|
बेहतर है प्रतिदिन चरागे-दिल जलाए जाएँ -
नक़्शे -कदम पे श्याम चल पायं तोअच्छा होगा|
घर हो, बाहर हो जंग हर जगह पे जारी है,
कहीं सांस्कृतिक हमला है कहीं आतंकी तैयारी है|
खुश नशी हैं श्याम ' जो देश की सरहद पे लडे-
अन्दर के दुश्मनों से लड़ें अब हमारी बारी है |
ऐसे भी होते हैं दीवाने हर ज़माने में ,
गीत गाते हैं सचाई के हर ज़माने में |
उनकी फितरत में फरेवो-जफा होती ही नहीं -
जीते हैं नग्मे-वफ़ा , वेवफा ज़माने में |
सो गया थककर के दिन,
रात के आगोश में |
जैसे इक नटखट सा बच्चा-
सोता मां की गोद में |
क्षमा प्रार्थना ( रुबाई छन्द)
दुर्गा सप्तसती में" क्षमा प्रार्थना" के कुछ श्लोक हैं। सब श्लोक संस्कृत में हैं.।
सब लोग उसको पढ़ नहीं पाते। इसीलिए मैंने सोचा क्यों न हिंदी में ही उसे
अनुवाद किया जाय , परन्तु शब्दश : अनुवाद संभव नहीं हो पाया। इसीलिए वही
भाव को रुबाई छन्द में प्रस्तुत करने की कोशिश की है शायद आपको पसंद आये.।
दिन रात के काम में मेरे ,होते हैं अपराध हजारों
मानकर मुझे दास अपना , मुझको क्षमा करो ,
ना आवाहन ,ना विसर्जन , ना पूजा विधि जानू मैं
मूढ़ जानकर कृपा करके ,मुझको क्षमा करो।।
मन्त्र हीन क्रिया हीन , जप- तप हीन हूँ मैं
जैसा समझा पूजा किया ,ज्ञान वुद्धिहीन हूँ मैं
दया का सागर,कृपा सिन्धु ,इसे स्वीकार करो
तुम्हारी कृपा से पूर्ण हो पूजा ,विनती करता हूँ मैं।।
न ज्ञानी हूँ न ध्यानी हूँ , मूढमति अज्ञानी हूँ
हूँ अपराधी मैं ,पर शरण तुम्हारे आया हूँ
जो भी दंड देना चाहो ,मुझे सब स्वीकार है
शरणागत हूँ ,निराश न करो ,दया का पात्र हूँ।।
अज्ञानता से , वुद्धि भ्रम से ,भूल हुए अत्यधिक
क्षमा करो प्रभु /माँ मुझे यदि कुछ किया कम अधिक
निज इच्छा करो कृपा ,करो भूल चुक माफ़
मेरी कामना पूर्ण करो ,मांगू नहीं कुछ अधिक।।
कालीपद "प्रसाद "
दिन रात के काम में मेरे ,होते हैं अपराध हजारों
मानकर मुझे दास अपना , मुझको क्षमा करो ,
ना आवाहन ,ना विसर्जन , ना पूजा विधि जानू मैं
मूढ़ जानकर कृपा करके ,मुझको क्षमा करो।।
मन्त्र हीन क्रिया हीन , जप- तप हीन हूँ मैं
जैसा समझा पूजा किया ,ज्ञान वुद्धिहीन हूँ मैं
दया का सागर,कृपा सिन्धु ,इसे स्वीकार करो
तुम्हारी कृपा से पूर्ण हो पूजा ,विनती करता हूँ मैं।।
न ज्ञानी हूँ न ध्यानी हूँ , मूढमति अज्ञानी हूँ
हूँ अपराधी मैं ,पर शरण तुम्हारे आया हूँ
जो भी दंड देना चाहो ,मुझे सब स्वीकार है
शरणागत हूँ ,निराश न करो ,दया का पात्र हूँ।।
अज्ञानता से , वुद्धि भ्रम से ,भूल हुए अत्यधिक
क्षमा करो प्रभु /माँ मुझे यदि कुछ किया कम अधिक
निज इच्छा करो कृपा ,करो भूल चुक माफ़
मेरी कामना पूर्ण करो ,मांगू नहीं कुछ अधिक।।
कालीपद "प्रसाद "
© सर्वाधिकार सुरक्षित
सोमवार, 16 सितंबर 2013
बस यही साहित्य है.
बस यही साहित्य है.
देखते ही मोह ले जो मन, वही लालित्व है|
पी सके संसार का जो तम,वही आदित्य है|
डूबने से जो बचाकर विश्व-हित की नाव को,
डूबने से जो बचाकर विश्व-हित की नाव को,
नव सृजन का पथ दिखाए,बस यही साहित्य है|
रूप है मृदुता नही, किस काम का लालित्व वो |
प्यार को समझा न जो ,किस काम का पाडित्य वो |
जो समय के यक्ष - प्रश्नों के न उत्तर दे सके ,
दृष्टि में मेरी भला किस काम का साहित्य वो |
रचनाकार - कमल किशोर "भावुक"
शनिवार, 14 सितंबर 2013
श्याम स्मृति .....मातृभाषा या राष्ट्रभाषा क्यों ?...डा श्याम गुप्त
-पढ़ाना व सभी कार्य-कलाप
करना
चाहिए ? चाहे वह स्कूली शिक्षा हो या उच्च-शिक्षा या विज्ञान आदि
विशिष्ट विषयों की प्रोद्योगिक -शिक्षा ....क्या यह सिर्फ राष्ट्रीयता का या भावुकता व सवेदनशीलता का प्रश्न है ? नहीं.... वास्तव में अंग्रेज़ी या विदेशी माध्यम में शिक्षा विद्यार्थियों को विज्ञान के ही नहीं अपितु सभी प्रकार के ज्ञान को पूर्णरूपेण
आत्मसात
करने
में मदद नहीं करती। बिना आत्मसात हुए विवेक व प्रज्ञा उत्पन्न नहीं होती एवं कोई भी ज्ञान... .प्रगति, नवोन्मेष, नवोन्नति या नवीन अनुसंधान में मदद नहीं करता |
अंग्रेज़ी में शिक्षा हमारे युवाओं में अंग्रेज़ों (अमैरिकी –विदेशी ) की ओर देखने का आदी बना देती है। हर समस्या का आसान प्राप्त हल हमें परमुखापेक्षी बना देता है | अन्य के द्वारा किया हुआ हल नक़ल कर लेना समस्या का आसान हल लगता है चाहे वह हमारे देश-काल के परिप्रेक्ष्य में समुचित हल हो या न हो| विदेशी माध्यम में शिक्षा हमारा आत्मविश्वास कम करती है और हमारी सहज कार्य-कुशलता व अनुसंधानात्मक प्रवृत्ति को भी पंगु बनाती है। स्पष्ट है कि नकल करने वाला पिछड़ा ही रहेगा, दूसरों की दया पर निर्भर करेगा, वह स्वाधीन नहीं हो सकेगा| स्वभाषा से अन्यथा विदेशी भाषा में शिक्षा से अपने स्वयं के संस्कार , उच्च आदर्श , शास्त्रीय-सुविचार, स्वदेशी भावना , राष्ट्रीयता , आदर्श आदि उदात्त भाव सहज रूप से नहीं पनपते | यदि हम बच्चों को , युवाओं को ऊँचे आदर्श नहीं देंगे तब वे विदेशी नाविलों, विदेशी समाचारों , साहित्य ,टीवी –इंटरनेट आदि से नचैय्यों -गवैय्यों को अनजाने ही अपना आदर्श बना लेंगे, उनके कपड़ों या फ़ैशन की, उनके खानपान की रहन-सहन की झूठी- अप्सस्कृति की जीवन शैली की नकल करने लगेंगे।
अंग्रेज़ी में शिक्षा हमारे युवाओं में अंग्रेज़ों (अमैरिकी –विदेशी ) की ओर देखने का आदी बना देती है। हर समस्या का आसान प्राप्त हल हमें परमुखापेक्षी बना देता है | अन्य के द्वारा किया हुआ हल नक़ल कर लेना समस्या का आसान हल लगता है चाहे वह हमारे देश-काल के परिप्रेक्ष्य में समुचित हल हो या न हो| विदेशी माध्यम में शिक्षा हमारा आत्मविश्वास कम करती है और हमारी सहज कार्य-कुशलता व अनुसंधानात्मक प्रवृत्ति को भी पंगु बनाती है। स्पष्ट है कि नकल करने वाला पिछड़ा ही रहेगा, दूसरों की दया पर निर्भर करेगा, वह स्वाधीन नहीं हो सकेगा| स्वभाषा से अन्यथा विदेशी भाषा में शिक्षा से अपने स्वयं के संस्कार , उच्च आदर्श , शास्त्रीय-सुविचार, स्वदेशी भावना , राष्ट्रीयता , आदर्श आदि उदात्त भाव सहज रूप से नहीं पनपते | यदि हम बच्चों को , युवाओं को ऊँचे आदर्श नहीं देंगे तब वे विदेशी नाविलों, विदेशी समाचारों , साहित्य ,टीवी –इंटरनेट आदि से नचैय्यों -गवैय्यों को अनजाने ही अपना आदर्श बना लेंगे, उनके कपड़ों या फ़ैशन की, उनके खानपान की रहन-सहन की झूठी- अप्सस्कृति की जीवन शैली की नकल करने लगेंगे।
अंग्रेज़ी माध्यम की शिक्षा से हम उसी ओर जा रहे हैं | अतः हमें निश्चय ही अपनी श्रेष्ठ भाषाओं में शिक्षा प्राप्त करना चाहिए ताकि सहज नवोन्नति एवं स्वाधीनता के भाव-विचार उत्पन्न हों | अंग्रेज़ी एक विदेशी भाषा की भाँति पढाई जा सकती है | इसमें किसी को आपत्ति भी नहीं होगी | दुनिया के तमाम देश स्व-भाषा में शिक्षाके बल पर विज्ञान- ज्ञान में हमसे आगे बढ़ चुके हैं| हम कब संभलेंगे....|
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