समाज शब्द ‘अज्’ धातु में सम् उपसर्ग जुड़कर व्युत्पन्न होता है। अज
धातु का अर्थ अजन्मा, सदैव
गतिशील, क्रियाशील, ( इसीलिये अज
ब्रह्मा को भी कहते हैं जो सदैव विश्व निर्माण व गति की प्रक्रिया में संलग्न हैं,
बकरे का सिर भी सदैव गति करता रहता है अतः अज बकरे को भी कहते हैं)
सम का अर्थ समान रूप से, सम्मिलित रूप से, सम्यक रूप से.. अर्थात् जिसमें रहकर मनुष्य सम्यक रूप से अपनी प्रगति
अर्थात् उन्नति करते हैं, उसे समाज कहते हैं।
‘समुदाय’ शब्द ‘सम्’ और उदाय शब्दों से व्युत्पन्न होता है| उदाय अर्थात उत धातु ..उदय, उत्थान अतः समुदाय शब्द
का अर्थ हुआ मनुष्य के सम्यक रूप से
ऊपर उठने का साधन |
समाज का अर्थ व्यक्तियों या व्यक्तियों के समूह से न
होकर व्यक्ति के परस्पर संबंधों से होता है। समाज
रीतियों और कार्य प्रणालियों, प्रभुत्व और पारस्परिक सहायता, विविध समूहों और श्रेणियों, मानव व्यवहार के
नियन्त्रणों और स्वतन्त्रताओं की व्यवस्था है। विविध समाजों या
सामाजिक संस्थाओं में सामाजिक व्यवस्थायों, रीतियों, कार्य प्रणालियों, प्रभुत्व और पारस्परिक सहायता, समूहों और श्रेणियों का रूप
निरन्तर बदलता रहता है| बृहद रूप
में मानव इतिहास में, मानव समाज में मानव व्यवहार के
नियन्त्रणों व स्वतन्त्रताओं का रूप निरन्तर बदलता रहा है।
संस्कृत शब्द ‘सम्’ उपसर्ग
एवं स्कृत’ शब्द के योग से बना है| जो
स्वयं कृ धातु के कृत शब्द में स ( सम्यक, समाशोधन ) उपसर्ग से मिलकर बना है| अतः रूप हुआ - सम + स्कृत। = संस्कृत...संसकारित, परिष्कारित
इसमें ‘ई’ स्त्रीलिंग प्रत्यय लगा कर संस्कृति बना है।
संस्कृति ....विद्वान संस्कृति शब्द का प्रयोग मानव विकास के चिन्तन, सुन्दर, शालीन सूक्ष्म तत्वों तथा सामाजिक जीवन की, मानव की एवं मानव की प्रगति की परिष्कृत ..सत्यं, शिवं, सुन्दरं तथा रुचिर परम्परा के अर्थ में करते रहे हैं।
संस्कृति का संबंध मुख्य रूपेण मानव आचरण से
हैं, जिसे वह अपने पूर्वजों, माता-पिता, शिक्षकों तथा दिन-रात सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों से अपनाता है। व्यक्ति के
सामान्य दैहिक आचरण जैसे - साँस लेना, रोना-हँसना आदि संस्कृति के अन्तर्गत नहीं
आता। वस्तुतः जन्म के बाद व्यक्ति को
सामाजिक रूप से प्राप्त ‘आचरण’ ही संस्कृति है। सीखे हुए
व्यवहार प्रकारों को, उस समग्रता को, जो किसी समूह को वैशिष्ट्य प्रदान करती है, संस्कृति की संज्ञा दी जाती
है।
संस्कृति
मनुष्य
की स्वयं की सृष्टि है, इसका स्थायित्व, व्यक्तियों द्वारा अतीत की विरासत के प्रतीकात्मक संचार पर निर्भर है। क्योंकि इसका आधार, जन्मदाता मनुष्य स्वयं परिवर्तनशील है अतः यह भी परिवर्तनशील है | नए विचार, नए व्यवहार, नए अविष्कार... मनुष्यों के साथ-साथ उसकी संस्कृति को भी प्रभावित
करते हैं | विशेषता यह है कि परिवर्तनशील होते हुए भी
संस्कृति सदैव व्यवस्थित होती है क्योंकि इसके एक तत्व में परिवर्तन आने
पर, दूसरा तत्व स्वतः ही परिवर्तित हो जाता है इसप्रकार सामाजिक-सांस्कृतिक
व्यवस्था बनी रहती है|
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (30-04-2014) को ""सत्ता की बागडोर भी तो उस्तरा ही है " (चर्चा मंच-1598) पर भी होगी!
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (30-04-2014) को ""सत्ता की बागडोर भी तो उस्तरा ही है " (चर्चा मंच-1598) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'