ब्रज
बांसुरी" की रचनाएँ .......डा श्याम गुप्त ...
१.कविता कविता खेलें
आऔ हम सब मिलिकैं ,
कविता कविता खेलें ||
छंद औ अलंकार में भूलें
विषय व्याकरन भाव |
लच्छनि बारी भासा होय तौ
का अनुभाव-विभाव |
भाँति भांति के उपमा रूपक,
गढ़िकें ऐसे लावैं |
जन जन की कहा बात,
नामधारी न समुझि पावैं |
नए नए बिम्बनि कौं ढूंढें ,
मिलिकैं पापड़ बेलें ||
आदि मध्य औ अंत में-
ना होय कोऊ लाग-लपेट |
छत्तीस व्यंजन ठूँसि कै बस-
भरिदें कविता कौ पेट |
ये दुनिया है संत्रासनि की ,
रोनौ-गानौ गायौ |
कवि तौ सुकवि औ समरथ है ,
कहा सुन्दर गीत सुनायौ |
का सारथकता, सामाजिकता,
सास्तर ज्ञान कौं पेलें ||
कम्प्युटर जुग में सब्दन के,
नए निकारें अर्थ |
कोऊ पूछै बतलाय डारें ,
सबके अर्थ -अनर्थ |
सुनें चुटकियाँ आज ,
हंसें रोवें घर जायकें |
जासौं पूछें अरथ,
वोही रहि जावै झल्लाय कें |
घर जायकें सब्दावलि ढूंढें ,
सब्दकोस कौं झेलें ||
काऊ बड़े मठाधारी कौं
चलौ पटाय डारें |
पूजा अरचन करें,
आरती करें मनाय डारें |
काऊ तरह औ कैसे हूँ ,
बस जुगति-जुगाड़ करें |
पुरस्कार मिलि जावै ,
औ सब जै जैकार करें |
काऊ तरह ते छपवाय डारें ,
बाजारनि में ठेलें ||
२.भरी उमस में...
आऔ आजु लगावैं घावनि पै
गीतनि के मरहम |
मन में है तेज़ाब भरौ
पर गीतनि कौ हू डेरौ |
मेरे गीतनि में ठसकी है,
दोस नांहि है मेरौ |
मेरौ अपनौ काव्य-बोधु है,
आपुनि ठनी ठसक है |
मेरी आपुनि ताल औ धुनि है,
आपुनि सोच-समुझि है |
भरी उमस में कैसें गावें
प्रेम प्रीति प्रीतम ||
जो कछु देखौ सोई कहतु हौं
झूठौ भाव है नाहीं |
जो कछु मिलौ सोई लौटाऊँ
कछु हू नयौ है नाहीं |
हमकों थी उम्मीद
खिलेंगे इन बगियन में फूल |
पर हर ठौर ही उगे भये हैं
कांटे और बबूल |
टूटि चुके हैं आजु समय की
सांसनि के दम-ख़म |
आओं आजु लगावैं घावनि पै
गीतनि के मरहम ||
मेरे नवीनतम प्रकाशित ब्रजभाषा
काव्य संग्रह ..."
ब्रज बांसुरी " ...की ब्रजभाषा में रचनाएँ
गीत,
ग़ज़ल,
पद,
दोहे,
घनाक्षरी,
सवैया,
श्याम -सवैया, पंचक सवैया, छप्पय, कुण्डलियाँ, अगीत, नवगीत आदि मेरे ब्लॉग .." हिन्दी हिन्दू हिंदुस्तान " ( http://hindihindoohindustaan.blogspot.com ) पर क्रमिक रूप में
प्रकाशित की जायंगी ... ....
कृति--- ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा में विभिन्न काव्यविधाओं की रचनाओं का
संग्रह )
रचयिता ---डा श्याम गुप्त
--- सुषमा गुप्ता
प्रस्तुत है .....भाव-अरपन ..सत्रह...नवगीत ....१.कविता कविता खेलें
आऔ हम सब मिलिकैं ,
कविता कविता खेलें ||
छंद औ अलंकार में भूलें
विषय व्याकरन भाव |
लच्छनि बारी भासा होय तौ
का अनुभाव-विभाव |
भाँति भांति के उपमा रूपक,
गढ़िकें ऐसे लावैं |
जन जन की कहा बात,
नामधारी न समुझि पावैं |
नए नए बिम्बनि कौं ढूंढें ,
मिलिकैं पापड़ बेलें ||
आदि मध्य औ अंत में-
ना होय कोऊ लाग-लपेट |
छत्तीस व्यंजन ठूँसि कै बस-
भरिदें कविता कौ पेट |
ये दुनिया है संत्रासनि की ,
रोनौ-गानौ गायौ |
कवि तौ सुकवि औ समरथ है ,
कहा सुन्दर गीत सुनायौ |
का सारथकता, सामाजिकता,
सास्तर ज्ञान कौं पेलें ||
कम्प्युटर जुग में सब्दन के,
नए निकारें अर्थ |
कोऊ पूछै बतलाय डारें ,
सबके अर्थ -अनर्थ |
सुनें चुटकियाँ आज ,
हंसें रोवें घर जायकें |
जासौं पूछें अरथ,
वोही रहि जावै झल्लाय कें |
घर जायकें सब्दावलि ढूंढें ,
सब्दकोस कौं झेलें ||
काऊ बड़े मठाधारी कौं
चलौ पटाय डारें |
पूजा अरचन करें,
आरती करें मनाय डारें |
काऊ तरह औ कैसे हूँ ,
बस जुगति-जुगाड़ करें |
पुरस्कार मिलि जावै ,
औ सब जै जैकार करें |
काऊ तरह ते छपवाय डारें ,
बाजारनि में ठेलें ||
२.भरी उमस में...
आऔ आजु लगावैं घावनि पै
गीतनि के मरहम |
मन में है तेज़ाब भरौ
पर गीतनि कौ हू डेरौ |
मेरे गीतनि में ठसकी है,
दोस नांहि है मेरौ |
मेरौ अपनौ काव्य-बोधु है,
आपुनि ठनी ठसक है |
मेरी आपुनि ताल औ धुनि है,
आपुनि सोच-समुझि है |
भरी उमस में कैसें गावें
प्रेम प्रीति प्रीतम ||
जो कछु देखौ सोई कहतु हौं
झूठौ भाव है नाहीं |
जो कछु मिलौ सोई लौटाऊँ
कछु हू नयौ है नाहीं |
हमकों थी उम्मीद
खिलेंगे इन बगियन में फूल |
पर हर ठौर ही उगे भये हैं
कांटे और बबूल |
टूटि चुके हैं आजु समय की
सांसनि के दम-ख़म |
आओं आजु लगावैं घावनि पै
गीतनि के मरहम ||
सुन्दर रचना, और अभिव्यक्ति .........
जवाब देंहटाएंhttp://hindikavitamanch.blogspot.in/
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धन्यवाद ऋषभ...
हटाएंutam-**
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आदित्य ...
हटाएंधन्यवाद शास्त्रीजी....
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