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शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

दो नवगीत ..ब्रज बांसुरी" से......डा श्याम गुप्त ...

ब्रज बांसुरी" की रचनाएँ .......डा श्याम गुप्त ...
              

                     मेरे नवीनतम प्रकाशित  ब्रजभाषा काव्य संग्रह ..." ब्रज बांसुरी " ...की ब्रजभाषा में रचनाएँ  गीत, ग़ज़ल, पद, दोहे, घनाक्षरी, सवैया, श्याम -सवैया, पंचक सवैया, छप्पय, कुण्डलियाँ, अगीत, नवगीत आदि  मेरे  ब्लॉग .." हिन्दी हिन्दू हिंदुस्तान " ( http://hindihindoohindustaan.blogspot.com ) पर क्रमिक रूप में प्रकाशित की जायंगी ... .... 
        कृति--- ब्रज बांसुरी ( ब्रज भाषा में विभिन्न काव्यविधाओं की रचनाओं का संग्रह )
         रचयिता ---डा श्याम गुप्त 
                     ---   सुषमा गुप्ता 
प्रस्तुत है .....भाव-अरपन ..सत्रह...नवगीत ....


१.कविता कविता खेलें

                      आऔ हम सब मिलिकैं ,
                      कविता कविता खेलें ||

 छंद औ अलंकार में भूलें
  विषय व्याकरन भाव |
लच्छनि बारी भासा होय तौ
का अनुभाव-विभाव |

भाँति भांति के उपमा रूपक,
गढ़िकें ऐसे लावैं |
जन जन की कहा बात,
नामधारी न समुझि पावैं |

                  नए नए बिम्बनि कौं ढूंढें ,
                  मिलिकैं पापड़ बेलें ||

आदि मध्य औ अंत में-
ना होय कोऊ लाग-लपेट |
छत्तीस व्यंजन ठूँसि कै बस-
भरिदें कविता कौ पेट |

ये दुनिया है संत्रासनि की ,
रोनौ-गानौ गायौ |
कवि तौ सुकवि औ समरथ है ,
कहा सुन्दर गीत सुनायौ |

                   का सारथकता, सामाजिकता,
                   सास्तर ज्ञान कौं पेलें ||

कम्प्युटर जुग में सब्दन के,
नए निकारें अर्थ |
कोऊ पूछै बतलाय डारें ,
सबके अर्थ -अनर्थ |

सुनें चुटकियाँ आज ,
हंसें रोवें घर जायकें |
जासौं पूछें अरथ,
 वोही रहि जावै झल्लाय कें |

                         घर जायकें सब्दावलि ढूंढें ,
                          सब्दकोस कौं झेलें ||

काऊ बड़े मठाधारी कौं
चलौ पटाय डारें |
पूजा अरचन करें,
आरती करें मनाय डारें |

काऊ तरह औ कैसे हूँ ,
बस जुगति-जुगाड़ करें |
पुरस्कार मिलि जावै ,
औ सब जै जैकार करें |

                       काऊ तरह ते छपवाय डारें ,
                       बाजारनि में ठेलें ||


२.भरी उमस में...


                आऔ आजु लगावैं घावनि पै
                गीतनि के मरहम |

मन में है तेज़ाब भरौ
पर गीतनि  कौ हू  डेरौ |
मेरे गीतनि में ठसकी है,
दोस नांहि है मेरौ |

मेरौ अपनौ काव्य-बोधु है,
आपुनि ठनी ठसक है |
मेरी आपुनि ताल औ धुनि  है,
आपुनि सोच-समुझि है |

                   भरी उमस में कैसें गावें
                    प्रेम प्रीति प्रीतम ||

जो कछु देखौ सोई कहतु हौं
झूठौ भाव है नाहीं |
जो कछु मिलौ सोई लौटाऊँ
कछु हू नयौ  है नाहीं |

हमकों थी उम्मीद
खिलेंगे इन बगियन में फूल |
पर हर ठौर ही उगे भये हैं
कांटे और बबूल |

                    टूटि चुके हैं आजु समय की
                     सांसनि के दम-ख़म |

                    आओं आजु लगावैं घावनि पै
                    गीतनि के मरहम ||

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