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गुरुवार, 31 दिसंबर 2015
सोमवार, 21 दिसंबर 2015
‘सुख का सूरज’ को पढ़ने का अनुभव (--डॉ. सारिका मुकेश)
शनिवार, 12 दिसंबर 2015
समीक्षा – अनुभूतियाँ गीत संग्रह....डा श्याम गुप्त
समीक्षा – अनुभूतियाँ गीत संग्रह....डा श्याम गुप्त
समीक्षा – अनुभूतियाँ
कृति—अनुभूतियाँ- गीत संग्रह ..रचनाकार –डा ब्रजेश कुमार मिश्र ..प्रकाशन-- नीहारिकांजलि प्रकाशन, कानपुर ...प्रकाशन वर्ष –२०१५ ई.....मूल्य ..२५०/-रु....समीक्षक –डा श्यामगुप्त ....
कृति—अनुभूतियाँ- गीत संग्रह ..रचनाकार –डा ब्रजेश कुमार मिश्र ..प्रकाशन-- नीहारिकांजलि प्रकाशन, कानपुर ...प्रकाशन वर्ष –२०१५ ई.....मूल्य ..२५०/-रु....समीक्षक –डा श्यामगुप्त ....
-------
डा ब्रजेश कुमार मिश्र मेरे चिकित्सा विद्यालय के सहपाठी हैं |
उन्होंने विशेषज्ञता हेतु काय-चिकित्सा को चुना और मैंने शल्य-चिकित्सा को |
वे भावुक, सुकोमल ह्रदय एवं संवेदनशील व्यक्तित्व हैं| काव्य व संगीत में
उन्हें प्रारम्भ से ही रूचि है | अपने बैच के पूर्व-छात्र सम्मिलन समारोहों
में उन्हें हारमोनियम पर मनोयोग से संगीत प्रस्तुत करते हुए देखकर सुखद
आनंद की अनुभूति होती है | आगरा नगर का निवासी होने के कारण अनुभूतियों के
आत्म कथ्य..”भाव सुमन...” में उनके द्वारा वर्णित आगरा नगर का सुकोमल
भावपूर्ण सौन्दर्य को मैंने भी जिया है| यह डा ब्रजेश के संवेदनशील व कोमल
ह्रदय एवं काव्य प्रतिभा का संक्षिप्त परिचय है | ऐसे सुकोमल व्यक्तित्व
द्वारा रचित गीत भाव-प्रधान, संगीत-प्रधान व सुकोमल होने ही चाहिए | हम
लोगों के कैशोर्य व युवा काल में जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा,
सुमित्रानंदन पन्त, मैथिलीशरण गुप्त महानायकों की भाँति सभी काव्यप्रेमी
जनों के मन पर छाये हुए थे | यह मूलतः छायावादी गीतों का युग था | अतः डा
मिश्र के गीतों में स्वतः ही छायावादी गीत शैली का प्रभाव परिलक्षित होता
है | यह स्वाभाविक है- “महाजनाः येन गतो स पन्था” |
-------- एक चिकित्सक, व्यक्ति व समाज की भावनाओं, संवेदनाओं व अपेक्षाओं को अपेक्षाकृत अधिक निकट से परखता है, जान पाता है एवं ह्रदय तल की गहराई से अनुभव कर पाता है| गीत ह्रदय से निसृत होते हैं| संवेदनाओं, अनुभूतियों व भावनाओं के ज्वार जब उमड़ते हैं तो गीत निर्झर प्रवहमान होते हैं--
“दिल के उमड़े भावों को जब,
रोक नहीं पाए,
भाव बने शब्दों की भाषा
रची कहानी है |” .(डा श्याम गुप्त के गीत..’गीत क्या होते हैं’..से )
------ भावुक व्यक्ति स्मृतियों में जीने वाले होते हैं, प्रीति-स्मृतियाँ जीवन की सुकोमलतम स्मृतियाँ होती हैं, संयोग की हों या वियोग की | डा मिश्र ने स्वयं ही कहा है –
“प्रेम के उद्गीत गाना चाहता हूँ ..” (प्रीति के मृदु गीत ..से ) तथा
“उर वीणा में प्रिय गूँज तुम्हारी पायल की ..” (पृष्ठ ६५ )
------- डा मिश्र की कृति ‘अनुभूतियाँ’ के गीत मूलतः छायावादी हैं| पीड़ा व विरह इनका मूल विषय भाव है | पीड़ा जो प्रकृति वर्णन, वसंत, प्रेम, मिलन, विरह, श्रृंगार, स्मृतियाँ, पायल की गूँज व सामाजिक सरोकार के गीतों को भी आच्छादित किये हुए है | कृति के प्रारम्भ के जो तीन मुक्तक हैं, कवि के कृतित्व के सारभाव हैं |..कवि के अनुसार –
“मृदुल उर की व्यंजना का प्रस्फुटन हैं..” | -----पीड़ा प्रीति का उत्कृष्ट भाव है | कवि का कथन है –--
“ये गीत नहीं मेरे अंतर की आहें हैं |” ...तथा..
“उर से जो छलकीं प्रीति कहो,
इनको मत केवल गीत कहो |”
------ प्रस्तुत कृति एसी ही संवेदनाओं के उदगार हैं | जीवन राह पर चलते चलते मनुष्य सुख-दुःख, सफलता-असफलता, अधूरी कामनाओं, संयोग-वियोग, प्रेम-विरह से दो-चार होता है| उन्हीं अनुभूतियों, संवेदनाओं, भावनाओं का भाव-शब्द प्राकट्य है प्रस्तुत कृति, जिसमें भावपक्ष तो उत्कृष्ट है ही कलापक्ष भी सफल, सुगठित, सुष्ठु व श्रेष्ठ
है | यह वस्तुतः लम्बे समय तक मौन साधनारत व्यक्तित्व की मौन पीड़ा, विरह व आप्लावित हुई संवेदनाओं का मुखरित होना है | पीड़ा का उद्रेक जब ह्रदय में आप्लावित होता है तो कवि कह उठता है ...
“झिलमिला कर अश्रुकण कुछ /
व्यथा चुप चुप कह गए |” (पृष्ठ ११८ )...
स्मृतियाँ कवि के जीवन का महत्वपूर्ण भाग है........
”जिनके नेहिल सुस्मरण मुझे, पल पल हुलसाते रहते हैं|”
----- परन्तु पीड़ा व विरह के मुखरित गीतों में भी नैराश्य नहीं है अपितु आशा की भोर का आव्हान है ---
“सबल शुभ संकल्प लाओ /
भोर के तुम गीत गाओ | ( भोर के गीत से..)
और जब यह पीड़ा स्व से पर की ओर, सामाजिक पीड़ा में, व्यष्टि से समष्टि की ओर उन्मुख होती है, परमार्थ सापेक्ष होती है तो कवि गा उठता है ---
“हों परिवर्तन आमूल चूल.. ./
निकलें जीवन के सभी शूल |
मृदु प्रेम जगे सब बैर भूल ...\ ..
जागे नूतन स्वर्णिम विहान .”..(पृष्ठ ३४..) ....तथा कवि दीप ही बना रहना चाहता है ...
”.दीप लघु प्रतिविम्ब मेरा /
दर्द से अनुबंध मेरा ..” (पृष्ठ ४०..) |
----- यह साहित्य का सामाजिक सरोकार रूप है | यह छायावादी काव्य की विशेषता है | यह साहित्य है, यही कवित्व है | जो काव्य का उद्देश्य है |
--------ज्ञान का आडम्बर सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़ा हुआ है | अज्ञानी रो सकता है, परन्तु समाज के ऊंचे पायदान पर खडा व्यक्ति चाहकर भी नहीं रो सकता | सबल, सत्यनिष्ठ, एकाकी, अंतर्मुखी व्यक्ति के लिए पीड़ा व्यक्त करने का माध्यम गीत व साहित्य ही होजाता है ..
“टुकडे टुकडे दर्पण उर का /
टप टप टप टप रजनी रोई /
मन की पीर न जाने कोई ..|(पृष्ठ ३७..)
------अपनों द्वारा प्रदत्त पीड़ा अधिक कष्टदायी होती है, नैराश्य भी उत्पन्न होता ही है ..
“आश्रयी अहि ने डसा है /
होगये विश्वास खंडित “(पृष्ठ १०६)|
------ संयोग हो या वियोग, प्रकृति वर्णन तो अवश्यम्भावी है...
”अवश मन उष्मित शिराएं देह की /
रच रहा फागुन ऋचाएं नेह की .(पृष्ठ ८९) |
------फूले कचनार, लो फागुन आया रे, घिर घिर बरसो बदरा कारे ...में प्रकृति का सौन्दर्यमय वर्णन है |
------- जीवन दर्शन को भी सुचारू रूप से व्यक्त किया गया है ..
”कुछ स्वप्न अधूरे रहते हैं ..” एवं
“ जीवन की अंधी गलियों में ../
जाने कितने स्वप्न खोगये ..|”..(पृष्ठ ५५)
-------परन्तु कवि निसंकोच सहनशीलता व धैर्य का वरण करता है..
क्यों याद करें जो मिला नहीं/
सोचें क्या हमने पाया है..(प्र-९७)|
------ कवि के अनुसार गीत विश्रांति कारक भी हैं..
”होरहा जीवन हलाहल../
पर अधर पर गीत फिर भी |
------जीवन संघर्ष में कभी कभी नैराश्य भी आता ही है परन्तु कर्म-पथ पर चलते चलते कवि को पता ही नहीं चलता कि—
“जीवन पथ के संघर्षों में /
जाने कब वह शाम होगई |”.....और यह यात्रा अविराम है ..
“मैं राही निर्जन पथ का रे ../
चलना ही है अब जीवन ..|”
------ इस विश्व को सत्यं शिवं सुन्दरं बनाना ही साहित्य का उद्देश्य है ...अतः कवि कह उठता है –
“तमस में भटके पगों को,
सत्य-उज्जवल पथ दिखाने |
शिवं के शुभ गीत गाना चाहता हूँ |”...(प्रीति के मृदु गीत से )
------- प्रस्तुत कृति मूलतः भाव-अनुभूतिजन्य गीत-कृति है अतः कलापक्ष को सप्रयास नहीं सजाया गया है अपितु वह कलात्मक गुणों से स्वतः ही शोभायमान है, सशक्त है| भाषा शुद्ध सरल साहित्यिक हिन्दी है जो कहीं कहीं संस्कृतनिष्ठ है | शब्दावली सुगठित सरल सुग्राह्य है छायावादी शैली के बावजूद दुरूह नहीं | कविवर जयशंकर प्रसाद जैसी प्रसाद गुण युक्त कोमलकांत पदावली में मूलतः अभिधात्मक कथ्य शैली का प्रयोग किया गया है | आवश्यकतानुसार लक्षणा व व्यंजना का भी विम्ब प्रधान प्रयोग है यथा---
“टप टप टप टप नदिया रोई, मन की पीर न जाने कोइ |...अभिधात्मक शैली ..
“अंग अंग भर उमंग, पुरवा के संग अनंग |
खोल रहा ह्रदय बन्ध, बिखरा मृदु मलय गंध |.....लक्षणा ...|
व्यंजना के साथ एक विम्ब प्रस्तुत है –
“मलय झकोरा लगा लपट सा”.....
.”रच रहा फागुन ऋचाएं नेह की ..”
गीत मूलतः १६ मात्रिक एवं १४ मात्रिक चतुष्पदियों में रचित हैं | कुछ गीतों में पंचपदी एवं २० व २२ मात्रिक छंद भी प्रस्तुत किये गए हैं |
गीतों में मूलतः विरह श्रृंगार का रसोद्रेक सर्वत्र विकिरित है ....
“ बिना तुम्हारे रोते उर को,
कैसे कोइ धीर बंधाये |
तुम न आये | “
------परन्तु संयोग के बिना विरह का अस्तित्व कहाँ अतः संयोग श्रृंगार, नख-शिख वर्णन एवं प्रकृति वर्णन, के भी यथानुसार सुन्दर विम्ब प्रस्तुत हुए हैं-
“नील शरशय्या पर अभिराम /
कुमुदिनी का वैभव विस्तार |.”.
“पीत चुनरिया सरसों पहने, हरा भरा घाघरा मखमली |” ...एवं ..
“वाणी में वीणा का गुंजन,
गति में सुरवाला का नर्तन |
उर में दहके मादक मधुवन,
मधुमास रहे जिसमें हर क्षण |”
विविध अलंकारों की छटा भी देखते ही बनती है ...लगभग सभी मुख्य अलंकारों का समुचित प्रयोग हुआ है- .
“घन अन्धकार का बक्ष चीर,
चमके चपला का रज़त चीर” ..एवं
“अर्थ के राज्य में नेह का अर्थ क्या” ...में चीर एवं अर्थ में यमक का सौन्दर्य है |
मालोपमा की छटा देखिये ... जिसमें अनुप्रास, रूपक के विम्ब की छटा भी उपस्थित है ...
“मदिर मधुमय मृदु सरस मधुमास तुम हो,
प्रथम पावन प्यार का उल्लास तुम हो |
मलय सुरभित उल्लसित वातास तुम हो,
स्वाति जलकण निहित चातक आस तुम हो | “
“गहन सुधि के सुभग सुकोमल कर ...” में मानवीकरण है |
ध्वन्यात्मक व अनुप्रास, का समन्वित उदाहरण ..”छल छल छल छल नदिया रोई ..” में दृष्टव्य है |
“है घट रहा चिर नेह स्तर, क्षीण होता वर्तिका स्वर
धूम रेखा बन बिखरता, व्योम में तनु गात नश्वर |”.....में नेह, वर्तिका, दीप, शरीर के विम्बों में शब्द व अर्थ श्लेष का सुन्दर समायोजन हुआ है |
आलोचनात्मक दृष्टि के बिना कोई भी समीक्षा अधूरी ही रहेगी | पुस्तक के कवर फ्लैप पर दोनों वक्तव्य अत्यंत छोटे अक्षरों में हैं सुदृश्य नहीं हैं| दोनों विद्वान् साहित्यकारों द्वारा लिखित भूमिकाएं अनावश्यक दीर्घ कलेवर की हैं जो कृति की भूमिका की अपेक्षा समीक्षा अधिक प्रतीत होती हैं जिनमें कृति व कृतिकार के बारे में कथ्य सुस्पष्ट नहीं होपाते |
संक्षेप में डा ब्रजेश कुमार मिश्र द्वारा रचित ‘अनुभूतियाँ’ कृति चारुता के साथ रचित ह्रदय की अनुभूतियों का सूक्ष्म व कलात्मक अंकन है जिसके लिए रचनाकार बधाई के पात्र हैं |
१०-१२-२०१५ ई. --- डा श्याम गुप्त
सुश्यानिदी, के-३४८, आशियाना मो. ९४१५१५६४६४.
लखनऊ -२२६०१२
-------- एक चिकित्सक, व्यक्ति व समाज की भावनाओं, संवेदनाओं व अपेक्षाओं को अपेक्षाकृत अधिक निकट से परखता है, जान पाता है एवं ह्रदय तल की गहराई से अनुभव कर पाता है| गीत ह्रदय से निसृत होते हैं| संवेदनाओं, अनुभूतियों व भावनाओं के ज्वार जब उमड़ते हैं तो गीत निर्झर प्रवहमान होते हैं--
“दिल के उमड़े भावों को जब,
रोक नहीं पाए,
भाव बने शब्दों की भाषा
रची कहानी है |” .(डा श्याम गुप्त के गीत..’गीत क्या होते हैं’..से )
------ भावुक व्यक्ति स्मृतियों में जीने वाले होते हैं, प्रीति-स्मृतियाँ जीवन की सुकोमलतम स्मृतियाँ होती हैं, संयोग की हों या वियोग की | डा मिश्र ने स्वयं ही कहा है –
“प्रेम के उद्गीत गाना चाहता हूँ ..” (प्रीति के मृदु गीत ..से ) तथा
“उर वीणा में प्रिय गूँज तुम्हारी पायल की ..” (पृष्ठ ६५ )
------- डा मिश्र की कृति ‘अनुभूतियाँ’ के गीत मूलतः छायावादी हैं| पीड़ा व विरह इनका मूल विषय भाव है | पीड़ा जो प्रकृति वर्णन, वसंत, प्रेम, मिलन, विरह, श्रृंगार, स्मृतियाँ, पायल की गूँज व सामाजिक सरोकार के गीतों को भी आच्छादित किये हुए है | कृति के प्रारम्भ के जो तीन मुक्तक हैं, कवि के कृतित्व के सारभाव हैं |..कवि के अनुसार –
“मृदुल उर की व्यंजना का प्रस्फुटन हैं..” | -----पीड़ा प्रीति का उत्कृष्ट भाव है | कवि का कथन है –--
“ये गीत नहीं मेरे अंतर की आहें हैं |” ...तथा..
“उर से जो छलकीं प्रीति कहो,
इनको मत केवल गीत कहो |”
------ प्रस्तुत कृति एसी ही संवेदनाओं के उदगार हैं | जीवन राह पर चलते चलते मनुष्य सुख-दुःख, सफलता-असफलता, अधूरी कामनाओं, संयोग-वियोग, प्रेम-विरह से दो-चार होता है| उन्हीं अनुभूतियों, संवेदनाओं, भावनाओं का भाव-शब्द प्राकट्य है प्रस्तुत कृति, जिसमें भावपक्ष तो उत्कृष्ट है ही कलापक्ष भी सफल, सुगठित, सुष्ठु व श्रेष्ठ
है | यह वस्तुतः लम्बे समय तक मौन साधनारत व्यक्तित्व की मौन पीड़ा, विरह व आप्लावित हुई संवेदनाओं का मुखरित होना है | पीड़ा का उद्रेक जब ह्रदय में आप्लावित होता है तो कवि कह उठता है ...
“झिलमिला कर अश्रुकण कुछ /
व्यथा चुप चुप कह गए |” (पृष्ठ ११८ )...
स्मृतियाँ कवि के जीवन का महत्वपूर्ण भाग है........
”जिनके नेहिल सुस्मरण मुझे, पल पल हुलसाते रहते हैं|”
----- परन्तु पीड़ा व विरह के मुखरित गीतों में भी नैराश्य नहीं है अपितु आशा की भोर का आव्हान है ---
“सबल शुभ संकल्प लाओ /
भोर के तुम गीत गाओ | ( भोर के गीत से..)
और जब यह पीड़ा स्व से पर की ओर, सामाजिक पीड़ा में, व्यष्टि से समष्टि की ओर उन्मुख होती है, परमार्थ सापेक्ष होती है तो कवि गा उठता है ---
“हों परिवर्तन आमूल चूल.. ./
निकलें जीवन के सभी शूल |
मृदु प्रेम जगे सब बैर भूल ...\ ..
जागे नूतन स्वर्णिम विहान .”..(पृष्ठ ३४..) ....तथा कवि दीप ही बना रहना चाहता है ...
”.दीप लघु प्रतिविम्ब मेरा /
दर्द से अनुबंध मेरा ..” (पृष्ठ ४०..) |
----- यह साहित्य का सामाजिक सरोकार रूप है | यह छायावादी काव्य की विशेषता है | यह साहित्य है, यही कवित्व है | जो काव्य का उद्देश्य है |
--------ज्ञान का आडम्बर सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़ा हुआ है | अज्ञानी रो सकता है, परन्तु समाज के ऊंचे पायदान पर खडा व्यक्ति चाहकर भी नहीं रो सकता | सबल, सत्यनिष्ठ, एकाकी, अंतर्मुखी व्यक्ति के लिए पीड़ा व्यक्त करने का माध्यम गीत व साहित्य ही होजाता है ..
“टुकडे टुकडे दर्पण उर का /
टप टप टप टप रजनी रोई /
मन की पीर न जाने कोई ..|(पृष्ठ ३७..)
------अपनों द्वारा प्रदत्त पीड़ा अधिक कष्टदायी होती है, नैराश्य भी उत्पन्न होता ही है ..
“आश्रयी अहि ने डसा है /
होगये विश्वास खंडित “(पृष्ठ १०६)|
------ संयोग हो या वियोग, प्रकृति वर्णन तो अवश्यम्भावी है...
”अवश मन उष्मित शिराएं देह की /
रच रहा फागुन ऋचाएं नेह की .(पृष्ठ ८९) |
------फूले कचनार, लो फागुन आया रे, घिर घिर बरसो बदरा कारे ...में प्रकृति का सौन्दर्यमय वर्णन है |
------- जीवन दर्शन को भी सुचारू रूप से व्यक्त किया गया है ..
”कुछ स्वप्न अधूरे रहते हैं ..” एवं
“ जीवन की अंधी गलियों में ../
जाने कितने स्वप्न खोगये ..|”..(पृष्ठ ५५)
-------परन्तु कवि निसंकोच सहनशीलता व धैर्य का वरण करता है..
क्यों याद करें जो मिला नहीं/
सोचें क्या हमने पाया है..(प्र-९७)|
------ कवि के अनुसार गीत विश्रांति कारक भी हैं..
”होरहा जीवन हलाहल../
पर अधर पर गीत फिर भी |
------जीवन संघर्ष में कभी कभी नैराश्य भी आता ही है परन्तु कर्म-पथ पर चलते चलते कवि को पता ही नहीं चलता कि—
“जीवन पथ के संघर्षों में /
जाने कब वह शाम होगई |”.....और यह यात्रा अविराम है ..
“मैं राही निर्जन पथ का रे ../
चलना ही है अब जीवन ..|”
------ इस विश्व को सत्यं शिवं सुन्दरं बनाना ही साहित्य का उद्देश्य है ...अतः कवि कह उठता है –
“तमस में भटके पगों को,
सत्य-उज्जवल पथ दिखाने |
शिवं के शुभ गीत गाना चाहता हूँ |”...(प्रीति के मृदु गीत से )
------- प्रस्तुत कृति मूलतः भाव-अनुभूतिजन्य गीत-कृति है अतः कलापक्ष को सप्रयास नहीं सजाया गया है अपितु वह कलात्मक गुणों से स्वतः ही शोभायमान है, सशक्त है| भाषा शुद्ध सरल साहित्यिक हिन्दी है जो कहीं कहीं संस्कृतनिष्ठ है | शब्दावली सुगठित सरल सुग्राह्य है छायावादी शैली के बावजूद दुरूह नहीं | कविवर जयशंकर प्रसाद जैसी प्रसाद गुण युक्त कोमलकांत पदावली में मूलतः अभिधात्मक कथ्य शैली का प्रयोग किया गया है | आवश्यकतानुसार लक्षणा व व्यंजना का भी विम्ब प्रधान प्रयोग है यथा---
“टप टप टप टप नदिया रोई, मन की पीर न जाने कोइ |...अभिधात्मक शैली ..
“अंग अंग भर उमंग, पुरवा के संग अनंग |
खोल रहा ह्रदय बन्ध, बिखरा मृदु मलय गंध |.....लक्षणा ...|
व्यंजना के साथ एक विम्ब प्रस्तुत है –
“मलय झकोरा लगा लपट सा”.....
.”रच रहा फागुन ऋचाएं नेह की ..”
गीत मूलतः १६ मात्रिक एवं १४ मात्रिक चतुष्पदियों में रचित हैं | कुछ गीतों में पंचपदी एवं २० व २२ मात्रिक छंद भी प्रस्तुत किये गए हैं |
गीतों में मूलतः विरह श्रृंगार का रसोद्रेक सर्वत्र विकिरित है ....
“ बिना तुम्हारे रोते उर को,
कैसे कोइ धीर बंधाये |
तुम न आये | “
------परन्तु संयोग के बिना विरह का अस्तित्व कहाँ अतः संयोग श्रृंगार, नख-शिख वर्णन एवं प्रकृति वर्णन, के भी यथानुसार सुन्दर विम्ब प्रस्तुत हुए हैं-
“नील शरशय्या पर अभिराम /
कुमुदिनी का वैभव विस्तार |.”.
“पीत चुनरिया सरसों पहने, हरा भरा घाघरा मखमली |” ...एवं ..
“वाणी में वीणा का गुंजन,
गति में सुरवाला का नर्तन |
उर में दहके मादक मधुवन,
मधुमास रहे जिसमें हर क्षण |”
विविध अलंकारों की छटा भी देखते ही बनती है ...लगभग सभी मुख्य अलंकारों का समुचित प्रयोग हुआ है- .
“घन अन्धकार का बक्ष चीर,
चमके चपला का रज़त चीर” ..एवं
“अर्थ के राज्य में नेह का अर्थ क्या” ...में चीर एवं अर्थ में यमक का सौन्दर्य है |
मालोपमा की छटा देखिये ... जिसमें अनुप्रास, रूपक के विम्ब की छटा भी उपस्थित है ...
“मदिर मधुमय मृदु सरस मधुमास तुम हो,
प्रथम पावन प्यार का उल्लास तुम हो |
मलय सुरभित उल्लसित वातास तुम हो,
स्वाति जलकण निहित चातक आस तुम हो | “
“गहन सुधि के सुभग सुकोमल कर ...” में मानवीकरण है |
ध्वन्यात्मक व अनुप्रास, का समन्वित उदाहरण ..”छल छल छल छल नदिया रोई ..” में दृष्टव्य है |
“है घट रहा चिर नेह स्तर, क्षीण होता वर्तिका स्वर
धूम रेखा बन बिखरता, व्योम में तनु गात नश्वर |”.....में नेह, वर्तिका, दीप, शरीर के विम्बों में शब्द व अर्थ श्लेष का सुन्दर समायोजन हुआ है |
आलोचनात्मक दृष्टि के बिना कोई भी समीक्षा अधूरी ही रहेगी | पुस्तक के कवर फ्लैप पर दोनों वक्तव्य अत्यंत छोटे अक्षरों में हैं सुदृश्य नहीं हैं| दोनों विद्वान् साहित्यकारों द्वारा लिखित भूमिकाएं अनावश्यक दीर्घ कलेवर की हैं जो कृति की भूमिका की अपेक्षा समीक्षा अधिक प्रतीत होती हैं जिनमें कृति व कृतिकार के बारे में कथ्य सुस्पष्ट नहीं होपाते |
संक्षेप में डा ब्रजेश कुमार मिश्र द्वारा रचित ‘अनुभूतियाँ’ कृति चारुता के साथ रचित ह्रदय की अनुभूतियों का सूक्ष्म व कलात्मक अंकन है जिसके लिए रचनाकार बधाई के पात्र हैं |
१०-१२-२०१५ ई. --- डा श्याम गुप्त
सुश्यानिदी, के-३४८, आशियाना मो. ९४१५१५६४६४.
लखनऊ -२२६०१२
शनिवार, 5 दिसंबर 2015
रविवार, 29 नवंबर 2015
असहमति प्रकटीकरण व स्वीकरण एवं मधुमयता – मधुला विद्या ---डा श्याम गुप्त ...
असहमति प्रकटीकरण व स्वीकरण एवं
मधुमयता – मधुला विद्या
प्रकृति हमें जीवन देती है परन्तु स्वयं
प्रकृति शक्तियां अपनी लय में सतत: स्व-नियमानुसार गतिशील रहती हैं, जीवन के
अस्तित्व की चिंता किये बिना। प्रकृति आपदाएं प्राणियों को प्रभावित करती
हैं| प्राणी जीना चाहते हैं जिजीवीषा भी प्रकृति की ही देन हैं। अतः
वे अपने अस्तित्व के लिए प्रयत्न करते
हैं, प्रकृति को संतुलित या नियमित करने हेतु । मनुष्येतर प्राणी प्रायः विचारवान
नहीं होते अतः स्वयं को प्रकृति के अनुरूप ढालकर उसके अनुसार जीवन जीते हैं| मनुष्य विचारशील है अतः वह कभी स्वयं को प्रकृति के
अनुरूप ढालकर कभी प्रकृति को स्वयं के अनुसार नियमित करने का उपक्रम करता है | यही
संसार है, जगत है जीवन है | तब प्रश्न
उठता है मनुष्य के विचार
स्वातंत्रय एवं तदनुसार कर्म स्वातंत्रय का |
अस्तित्व बहरूपिया है। बहुत से नाम रूप | कुछ जाने हुए अधिकाँश
बिना जाने हुए। प्रत्यक्ष अनुभूति में यह दृष्ट सांसारिक भाव है, लौकिक
तत्व है।
परन्तु इसका अंदरूनी तंत्र विराट है। अस्तित्व नियमबद्ध हैं। सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुद्ध आदि ग्रहों को नियमबद्ध पाया गया है। ये नियम शाश्वत कहे जाते हैं | प्रकृति
और जीव के कृतित्व में परस्पर
अन्तर्विरोध तो हैं परन्तु सामंजस्य रूप
प्रकृति ने प्राणी को कर्म
स्वातंत्रय भी दिया है अर्थात मनुष्य परिस्थितियों का दास नहीं है। इस स्वातंत्र्य
के उपभोग की दृष्टि भले ही भिन्न-भिन्न हो अपने विचार व परिस्थितियों के अनुसार
।
लोकतंत्र में विचार स्वातंत्र्य ही उच्चतर मूल्य है। परन्तु विचार
प्रकट करने
में भाषा की अहं भूमिका है और भाषा-वाणी
में मधुमयता की। हमारे यहाँ विचार अभिव्यक्ति का स्वातंत्रय
है। परन्तु दलतंत्र में सबकी अपनी रीति और अपनी
प्रीति के कारण मधुमयता का अभाव है । व्यक्तिगत आरोपों से जनतंत्र को क्षति होती है। आरोपों प्रत्यारोपों की मधुमय अभिव्यक्ति कठिन नहीं। सम्मानजनक अभिव्यक्ति के माध्यम से असहमति प्रकट करना ही सम्मानजनक
तरीका है। लेकिन दलतंत्र में परस्पर सम्मान
का अभाव है। आखिरकार
इसका मूल कारण क्या है? हम विश्व के सबसे बड़े
जनतंत्र हैं। तो भी वैचारिक असहमति के प्रकटीकरण में मधुमयता का अभाव
क्यों
है?
ज्ञान सदा से है। उसका लौकिक प्राकट्य सृष्टि रचना के बाद हुआ। ऋग्वेद निस्संदेह विश्व का प्रथम ज्ञानोदय एवं ज्ञान अभिलेख है लेकिन आनंद प्राप्ति की मधुविद्या उसके बहुत पहले से
है। शंकराचार्य के अनुसार ...यह मधु ज्ञान हिरण्यगर्भ
ने विराट प्रजापति को सुनाया था। उसने मनु को बताया और मनु ने इक्ष्वाकु को ...| मधुमयता
की अनुभूमि आसान नहीं। सुनना या पढ़ना तो उधार का
ज्ञान होता है। अनुभूति अपनी है।
गीता
के श्रीकृष्ण ने यही ज्ञान परम्परा दोहराते हुए अर्जुन से कहा कि काल के प्रभाव
में यह ज्ञान नष्ट हो गया।
आधुनिक काल में भी यही स्थिति है।
दलतंत्र में मधुमयता क्यों नहीं है? वस्तुतः हम अपनी संस्कृति से प्रेरित नहीं हैं।
भारतीय परंपरा मधुमय है। समूचा वैदिक साहित्य मधुरस से लबालब है। प्राचीन भारत में मधुमयता के बोध को मधुविद्या कहा
गया है। छान्दोग्य उपनिषद् में मधु विद्या का उल्लेख है। असौ
आदित्यो देवमधु। ....यह अपनी-अपनी
अनुभूति है। वैदिक पूर्वजो का हृदय मधुमय है। उन्हें सूर्य किरणें भी
मधुमय प्रतीति होती हैं। रसौ वै वेद ..वेद रसों के रस हैं, अमृतों
का अमृत हैं। कैसी प्यारी
मधुमय अभिव्यक्ति है। अमृत सम्पूर्णता के साथ सदा अस्तित्वमान रहने की आन्तरिक अनुभूति है। वेद-रस उन्हीं “अमृतों
का अमृत” हैं।
वृहदारण्यकोपनिषद्
में याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी को मधुमयता का मूलतत्व समझाया,-“इयं पृथ्वी सर्वेषा भूतानां मध्वस्यै पृथिव्यै सर्वाणि भूतानि मधु- यह
पृथ्वी सभी भूतों (समस्त अस्तित्ववान मूल तत्वों) का मधु है और सब भूत इस पृथ्वी
के मधु। धर्म
और सत्य समस्त भूतों का मधु है, समस्त भूत इस सत्य व धर्म के मधु है।
सर्वत्र मधु की अनुभूति राष्ट्र व विश्व को
मधुमय बनाने की अभीप्सा है।
यह विद्या हमारे पूर्वजों की परम
आकांक्षा है। यह भौतिक जगत्
का माधुर्य है, दर्शन
में परम सत्य है, और अंततः सम्पूर्णता है।
मनुष्य ही विराट जग
की मूल इकाई है, मधु जगत् की मधु इकाई है। मनुष्य को मधुमय होना चाहिए। इसका ज्ञान वैदिक काल से भी प्राचीन है।
सर्वात्मलयता व संवेदनशीलता व सहिष्णुता गहन
आत्मीय भाव है। तब पत्थर भी प्राणवान दिखाई
पड़ते हैं और नदियां भी, सभी प्राणी अपने समान । दलतंत्र की नीति में हम
सबकी संवेदनाएं क्यों नहीं
जगतीं, सहिष्णुता कहाँ चली जाती है ।..हम
क्यों भूल जाते हैं –
सर्वेन सुखिना सन्तु, सर्वे सन्तु
निरामया ,
सर्वे पश्यन्तु भद्राणि, मा कश्चिद्
दुखभाग्भवेत |
-----यहाँ सहिष्णुता या असहिष्णुता का कोई अभिप्रायः नहीं रह जाता |
ऋग्वैदिक ऋषि निवेदन करते हैं -अस्य योजनं हरिष्ठा मधु त्वा मधुला चकार। “हम सब विष भाग को सूर्य किरणों के पास भेजते
है। मधुविद्या विष को अमृत बनाती है। मधुविद्या अमरत्व है। सूर्य प्रत्यक्ष देव हैं। वे जगत् का प्राण हैं। अमृत और विष
उन्हीं का है। हम सब प्राणी, वनस्पतियां, औषधियां और सभी जीव भी उन्हीं के। वे इस विष से प्रभावित नहीं
होते। विष और अमृत वस्तुतः मृत्यु और अमरत्व के प्रतीक हैं| मृत्यु
सत्य है अमृतत्व भी सत्य है। मृत्यु और अमरत्व विरोधी नहीं हैं।
दोनो साथ हैं।
राजनीति को भी मधुमय होना चाहिए। वह राष्ट्र निर्माण का मधु है | शासक सत्ता सूर्य का
प्रतीक है | जैसे विष सत्य है,
अस्तित्व में है, वैसे ही अमृत भी सत्य है, अस्तित्व में है। वैसे ही राजनीति में पक्ष सत्य है, विपक्ष
भी सत्य है। सहमति
का मूल्य है और असहमति का भी। असहमति के
प्रकटीकरण व स्वीकरण में अमृत भाव
चाहिए, मधु भाव । यथा ऋग्वेद का अंतिम मन्त्र ---
“ समानी अकूती समानी हृदयानि वा
समामस्तु वो मनो यथा वै सुसहामती |”
...तथा ..
स्वामी बल्लभाचार्य कृत मधुराष्टकं
से...
‘वचनं
मधुरं चरितं
मधुरं वसनं
मधुरं वलितं
मधुरम् ।
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ||’
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ||’
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