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शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

श्याम करे गुरु वन्दना, सब दुखों का अंत.---ड़ा श्याम गुप्त ...

गुरु पूर्णिमा पर----श्याम करे गुरु वन्दना, सब दुखों का अंत ----.ड़ा श्याम गुप्त ...

                                


गुरु पूर्णिमा पर----

गुरु

दावानल संसार में, दारुण दुःख अनंत,|
श्याम करे गुरु वन्दना, सब दुखों का अंत ||

सदाचार स्थापना, शास्त्र अर्थ समझाय।
आप करे सदआचरण, सो आचार्य कहाय॥

यदकिन्चित भी ग्यान जो, हम को देय बताय।
ज्ञानी उसको मानकर, फ़िर गुरु लेंय बनाय॥

इस संसार अपार को किस विधि कीजै पार।
श्याम गुरु कृपा पाइये, सब विधि हो उद्धार।।

अध्यापक को दीजिये, अति गौरव सम्मान।
श्याम करें आचार्य का, सदा दश गुना मान ॥

गु अक्षर का अर्थ है, अन्धकार अज्ञान।
रु से उसको रोकता, सो है गुरु महान ॥

जब तक मन स्थिर नहीं, मन नहिं शास्त्र विचार।
गुरु की कृपा न प्राप्त हो, मिले न तत्व विचार॥

आलोकित हो श्याम का,मन रूपी आकाश ।
सूरज बन कर ज्ञान का, जब गुरु करे प्रकाश॥

गुरु पूर्णिमा पर--त्रिभुवन गुरु और जगत गुरु ...ड़ा श्याम गुप्त ...

                                         
गुरु पूर्णिमा पर------
                                   अन्योनास्ति----जगत गुरु-----ईश्वर........

त्रिभुवन गुरु और जगत गुरु,जो प्रत्यक्ष प्रमाण।
जन्म मरण से मुक्ति दे, "ईश्वर" करूं प्रणाम॥


ईशोपनिषद के प्रथम मन्त्र .------

.”ईशावास्यम इदं सर्वं यद्किंचित जगत्याम जगत |”
”तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृध कस्यविद्धनम "


के प्रथम भाग..”ईशावास्यम इदं सर्वं यद्किंचित जगत्याम जगत |” का काव्य-भावानुवाद......
कुंजिका- इदं सर्वं =यह सब कुछ...यदकिंचित=जो कुछ भी ...जगत्याम= पृथ्वी पर, विश्व में ...जगत= चराचर वस्तु है ...ईशां =ईश्वर से ..वास्यम=आच्छादित है |

मूलार्थ- इस समस्त विश्व में जो कुछ भी चल अचल, जड़,चेतन वस्तु, जीव, प्राणी आदि है सभी ईश्वर के अनुशासन में हैं, उसी की इच्छा /माया से आच्छादित/ बंधे हुए हैं/ चलते हैं|

ईश्वर माया से आच्छादित,
इस जग में जो कुछ अग-जग है |
सब जग में छाया है वह ही,
उस इच्छा से ही यह सब है |

ईश्वर में सब जग की छाया,
यह जग ही है ईश्वर-माया |
प्रभु जग में और जग ही प्रभुता,
जो समझा सोई प्रभु पाया |

अंतर्मन में प्रभु को बसाए,
सबकुछ प्रभु का जान जो पाए |
मेरा कुछ भी नहीं यहाँ पर,
बस परमार्थ भाव मन भाये |

तेरी इच्छा के वश है नर,
दुनिया का यह जगत पसारा |
तेरी सद-इच्छा ईश्वर बन ,
रच जाती शुभ-शुचि जग सारा |

भक्तियोग का मार्ग यही है ,
श्रृद्धा भाक्ति आस्था भाये |
कुछ नहिं मेरा, सब सब जग का,
समष्टिहित निज कर्म सजाये |

अहंभाव सिर नहीं उठाये,
मन निर्मल दर्पण होजाता|
प्रभु इच्छा ही मेरी इच्छा,
सहज-भक्ति नर कर्म सजाता ||


-----------------ईशोपनिषद के प्रथम मन्त्र .. "के द्वितीय भाग ..”तेन त्यक्तेन भुंजीथा..." का काव्य-भावानुवाद......

कुंजिका – तेन = उसी के /उसे...त्यक्तेन= उपयोगार्थ दिए हुए /त्याग के भाव से...भुंजीथा = भोगकर /भोगना चाहिए ...

मूलार्थ- उसके द्वारा उपयोगार्थ दिए हुए पदार्थों को ही भोगना चाहिए, उसे ईश्वर का दिया हुआ ही समझकर ( प्राकृतिक सहज रूप से प्राप्य)...अथवा उसे त्याग के रूप में, अनासक्त भाव से भोगना चाहिए |

सब कुछ ईश्वर की ही माया,
तेरा मेरा कुछ भी नहीं है |
जग को अपना समझ न रे नर !
तू तेरा सब कुछ वह ही है |

पर है कर्म-भाव आवश्यक,
कर्म बिना कब रह पाया नर |
यह जग बना भोग हित तेरे,
जीव अंश तू, तू ही ईश्वर |

उसे त्याग के भाव से भोगें,
कर्मों में आसक्ति न रख कर|
बिना स्वार्थ, बिन फल की इच्छा,
जो जैसा मिल जाए पाकर |

कर्मयोग है यही, बनाता -
जीवनमार्ग सहज, शुचि, रुचिकर |
जग में रहकर भी नहिं जग में,
होता लिप्त कर्मयोगी नर |

पंक मध्य ज्यों रहे जलज दल,
पंक प्रभाव न होता उस पर |
सब कुछ भोग-कर्म भी करता,
पर योगी कहलाये वह नर ||


ईशोपनिषद के प्रथम मन्त्र .--- के तृतीय भाग ..”मा गृध कस्यविद्धनम." का काव्य-भावानुवाद......

कुंजिका –मा गृध =लालच मत कर/ अपहरण मत कर ...कस्यविद्धनम = किसी के भी धन एवं स्वत्व का /किसी के भी/ किसका हुआ है ..धनं = धन की /यह धन...|

मूलार्थ -किसी के भी धन व स्वत्व का अपहरण व लालच मत करो | यह धन किसी का नहीं हुआ है |


किसी के धन की सम्पति श्री की,
इच्छा लालच हरण नहीं कर |
रमा चंचला कहाँ कब हुई ,
किसी एक की सोच अरे नर !

धन वैभव सुख सम्पति कारण,
ही तो द्वेष द्वंद्व होते हैं|
छीना-झपटी, लूट हरण से,
धन वैभव सुख कब बढ़ते हैं |

अनुचित कर्म से प्राप्त सभी धन,
जो कालाधन कहलाता है |
अशुभ अलक्ष्मी वास करे गृह,
मन में दैन्य भाव लाता है |

शुचि भावों कर्मों को प्राणी,
मन से फिर बिसराता जाता |
दुष्कर्मों में रत रहकर नित,
पाप-पंक में धंसता जाता |

यह शुभ ज्ञान जिसे हो जाता,
शुभ-शुचि कर्मों को अपनाता |
ज्ञानमार्ग युत जीवन-क्रम से,
मोक्ष मार्ग पर चलता जाता ||

गुरुवार, 23 जुलाई 2015

उपन्यास "गुफा वाला ख़ज़ाना" अंक:=2

         गुफा वाला ख़ज़ाना
                 अंक:-2

अब तक काफ़ी रात बीत चुकी थी।
तथा अब चंद्रमा भी, अपने पूर्ण वेग से उस निर्जन वन को अपनी शीतलता प्रदान कर रहा था।
         "इस समय कितनी बजी होगी ?
चिली ने स्वयं से प्रश्न किया।

    "शायद रात के बारह बज चुके होंगे" जैसा कि माँ बताती हैं। कि आधी रात में चंद्रमा अपनी पूरी चाँदनी के साथ चमकता हैं।
अचानक आई इस माँ की बात ने चिली को अपने घर की याद दिला दी। उसे अपने माँ-पिताजी के परेशान होने के अनेक ख्याल दिमाग़ में आने लगे।दिन भर की वो सारी घटनाएँ अब चिली के मानस पटल पर घूमने लगी ,जो चिली के साथ घटी थी।
   चिली को वो सब बातें याद आने लगी कि , कैसे चिली अपनी सहेलियों झुमरी, सुमेना और सुरीली के साथ खेल रही थी। उसे वो वाकया अब भी याद हैं , जब उसे आज कक्षा  में एक कविता सुनानी पड़ी थी।
और आज तो उसने अपनी गुड़िया के लिए नये कपड़े भी सिले थे।प्रमिला का घोड़ा , कैसे आज ठुमक-ठुमक कर नाच रहा था। और हाँ  वो बाँके मोहन की भैंस भी तो आज गुम गई थी।

"कहीं मैं भी गुम तो नहीं हो जाऊँगी" 
नहीं ! मैं तो बहादुर लड़की हूँ।
          
       चिली अभी यह सब सोच ही रही थी , कि उसे अचानक फिर से वो आवाज़ सुनाई दी। जो अब इस शांत वातावरण में  और तेज सुनाई पड़ रही थी।
         चिली एक बार पुन: उस आवाज़ का पता लगाने , आगे चल पड़ी।
उसे एक बार फिर से  महसूस हुआ कि कोई है ,जो अभी भी उसका पीछा किए जा रहा हैं।चिली ने डर के मारे , अपने कदम तेजी से बढ़ाने शुरू कर दिए।  इस घबराहट के मारे उसके होंठ सूखने लग गए।

  अब वो पेड़ों की झुरमुट से निकलकर एक खुले क्षेत्र में आ पहुँची
जहाँ सुजला नदी अपने शांत प्रवाह से बह रही थी, तथा चंद्रमा की धवल चाँदनी उसकी शोभा में चार चाँद लगा रही थी।
चिली ने नदी में  हाथ-पैर धोए , पानी पीया , तथा कुछ देर विश्राम करके पुन: आगे चल पड़ी।
चिली को एक बार फिर से महसूस हुआ कि , कोई है जो अब भी उसका पीछा किये जा रहा हैं।
पर यह हैं कौन ? चिली इसका पता नहीं लगा पा रही थी।
उसने अब दौड़ना शुरू कर दिया । पर यह क्या ?
अब तक तो उसे सिर्फ़ ये ही महसूस हो रहा था कि,  जैसे कोई उसका पीछा कर रहा हैं।पर अब तो उसे कुछ अजीबो ग़रीब आवाज़े भी सुनाई पड़ने लग गई।
यह आवाज़ तो किसी छन- छन से बजते घुँघरू की आ रही हैं।चिली ने क्षणिक ख़ामोश होकर सोचा ।
जंगल में अकेली चिली का कलेजा, मारे डर के धक-धक  कर रहा था।
आगे रास्ता बंद हो जाने के कारण, चिली को एक बार फिर से घने जंगल में  ही दाख़िल होना पड़ा।
इस समय रात के लगभग दो बजने को थे ।चिली रात की इस तन्हाई में चुपचाप भयावह जंगल में आगे बढ़े जा रही थी।
चिली का गाँव "पंचपुर "चारों और पहाड़ियों से गिरा हुआ हैं।, लगभग 40 -50 घरों वाला गाँव हैं। यहाँ के अधिकांश लोगों का मुख्य पेशा , जंगल से लकड़ी काटना हैं। चिली के पिता भी गाँव के एक प्रमुख लकड़हारे हैं।गाँव में पशुपालन भी किया जाता हैं।जिसकी देखभाल का मुख्य जिम्मा घर की औरतों पर था।बच्चे  इन पशुओं को चराने के लिए, जंगलों के आसपास के पहाड़ी क्षेत्रों में जाया करते हैं।किसी  को भी घने  जंगल में प्रवेश की अनुमति नहीं थी।हाँ कभी कभार दिन में , अपने खोए हुए  पशुओं को ढूँढ़ने वो नदी तक ज़रूर  आ जाते थे।
चिली को नदी तक का रास्ता तो कुछ-कुछ याद था ,पर अब आगे का रास्ता उसके लिए पूर्णतया अनजान ही था।
उसे चलते हुए अब तक क़रीब आधा घंटा हो चुका था । ज्यों - ज्यों चिली इस जंगल में  आगे बढ़ रही थी , त्यों -त्यों उसके लिए ख़तरा बढ़ता ही जा रहा था।
सहसा चिली को सामने से किसी के आने की आहट सुनाई दी। यह एक जंगली हाथी था। जो एक  सुअर का पीछा करते हुए  इधर ही आ रहा था ।
       चिली का गला डर के मारे सूखने लग गया। उसके पूरे बदन में ,इस दृश्य ने कम्पकम्पी उत्पन्न कर दी। जब यह मामला शांत हुआ, तब कहीं जाकर उसकी जान में जान आई।

"आख़िर वो रहस्यमयी आवाज़ किसकी हो सकती हैं  ?  मैने ऐसी भयानक आवाज़ पहले तो इन जंगलों में कभी नहीं सुनी।

मुझे लगता हैं यह किसी के चीखने की आवाज़ हैं।
शायद  इंसानो जैसी ।
"पर इस खौफनाक जंगल में भला इतनी रात गये कौन हो सकता हैं।
    कहीं  मेरे साथ कोई छल तो नहीं हो रहा हैं ?

चिली के लिए यह प्रश्न निरंतर उलझन पैदा कर रहा था , कि वो रहस्यमयी आवाज़ आख़िर  हैं  किसकी ?
और इधर छन -छन की आवाज़ भी उसके डर को और बढ़ा रही थी।

"कहीं ये किसी भूत या प्रेतात्मा का कोई छल तो नहीं हैं ? क्योंकि यदि ये आवाज़ किसी इंसान की होती तो वो अब तक उसे मिला क्यों नहीं ?

"पर मास्टर जी  तो कहते  हैं  कि भूत-प्रेत कुछ भी नहीं होता हैं"

"पर क्या सचमुच में भूत -प्रेत नहीं होते हैं ?  फिर उस दिन हरिया की बहन ये क्यों कह रही थी कि , कैसे अचानक रात में  उसका बछड़ा ग़ायब  हो गया था, 
और सुबह जब लोगों नें एक तांत्रिक  से पूँछा तो उसने बरगद वाले भूत द्वारा पकड़े जाने की बात कही।
         इस ऊहापोह की स्थिति से चिली परेशान हो उठी। उसका बाल मन कल्पना की ऊँची-ऊँची उड़ान भरने लग गया।
चिली इस रहस्यमयी आवाज़ के  बारें में विचित्र कल्पनाएँ करती हुई आगे बढ़ रही थी।उसकी यह स्थिति तब तक ऐसी ही बनी रही, जब तक की अगले संकट से उसका सामना नहीं हुआ ।
चिली का यह अगला संकट था ही बड़ा डरावना, क्योंकि उसें आगे जो कुछ भी  दिखाई दिया ,वो हर किसी को भी इस स्थिति से गुजरने में विवश कर सकता हैं। दरअसल चिली को ज़मीन पर एक  लेटी हुई एक मानवाकृति दिखाई दी। चिली  धीरे -धीरे उस मानवाकृति के क़रीब गई । जब वो उसके क़रीब पहुँची  तो वहाँ का मंजर देखकर उसका चेहरा डर के मारे सफ़ेद पड़ गया।उसकी आवाज़ मानो गले में ही अटक गई ।
यह एक औरत थी ।जो औंधे मुँह ज़मीन पर लेटी हुई थी।

"कहीं यह चुड़ैल या प्रेत आत्मा तो नहीं ?
हो सकता है कि यह मेरे साथ इतनी देर से छल कर रही हो। और मुझे मारना चाहती हो ?
क्योंकि कभी-कभी प्रेत आत्माएँ किसी को मारने के लिए , इस प्रकार के छल करती हैं। ऐसा मेरी सहेलियाँ भी बताती हैं"
  
चिली ने पास के ही एक पेड़ के पीछे छिपकर यह सब शांति से समझने का प्रयास किया।
वो कुछ  देर तक उस औरत के उठने के इंतज़ार में  पेड़  के पीछे ही छिपी रही। पर जब बहुत देर तक उसे वो औरत हिलती डुलती सी प्रतीत नहीं हुई , तो उसने साहस बटोरकर उस औरत के पास जाने का निश्चय किया।
"मुझे इसके पास चलकर देखना चाहिए " कही यह बेहोश तो नहीं हो गयी ?
इस प्रकार का विचार कर चिली उस औरत के पास आ गई, और उसने उसे उठाने का प्रयास किया ।मगर वो औरत टस से मस नहीं हुई।
थक हार कर चिली ने उसके शरीर को , जो अब तक उल्टा पड़ा था। सही करने का प्रयास किया ।मगर जब उसने उसे सही किया तो डर के मारे उसकी घिग्गी बँध गई।उसके चेहरे की हवाईयाँ उड़ गई । चिली का पूरा बदन पसीने से तर - बतर  हो गया।
वो औरत मर चुकी थी। चिली ने किसी इंसान की ऐसी मौत पहले कभी नहीं देखी थी। उस औरत का पुरा जिस्म लहूलुहान था।उसका चेहरा तथा गला , जंगली जानवरों के नाखूनों से नोचा हुआ था। उस औरत के सिर से खून निकला हुआ था।

ओह ! जंगल के खूंखार जानवरों ने इसकी क्या दशा बना दी ? कहीं मेरी भी………… आगे बोलते बोलते चिली कि ज़बान अटक गई।उसने  कतई ये नहीं सोचा था की, इस बियाबान में उसकी ऐसी दशा होने वाली हैं।

"अच्छा तो अब समझ में आया। कि वो आवाज़, जो मैंने कई बार सुनी । वो  इसी औरत की थी"
"पर यह इतनी रात गये आख़िर यहाँ कर क्या रही हैं ? और ये है  कौन ?
यहाँ इस भयानक जंगल में क्या करने आयी थी ?
"कहीं  ये  रास्ता तो नहीं भटक गई थी ? चिली ने अपने स्वप्न सागर में गोते लगाकर ऐसे कई प्रश्न उत्पन्न कर लिए।
मगर उसे वहाँ अपने इन अनसुलझे प्रश्नों का उत्तर देने वाला कोई नहीं दिखा । थी तो केवल  चंद्रमा की धवल चाँदनी , और आस - पास की पेड़ लताएँ, जो किसी भी सूरत में उसके इन प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ थी।

(तो मित्रों  ये थी उस रहस्यमयी आवाज़ की कहानी , आगे चिली के साथ और क्या - क्या होता हैं।कैसे लगता हैं उसे खजाने का पता यह जानने के लिए पढ़ते रहे मेरे साथ "गुफा वाला खजाना " का अगला अंक जो आपकी सेवा में जल्द ही होगा।कैसा लगा ये अंक  प्रतिक्रिया ज़रूर दे। 
तब तक लिए "वंदेमातरम"
  
आपका :-अनमोल तिवारी"कान्हा"

बुधवार, 22 जुलाई 2015

हिन्दी के विरुद्ध एक और षडयंत्र-----ड़ा श्याम गुप्त ....


                                            

 -----------हिन्दी के विरुद्ध एक और षडयंत्र-----
-----जिस प्रकार पुरा युग में संसार की समस्त भाषाओं का संस्कार कर के संस्कृत भाषा बनी थी जो विश्व भाषा हुई, उसी प्रकार समस्त भारतीय भाषाओं का समन्वय-संस्कार करके आज की हिन्दी बनी और देश में ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित हुई |
---प्रारम्भ से ही हिन्दी के विरुद्ध षड्यंत्र रचे जाते रहे हैं क्योंकि यह देश की सांस्कृतिक समन्वय की भाषा व पहचान बनती जारही है | दक्षिण भारत में हिन्दी विरोध , अपने ही मूल प्रदेश में , भोजपुरी, अवधी , ब्रजभाषा, उर्दू आदि बोलियों को हिन्दी से प्रथक रूप में अपनाने का षडयंत्र, जबकि ये सभी देश भर की बोलियाँ हिन्दी की ही बहनें हैं, हिन्दी में सम्मिलित हैं |
----- अब नीचे चित्र में समाचार देखिये ------ हम बड़े प्रसन्न एवं गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं कि एक विदेशी युवती हिन्दी में लिखती है, बात करती है , राजस्थानी सीख रही है ..परन्तु राजस्थानी को भाषा बताकर, उसे हिन्दी बहन होना नकारकर, राजस्थानी को भारत में न्याय न मिलने की बात फैला कर , हिन्दी, हिन्दू, हिन्स्तान की संस्कृति व देश के विरुद्ध सांस्कृतिक व राजनैतिक षडयंत्र की नीव डाली जा रही है ...मैकाले के षडयंत्र की भाँति..|
---हम सोचें व समझें ....|

सोमवार, 20 जुलाई 2015

उपन्यास :-गुफा वाला ख़ज़ाना (अंक:-1)

Sahitysangam.blogspot.com

Monday, 20 July 2015

उपन्यास गुफा वाला ख़ज़ाना (अंक:-1)

…………………………………………………………
                  ।।श्री।।
ऊँ वक्रतुण्डं महाकाय,
              सूर्यकोटि समप्रभ:।
निर्विघ्न कुरु मे देवे
              सर्व कार्यषु सर्वदा।।
    
        ***गुफा वाला ख़ज़ाना****

लेखक की कलम से………………
    प्रस्तुत बाल उपन्यास" गुफा वाला ख़ज़ाना " एक रोचकीय , एवं रोमांचकारी उपन्यास हैं।यह एक  14 वर्षीय मासूम लड़की "चिली"की कहानी हैं। जो अचानक आयी एक आवाज़ को सुनकर, विस्मित सी हो जाती है। तथा आवाज़ किसकी हैं।यह पता लगाने के लिए, जंगल में पहुँच जाती हैं।वहाँ उसे एक औरत का ,मृत शरीर दिखाई पड़ता हैं ।सहमी सी चिली नज़दीक जाकर देखती हैं।उसके हाथ में एक नक्शा , तथा पत्र था । जिसमें एक खजाने का रहस्य था।
आगे क्या होता हैं ?, तथा चिली किन -किन मुसीबतों का सामना करते हुए वहाँ पहुँचती हैं? क्या उसे ख़ज़ाना मिलता हैं ? इन प्रश्नों के उत्तर तो आप उपन्यास पढ़कर ही जान पाएँगे।
पर इतना तो स्पष्ट हैं , कि यह उपन्यास एक आश्चर्यजनक एवं साहसिक यात्रा का अनुपम उदाहरण हैं।
मेरे  इस उपन्यास में बस यही उद्देश्य निहित हैं कि बाल मन इस उपन्यास से साहस की प्रेरणा पाकर निश्चय ही उत्तम सोच विकसित कर सकेंगे 
             मैं अपने इस उद्देश्य में कितना सफल हो पाया , यह तो आप प्रबुद्ध पाठक ही समझ  पाएँगे।फिर भी भूलवश और वर्तनीगत  हुई त्रुटियों  के लिए में सादर क्षमाप्रार्थी हूँ।

""इस  उपन्यास  की विषयवस्तु पूर्णतया काल्पनिक है । और इसका किसी भी घटना से कोई संबंध नहीं हैं। फिर भी अगर  संबंध पाया जाता हैं, तो यह संयोग मात्र ही माना जाएगा""।

आप पाठकों के सुझावों का सहृदय  स्वागत हैं।आप श्री इसे ज़रूर पसंद करेंगे , इसी आशा में 
आपका अनुज
        •• अनमोल तिवारी"कान्हा"••
---------------------------------------------------------------------------
           गुफा वाला ख़ज़ाना 
                 (अंक:-1) 
साँय का समय, हवा अपने मंद प्रवाह से उस शांत वातावरण  में अनुगमन कर रही थी।जहाँ नन्ही सी "चिली " रोज़ की भाँति अपनी सहेलियों के साथ , गाँव में पीपल के वृक्ष तले, अपने स्वर्णिम बचपन के सावन में खेलेने में व्यस्त  हैं।"चिली" को अभी तक यह डर  नहीं  हैं कि , उसे फिर से विद्यालय में गृहकार्य पुरा ना होने पर डाँट खानी पड़ सकती हैं। जैसी कि कल उसकी प्यारी सखी सुरीली को पड़ी थी। सुरीली चिली की सबसे प्यारी सखी  हैं ।और दोनों एक ही कक्षा में  पढ़ती हैं।
चिली अपनी बाल सखियों के साथ, अभी तक खेलने में व्यस्त हैं।अब जबकि  अस्ताचलगामी  सूर्य का प्रकाश  धीरे -धीरे विलुप्त होने की कगार पर हैं।चिली की सब सहेलियाँ एक - एक करके वहाँ से खिसकने लगी ।
चिली और सुरीली ने जब देखा कि उनकी सब सखियाँ जा चुकी हैं तो उन्होंने भी  घर चलने का निश्चय किया और शैने:-शैने: अपने  क़दमों को बढाती हुई दोनों पुराने शिव मंदिर तक आ पहुँची। अभी वो कुछ कदम और आगे चली ही  होंगी कि  अचानक उनकी एकाग्रता भंग हुई।उन्हें एक आवाज़ सुनाई दी। जो पास के ही जंगल से आ रही थी।जहाँ वो दोनों कभी-कभी अपने पिताजी के साथ जाया करती थीं।और लकड़ियों के  गट्ठर  लाया करती थीं।
चिली जिसकी उम्र अभी चौदह बरस ही होगी साँवला सलौना रूप , नटखट हँसी से लिप्त मासूम चेहरा, बिल्कुल अपनी माँ से मिलती शक्ल जो वीरता और साहस की कहानियाँ अक्सर चिली को सुनाया करती थी।
"चिली यह आवाज़ किसकी हो सकती  ? सुरीली ने क्षण भर के लिए  गंभीर हो लम्बी सी साँस छोड़ते हुए पूँछा "

"मुझे लगता है यह बेचार किसी जंगली जानवर की आवाज़ हैं। जो शायद किसी शिकारी के चंगुल में फँस गया हैं"
चिली ने प्रत्युत्तर में कहा और सुरीली की और देखने लग गई।

अब तक दोनों चलते-चलते सुरीली के घर तक पहुँच गई । चिली सुरीली से विदा हो , अपने घर की तरफ़ बढ़ने लगी कि अचानक उसे वो  आवाज़ फिर से सुनाई दी। जो उसने पहले सुनी थी। चिली ने जब दोबारा उस आवाज़ को सुना, तो उसने निश्चय किया कि ,वो इस आवाज़ का पता लगाएगी।और उसने अपने कदम वापस जंगल की तरफ़ जाने रास्ते की और मोड़ लिए।
अपने गाँव से बाहर निकलकर चिली उस रहस्यमयी आवाज़ का पता लगाने जंगल की और निकल पड़ी।
पड़ो की झुरमुट से निकलकर अब वो एक खुले स्थान पर आ गई।
इधर अब चंद्रमा धीरे-धीरे आसमान से अपनी चाँदनी छितराने लगा ।चिली को  एक बार फिर वही आवाज़ सुनाई दी ।
उसने अपने कदम तेजी से उस आवाज़ की तरफ़ बढ़ा दिये।पर तभी, अचानक उसे महसूस हुआ कि शायद कोई उसका पीछा कर रहा हैं।अब चुकि:  चिली उस जंगल में अकेली थी। उसे इस नई मुसीबत से जबरदस्त घबराहट होने लगी। पर  कुछ दूर चलने के बाद जब उसने पीछे मुड़कर देखा तो उसे वहाँ कोई नहीं दिखाई दिया।इससे उसका डर थोड़ा कम हो गया।वह लगातार कई देर से चल रही थी। और अब उसे कुछ-कुछ थकावट सी महसूस होने लगी।

        "क्यों ना मैं यहाँ थोड़ा विश्राम कर लूँ ?
चिली ने उबासी लेते हुए कहा। और वहीं पास पड़े ,एक बड़े से पत्थर पर बैठ गई । और  एक कविता गाते -गाते उसे नींद की झपकी आ गई ।
पर चिली की इस निंद्रा में , कुछ ही समय बाद विघ्न पड़ गया ।दरअसल उसे जंगल के मच्छरों ने बुरी तरह  से
परेशान कर दिया।

"बाप रे ! इतने सारे मच्छर "  मुझे लगता हैं कि यह मच्छर आज मुझे बीमार करके ही छोड़ेंगे।
चिली ने आज ही स्कूल में मलेरिया रोग का अध्याय पढ़ा था। और उसे यह सब भली प्रकार विदित है कि मादा एनाफिलीज  मच्छर के काटने से ही मलेरिया होता हैं।
अब चुकि: चिली की नींद उड़ चुकी थी अत:उसने एक बार फिर आगे बढ़ने का निश्चय किया । और उस सुनसान जंगल से , अपने आप को  सुरक्षित बाहर निकालने के चल पड़ी।
अभी वो पाँच मिनट भी ठीक से नहीं चल पायी होगी, कि उसे दूर चट्टान की तरफ़ से कुछ चमकदार वस्तु दिखाई दी।जो कुछ हल्की-हल्की सी, हिलती हुई प्रतीत हो रही थी।

"अरे ! इस अंधेरे में यह क्या चीज़ है, जो इस प्रकार चमक रही हैं ?
      चिली इस प्रश्न से चितिंत हो उठी।
पर उसकी यह चिंता, तब और डर में बदल गई। जब उसे वो चमकदार वस्तु, अपनी और आती प्रतीत हुई।
चिली डर के मारे एक पेड़ की ओट में छिप गई।
पर चंद लम्हों में ही वो चमकदार वस्तु उसकी नज़रों के सामने आ गई।जिसे देखकर एक बारगी तो वो सचमुच ही डर गई।पर अगले ही क्षण उसकी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा।
      दरअसल यह एक नन्हा सा हिरन का बच्चा था, जो पास ही बह रही नदी में पानी पीने जा रहा था।

"ओह ! अब मेरी समझ में आया कि वो चमकदार वस्तु कोई और नहीं इसी नन्हे हिरन की आँखें थी।जो चंद्रमा की इस शीतल चाँदनी में किसी जगमगाते हीरे सी प्रतीत हो रही थी" चिली नें दीर्घ श्वास छोड़ते हुए स्वयं से कहा ।
              चलो इस जंगल में कोई तो ढंग का साथी मिला। चिली चुकि:अब तक अकेली ऊब सी गई थी । अतः उसने हिरन के बच्चे के साथ अपना मन बहला चाहा ।उसने जैसे ही नन्हे हिरन को पकड़ने के लिए ,अपना हाथ आगे बढ़ाया ,वो बच्चा कुलांचे मारता हुआ उस निर्जन वन में अंतर्ध्यान हो गया।और चिली की यह मनोकामना अधूरी सी रह गयी। ठीक वैसे ही जैसे खिलौने के टूट जाने पर किसी बच्चे की रह जाती हैं।
बहरहाल अब चिली का डर ग़ायब हो चुका था और उसकी जगह अब उत्साह ने ले ली थी।
अब वो पुन: उस रहस्यमयी आवाज़ का पता लगाने आगे चल पड़ी।।

( तो मित्रों यह था उपन्यास "गुफा वाला ख़ज़ाना" का पहला अंक जो उम्मीद हैं आपको ज़रूर पसंद आया होगा।)
आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा।मिलते है कल फिर अगले अंक में यह जानने के लिए कि वो रहस्यमयी आवाज़ किसकी थी।तब तक के लिए 
।।।।जय हिंद।।।।
आपका लेखक:-अनमोल तिवारी
About Me

Anmol Tiwari 

Hello friends, Iam Anmol tiwari live in kapasan.dis-chittorgarh(Raj.) my father name- shree bhanwar lal ji i have one brother(dinesh chandra)and a sister(keshar devi) They all  love me very much and i also loved them when I complited  my besic education l i started poetry now l am wrote 50 Above poem and one beautiful novel(Gufa wala khajana)

शनिवार, 18 जुलाई 2015

मेरी नवीन कृति ...कुछ शायरी की बात होजाए --ड़ा श्याम गुप्त ...


मेरी नवीन कृति ...कुछ शायरी की बात होजाए --ड़ा श्याम गुप्त ...

                     

        मेरी नवीन कृति ...कुछ शायरी की बात होजाए ...ग़ज़ल, नज़्म, रुबाई, कतए व शेर का संग्रह ....







.                                                          बात शायरी की
             कविता, काव्य या साहित्य किसी विशेष, कालखंड, भाषा, देश या संस्कृति से बंधित नहीं होते | मानव जब मात्र मानव था जहां जाति, देश, वर्ण, काल, भाषा, संस्कृति से कोई सम्बन्ध नहीं था तब भी प्रकृति के रोमांच, भय, आशा-निराशा, सुख-दुःख आदि का अकेले में अथवा अन्य से सम्प्रेषण- शब्दहीन इंगितों, अर्थहीन उच्चारण स्वरों में करता होगा | आदिदेव शिव के डमरू से निसृत ध्वनि से बोलियाँ, अक्षर, शब्द की उत्पत्ति के साथ ही श्रुति रूप में कविता का आविर्भाव हुआ| देव-संस्कृति में शिव व आदिशक्ति की अभाषित रूप में व्यक्त प्रणय-विरह की सर्वप्रथम कथा के उपरांत देव-मानव या मानव संस्कृति की, मानव इतिहास की सर्वप्रथम भाषित रूप में व्यक्त प्रणय-विरह गाथा ‘उर्वशी–पुरुरवा’ की है | कहते हैं कि सुमेरु क्षेत्र, जम्बू-द्वीप, इलावर्त-खंड स्थित इन्द्रलोक या आज के उजबेकिस्तान की अप्सरा ( बसरे की हूर) उर्वशी, भरतखंड के राजा पुरुरवा पर मोहित होकर उसकी पत्नी बनी जो अपने देश से उत्तम नस्ल की भेड़ें तथा गले के लटकाने का स्थाली पात्र, वर्फीले देशों की अंगीठी –कांगड़ी- जो गले में लटकाई जाती है, लेकर आयी। प्रणय-सुख भोगने के पश्चात उर्वशीगंधर्वों अफरीदियों के साथ अपने देश चली गई और पुरूरवा उसके विरह में छाती पीटता रोता रहा विश्व भर में उसे खोजता रहा। उसका विरह-रूदन गीत ऋग्वेद के मंत्रों में है, यहीं से संगीत, साहित्य और काव्य का प्रारम्भ हुआ।  अर्वन देश (घोड़ों का देश) अरब तथा पुरुर्वन देश फारस के कवियों ने इसी की नकल में रूवाइयां लिखीं एवं तत्पश्चात ग़ज़ल आदि शायरी की विभिन्न विधाएं परवान चढी जिनमें प्रणय भावों के साथ-साथ मूलतः उत्कट विरह वेदना का निरूपण है । शायरी ईरान होती हुई भारत में उर्दू भाषा के माध्यम से आयी, प्रचलित हुई और सर्वग्राही भारतीय संस्कृति के स्वरूपानुसार हिन्दी ने इसे हिन्दुस्तानी-भारतीय बनाकर समाहित कर लिया| आज देवनागरी लिपि में उर्दू के साथ-साथ हिन्दुस्तानी, हिन्दी एवं अन्य सभी भारतीय क्षेत्रीय भाषाओं में भी शायरी की जा रही है |
        शायरी  अरबी, फारसी उर्दू जुबान की काव्य-कला है | इसमें गज़ल, नज़्म, रुबाई, कते शे आदि विविध छंद काव्य-विधाएं प्रयोग होती हैं, जिनमें गज़ल सर्वाधिक लोकप्रिय हुई | गज़ल नज़्म में यही अंतर है कि नज़्म हिन्दी कविता की भाँति होती है | नज़्म एक काव्य-विषय कथ्य पर आधारित काव्य-रचना है जो कितनी भी लंबी, छोटी अगीत की भांति लघु होसकती है एवं तुकांत या अतुकांत भी | गज़ल मूलतः शेरों (अशार या अशआर) की मालिका होती है और प्रायः इसका प्रत्येक शे विषयभाव में स्वतंत्र होता है |
            नज़्म  विषयानुसार तीन तरह की होती हैं ---मसनवी अर्थात प्रेम अध्यात्म, दर्शन अन्य जीवन के विषय, मर्सिया ..जिसमें दुःख, शोक, गम का वर्णन होता है और कसीदा यानी प्रशंसा जिसमें व्यक्ति विशेष का बढ़ा-चढा कर वर्णन किया जाता है | एक लघु अतुकांत नज्म पेश है...
             सच,
               यह तुलसी कैसी शांत है
               और कश्मीर की झीलें
              किस-किस तरह
              उथल-पुथल होजाती हैं
             और अल्लाह
             मैं !               ...........मीना कुमारी ...       

                 रुबाई  मूलतः अरबी फारसी का स्वतंत्र ..मुक्तक है जो चार पंक्तियों का होता है पर वो दो शेर नहीं होते इनमें एक ही विषय भाव होता है और कथ्य चौथे मिसरे में ही मुकम्मिल स्पष्ट होता है | तीसरे मिसरे के अलावा बाकी तीनों मिसरों में काफिया रदीफ एक ही तुकांत में होते हैं तीसरा मिसरा इस बंदिश से आज़ाद होता है | परन्तु रुबाई में पहला तीसरा दूसरा चौथा मिसरे के तुकांत भी सम होसकते हैं और चारों के भी | फारसी शायर ...उमर खय्याम की रुबाइयां विश्व-प्रसिद्द हैं |..उदाहरण- एक रुबाई...--.              
                                                         इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
                               अपने ज़ज्वात की हसीं तहरीर |
                               किस मौहब्बत से तक रही है मुझे,
                                दूर रक्खी हुई तेरी तस्वीर || “       .... निसार अख्तर
                     कतआ  भी हिन्दी के मुक्तक की भांति चार मिसरों का होता है,  यह दो शेरों से मिलकर बनता है | इसमें एक मुकम्मिल शे होता है..मतला तथा एक अन्य शे होता है| जब शायर ..एक शेर में अपना पूरा ख्याल ज़ाहिर कर पाए तो वो उस ख्याल को दुसरे शेर से मुकम्मल करता है कतआ शायद उर्दू में अरबी-फारसी रुबाई का विकसित रूप है| अर्थात दो शेरों की गज़ल| एक उदाहरण पेश है....--  
       दर्दे दिल को जो जी पाये |
         जख्मे-दिल को जो सी पाए |
       दर्दे-ज़मां ही ख्वाव हैजिसका  
खुदा  भी उस दिल में ही समाये ||”     ... डा श्याम गुप्त                                                                                                                                            

                   शे दो पंक्तियों की शायरी के नियमों में बंधी हुई वह रचना है जिसमें पूरा भाव या विचार व्यक्त कर दिया गया हो | 'शेर' का शाब्दिक अर्थ है --'जानना' अथवा किसी तथ्य से अवगत होना और शायर का अर्थ जानने वाला ...अर्थात कविर्मनीषी स्वयंभू परिभू ...क्रान्तिदर्शी ...कवि |  इन दो पंक्तियों में शायर या कवि अपने पूरे भाव व्यक्त कर देता है ये अपने आप में पूर्ण होने चाहिए उन पंक्तियों के भाव-अर्थ समझाने के लिए किन्हीं अन्य पंक्ति की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए | गज़ल शेरों की मालिका ही होती है | अपनी सुन्दर तुकांत लय, गति प्रवाह तथा प्रत्येक शे स्वतंत्र मुक्त विषय-भाव होने के कारण के कारण साथ ही साथ प्रेम, दर्द, साकी-मीना कथ्यों वर्ण्य विषयों के कारण गज़ल विश्वभर के काव्य में प्रसिद्द हुई जन-जन में लोकप्रिय हुई |  ऐसा स्वतंत्र शे जो तन्हा हो यानी किसी नज़्म या ग़ज़ल या कसीदे या मसनवी का पार्ट हो ..उसे फर्द कहते हैं |
             गज़ल दर्दे-दिल की बात बयाँ करने का सबसे माकूल खुशनुमां अंदाज़ है | इसका शिल्प भी अनूठा है | नज़्म रुबाइयों से जुदा | इसीलिये विश्व भर में जन-सामान्य में प्रचलित हुई | हिन्दी काव्य-कला में इस प्रकार के शिल्प की विधा नहीं मिलती | मैं कोई शायरी गज़ल का विशेषज्ञ ज्ञाता नहीं हूँ | परन्तु हम लोग हिन्दी फिल्मों के गीत सुनते हुए बड़े हुए हैं जिनमें वाद्य-इंस्ट्रूमेंटेशन की  सुविधा हेतु गज़ल नज़्म को भी गीत की भांति प्रस्तुत किया जाता रहा है | उदाहरणार्थ - फिल्मे गीतकार साहिर लुधियानवी का गीत/ग़ज़ल......
       संसार से भागे फिरते हो संसार को तुम क्या पाओगे।
       इस लोक को भी अपना सके उस लोक को में भी पछताओगे।
       ये पाप है क्या ये पुण्य है क्या रीतों पर धर्म की मोहरें हैं
       हर युग में बदलते धर्मों को कैसे आदर्श बनाओगे। ---

                      गज़ल का मूल छंद शे या शेअर है | शेर वास्तव में दोहा का ही विकसित रूप है जो संक्षिप्तता में तीब्र सटीक भाव-सम्प्रेषण हेतु सर्वश्रेष्ठ छंद है | आजकल उसके अतुकांत रूप-भाव छंद ..अगीत, नव-अगीत त्रिपदा-अगीत भी प्रचलित हैं| अरबी, तुर्की फारसी में भी इसेदोहा ही कहा जाता है अंग्रेज़ी में कसीदा मोनो राइम( quasida mono rhyme)|  अतः जो दोहा में सिद्धहस्त है अगीत लिख सकता है वह शे भी लिख सकता है..गज़ल भी | शेरों की मालिका ही गज़ल है |
          छंदों गीतों के साथ-साथ दोहा अगीत-छंद लिखते हुए गज़ल सुनते, पढते हुए मैंने यह अनुभव किया कि उर्दू शे भी संक्षिप्तता सटीक भाव-सम्प्रेषण में दोहे अगीत की भांति ही है और इसका शिल्प दोहे की भांति ...अतः लिखा जा सकता है, और नज्में तो तुकांत-अतुकांत गीत के भांति ही हैं, और गज़लोंनज्मों का सिलसिला चलने लगा |
                  भारत में शायरी गज़ल फारसी के साथ सूफी-संतों के प्रभाववश प्रचलित हुई |   मेरा उर्दू भाषा ज्ञान उतना ही है जितना किसी आम उत्तर-भारतीय हिन्दी भाषी का | मुग़ल साम्राज्य की राजधानी आगरा (.प्र.) मेरा जन्म शिक्षा स्थल रहा है जहां की सरकारी भाषा अभी कुछ समय तक भी उर्दू ही थी | अतः वहाँ की जन-भाषा साहित्य की भाषा भी उर्दू हिन्दी बृज मिश्रित हिन्दी है | इसी  क्षेत्र के अमीर खुसरो ने सर्वप्रथम उर्दू हिन्दवी में मिश्रित गज़ल-नज्में आदि कहना प्रारम्भ किया | अतः इस कृति में अधिकाँश गज़लें, नज़्म, कते आदि उर्दू-हिन्दी मिश्रित कहीं-कहीं बृजभाषा मिश्रित हैं | कहीं-कहीं उर्दू गज़लें हिन्दी गज़लें भी हैं |
              मुझे गज़ल आदि के शिल्प का भी प्रारंभिक ज्ञान ही है | जब मैंने विभिन्न शायरों की शायरीगज़लें नज्में आदि  सुनी-पढीं देखीं  विशेषतया गज़ल...जो विविध प्रकार की थीं..बिना काफिया, बिना रदीफ, वज्न आदि का उठना गिरना आदि ...तो मुझे ख्याल आया बस लय गति से गाते चलिए, गुनगुनाते चलिए गज़ल बनती चली जायगी | कुछ फिसलती गज़लें होंगी कुछ भटकती ग़ज़ल|  हाँ लय गति यति युक्त गेयता भाव-सम्प्रेषणयुक्तता  तथा सामाजिक-सरोकार युक्त होना चाहिए और आपके पास भाषा, भाव, विषय-ज्ञान कथ्य-शक्ति होना  चाहिए|  यह बात गणबद्ध छंदों के लिए भी सच है | तो कुछ शे आदि जेहन में यूं चले आये.....
             मतला बगैर हो गज़ल, हो रदीफ भी नहीं,
             यह तो गज़ल नहीं, ये कोइ वाकया नहीं |
           लय गति हो ताल सुर सुगम, आनंद रस बहे,
             वह भी गज़ल है, चाहे  कोई काफिया नहीं | “  
           बस गाते-गुनगुनाते जो गज़ले-नज्में आदि बनतीं गयीं... जिनमें त्रिपदा-अगीत गज़ल, अति-लघु नज़्म आदि कुछ नए प्रयोग भी किये गए है..  यहाँ पेश हैं...मुलाहिजा फरमाइए ........
                                                                                               ------डा श्याम गुप्त     
 

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