मनुष्य के शत्रु
ईशावास्यं इदम सर्वं, यद्किंचित जगत्यां जगत ....भक्तियोग का ...विश्वास व आस्था का मार्ग है ...सब कुछ ईश्वर का, मेरा कुछ नहीं, सब समाज का है|
तेन त्यक्तेन भुन्जीता ....कर्मयोग का मार्ग....कर्म आवश्यक है परन्तु निस्वार्थ कर्म, परमार्थ एवं त्याग के भाव से कर्म व भोग |
मा गृध कस्यविद्धनम... ज्ञान का मार्ग ...विवेक का मार्ग.. अकाम्यता .. किसी के भी धन व स्वत्व की इच्छा व हनन नहीं करना चाहिए,... वित्तेषणा, पुत्रेषणा, लोकेषणा..समस्त इच्छाओं का त्याग ...यह धन किसका हुआ है इसका ज्ञान |
तो इस में अवरोध क्या है ? उपरोक्त पर न चलने से एवं न चलने देने हेतु रजोगुण रूपी तीन भाव मन में उत्पन्न होकर विचरण करते हैं जो शत्रु रूप में मनुष्य को भटकाते हैं....काम, क्रोध व लोभ |
वस्तुतः मूल शत्रु काम ही है अर्थात कामनाएँ, इच्छाएं .. वित्तेषणा, पुत्रेषणा, लोकेषणा ....शेष उसके प्रभावी
रूप हैं | काम अर्थात कामना, प्राप्ति की इच्छा से प्राप्ति का लोभ..विघ्न से क्रोध, क्रोध से सम्मोह, मोह, मूढ़
भाव से स्मृतिभ्रम एवं मानवता नाश | काम नित्य बैरी कहा गया है यह दुर्जय है एवं इन्द्रियाँ मन व बुद्धि में
स्थित यह ज्ञान को आच्छादित कर देता है | इन्द्रियों से परे मन बुद्धि व आत्मा में स्थित होना चाहिए ...अतः ..
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्यार्थ मनोगतान |
अत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितिप्रज्ञस्तदोच्ये |...
जो सम्पूर्ण कामनाओं को भली भाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है वह स्थितिप्रज्ञ है |
निराशीर्यत चित्तात्मा त्यक्त सर्वपरिग्रह|
शारीरं केवलं कर्म कुर्वप्राप्नोतिकिल्विषम |.....गी 4/21
.....जो बिना इच्छा अपने आप प्राप्त कर्मों पदार्थों से संतुष्ट है उसके समस्त किल्विष समाप्त होजाते हैं|...एवं
यःशास्त्र विधि मुत्सृज्य वर्तते कामकारतः | न स सिद्धिवाप्नोति न सुखं न परा गतिम् |...गीता १६/२३
.....जो शास्त्र विधि त्यागकर मनमाना इच्छा से आचरण करते हैं वह न सुख पाता है न सिद्धि न परमगति |
काम क्रोध लोभ ...तीनों को शत्रु नहीं अपितु नरक का द्वार कहा गया है ..इन्हें त्याग देना चाहिए ..
त्रिविधं नरकस्येदम द्वारं नाश्मनात्मन : |
कामः क्रोधस्तधा लोभस्तस्मादेत्रयं त्यजेत|....गीता १६/२१ ....तथा .....
दु;खे स्वनुदिग्नमन: सुखेषु विगतस्पृह |
वीत राग भय क्रोधो,स्थितिर्मुनिरुच्यते |...गीता २/५६
.....सुख –दुःख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता जिसके राग, भय ( जो इच्छित प्राप्ति होगी या नहीं का हृदयस्थ भाव होता है ), क्रोध समाप्त होगये हैं उसे मुनिगण स्थितप्रज्ञ कहते हैं | इसप्रकार.....अंत में ...
विहाय कामाय सर्वान्पुमांश्चरति निस्पृह: |
निर्ममो निरहंकारो स शान्तिमधिगच्छति ||...गीता १६/७१
जो सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग कर देता है, ममता रहित, अहंकार रहित और स्पृहा रहित होजाता है वही शान्ति प्राप्त करता है | वही स्थितप्रज्ञ है, आत्मलय है, ईश्वरन्लय है, मुक्त है |
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