दर्दे-मोहब्बत
मोहब्बत दर्द बन जाएगी ये सोचा न था हमने
भरी काँटों की राहों में बनाया आशियाँ हमने
वह मंजि़ल तक हमें लाकर अकेला छोड़ जाएँगे
बनाया अपने दिल का फिर उन्हें क्यों राज़दाँ हमने
भुलाने से न भूले हम जो कसमें उसने खाई थीं
सनमखानों में भी अक्सर उन्हें ढूँढ़ा किया हमने
अँधेरों में मेरी वो रोशनी बनकर के आए थे
ग़मों की आँधियों में भी सजाया आशियाँ हमने
हवाएँ रुख़ बदल देतीं तो शाखें बच गई होतीं
उन्हीं शाख़ों की ज़द में क्यों बनाया आशियाँ हमने
हमें ‘बदनाम’ होने का ज़रा भी ग़म नहीं है अब
चलो यह हक मोहब्बत का अदा तो कर दिया हमने
(गुरूसहाय भटनागर बदनाम)
वाह !
जवाब देंहटाएंहमें ‘बदनाम’ होने का ज़रा भी ग़म नहीं है अब
जवाब देंहटाएंचलो यह हक मोहब्बत का अदा तो कर दिया हमने
बहुत खूब
बेहतरीन गजल !
सादर !
bahut khoob ...
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब महोदय ,,,,आपके ब्लॉग पर आकर - जाना अच्छा नहीं लगता ,,पर क्या करे सब्स्क्राइब करने का कोना नहीं मिलता ,manoj.shiva72@gmail.com
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