सनातन धर्म की
वैज्ञानिकता
मानव जब वृक्षों व कंदराओं से बाहर आया
और रहन-सहन के सामूहिक रूप की स्थापना हुई तो सामाजिकता के नियमन व समन्वय हेतु
कुछ नियमों का प्रचलन हुआ| वही नियम सार्वभौम होकर धर्म, समाज, संस्कृति व सभ्यता बने| इस प्रकार एक सनातन
व्यवस्था मानव की प्रथम उत्पत्ति की भूमि, ब्रह्मा के प्रदेश सुमेरु पर्वतीय
क्षेत्र में स्थापित हुई जो ब्रह्मा की मानस पुत्री सरस्वती के उद्गम क्षेत्र
मानसरोवर एवं प्रवाह क्षेत्र स्वर्ग आदि में प्रतिष्ठित हुई, तत्पश्चात सरस्वती के
पृथ्वी क्षेत्र में अवतरण, वेदों के आविर्भाव एवं मानव के विकास प्रक्रिया में पृथ्वी
पर चहुँओर प्रसार द्वारा उसके भूतलीय प्रवाह क्षेत्र में सारस्वत-सभ्यता के नाम से
प्रतिष्ठित हुई, जो पृथ्वी की प्रथम सनातन व्यवस्था, धर्म व संस्कृति हुई, सनातन
वैदिक सभ्यता |
यह बहुदेववादी व्यवस्था थी, केवल
सामाजिक विज्ञान से ओत-प्रोत ही नहीं अपितु पूर्णरूपेण वैज्ञानिक तंत्र व नियम
आधारित व्यवस्था, जिसमें प्रत्येक मानव क्या विस्तृत रूप में
धरती, सूर्य, तारे, मिट्टी, पानी, वृक्ष, प्राणी, जीव-निर्जीव सभी को देव या भगवान
माना जाता है |
देवताओं को सृष्टि के पालनकर्ता और नैतिक
वृत्ति के पोषक के रूप में दर्शाया जाता है। कण कण में भगवान की अवधारणा बनी|
यह विज्ञान के साथ साथ ईश्वर पर आस्था व विश्वास की
संस्कृति व धर्म था| अत: यह कभी न मिटने वाली सतत-प्रवहमान, कालजयी धर्म व
संस्कृति हुई एवं ‘धर्म की जड़ सदा हरी’ जैसे वाक्य अस्तित्व में
आये| वेद, उपनिषद्, पुराण साहित्य से ज्ञान का प्रकाश उद्भासित हुआ| ईश्वर, आत्मा व जीव के सम्बन्ध की श्रेष्ठतम
मान्यताएं व दर्शन प्रतिष्ठित हुए | जम्बू द्वीपे, भरत-खंडे से उद्भूत यह व्यवस्था
व धर्म मानव के विश्व में प्रसार के साथ समस्त विश्व में फैला |
प्रारम्भ से ही उचित-अनुचित,
धर्म-अधर्म, कृतित्व-अकृतित्व के समुचित व्याख्या-भाव के कारण इस श्रेष्ठ व्यवस्था
को बुराई से, समाज के नियमों की
अवमानना करने वालों से चुनौती मिलती रही है| मानव अहं, कि ईश्वर सर्वोपरि है
या मानव स्वयं के प्रश्न पर, भौतिकता, सुख-समृद्धि के अति-प्रचलन तथा मानव आचरण की
स्वयं की हीनता से भी विभिन्न पथ व पंथ इसके विरोध में अस्तित्व में आते रहे
हैं | जिसके कारण कभी कोई सागर में सभ्यता स्थापित करता है, कभी कोई नभ
में नगर स्थापना करता है, कभी कोई समस्त धरती का सम्राट बनाने की लालसा | देव-दैत्य, सुर-असुर, आर्य-अनार्य
संस्कृतियों-सभ्यताओं की उत्पत्ति, टकराहट व युद्ध एवं अवतारवाद और अंततः इस प्रक्रिया
में प्रत्येक बार सनातन शक्तियों व नियमों की विजय इन्हीं की विश्व-गाथाएँ हैं जो
वेदों व पुराणों में वर्णित हैं|
परशुराम
की विजय गाथाएँ, राम द्वारा रावणत्व का विनाश, कृष्ण द्वारा भारत-युद्ध इसी
सनातन संस्कृति, धर्म की पुनर्स्थापना की घटनाएं हैं जो हर बार, हर युग में अनैतिकता,
अनाचरण, अनाचार, अतिवादिता के विरुद्ध सनातन आचरण, आचार व मानवतावाद की विजय है|
पश्च
द्वापर युग में भी मानव आचरण की कमी, धर्म व सत्कर्मों में आये क्षरण के कारण सनातन व्यवस्था के विरोध में एकेश्वरवाद व
अनीश्वरवाद का प्रसार हुआ| ये प्रायः महाभारत युद्ध के पश्चात एवं सम्राट
हर्षवर्धन की पराजय के पश्चात समाज में आयी धार्मिक शिथिलता, अकर्मण्यता,
ब्राह्मणवाद व निरंकुशता का विरोध था| मूलतः अनीश्वरवादी
सम्प्रदाय ये थे---
गोसाल द्वारा स्थापित आजीविक सम्प्रदाय
.. कर्म सम्बन्धी कार्य कारण सम्बंध के व्यवस्थाक्रम को स्वीकार नहीं करता था। उनकी मान्यता
थी कि सृष्टि के घटक तत्व
– पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, सुख, दुख ओर जीवात्मा (जीव) – अरचित, अखंडनीय पदार्थ के अणुओं के रूप में विद्यमान
हैं जो परस्पर क्रिया नहीं करते हैं।
अजित द्वारा प्रतिपादित लोकायत या चार्वाक दर्शन भी कर्म के सिद्धांत को अस्वीकार करता
था। इतना ही नहीं,
यह दर्शन पुनर्जन्म और जीवात्मा जैसी
संकल्पना को भी अस्वीकार करता था।
संजयिन द्वारा प्रशस्त अनीश्वरवादियों के अज्ञान दर्शन में यह कहा गया कि तत्वज्ञान सम्बन्धी चिन्तन या तर्क पर आधारित वाद-विवाद से किसी भी प्रकार का
निर्णायक ज्ञान प्राप्त करना असम्भव है। इस दर्शन में ब्रह्मचर्य का पालन
करने वाले ऐसे मठों में रहने की शिक्षा दी गई जो केवल साहचर्य के भाव पर बल
देते हैं।
महावीर द्वारा प्रतिपादित जैन या निर्ग्रन्थ दर्शन
का प्रादुर्भाव लोकायत दर्शन के विरूद्ध कड़ी प्रतिक्रिया
के रूप में हुआ। इस दर्शन में कर्म गति के कारण
जीवात्मा के पुनर्जन्म की प्रक्रिया से गुजरने की बात पर बल दिया गया।
जैन धर्म की अहिंसा वैदिक उपनिषदीय तत्वों से पृथक नहीं है उनकी अपनी राम
कथा है एवं अन्य हिन्दू धर्म ग्रंथों की उनकी अपनी व्याख्याएं हैं| स्वामी नेमिनाथ
तो स्वयं श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे | अतः उसे सनातन हिन्दू धर्म ने अपने
सर्व-आत्मलयी, सर्वग्राही बहुरूप के कारण स्वयं के एक दर्शन के रूप में स्वीकार
करलिया, अनीश्वरवादी दर्शन के रूप में | अंतत जैन धर्म केवल एक प्रमुख भारतीय धार्मिक व्यवस्था के रूप में हिन्दू धर्म का एक पंथ
की भांति रह गया|
बौद्ध मत का प्रादुर्भाव एक ऐसे श्रमण
दर्शन के रूप में हुआ जो कर्म गति को
पुनर्जन्म के कारण के रूप में
स्वीकार करता था, लेकिन अन्य दर्शनों
की मान्यता वाले आत्मा के स्वरूप
को अस्वीकार करता था। बुद्ध ने तर्क और
शास्त्रार्थ तथा नैतिक आचरण को
मुक्ति के मार्ग में सहायक उपायों के
रूप में स्वीकार किया, लेकिन
उन्होंने इसे जैन दर्शन जैसी तपश्चर्या
के रूप में स्वीकार नहीं किया। इस
प्रकार बौद्ध मत ने पूर्व में उल्लिखित चारों श्रमण दर्शनों की अतिशयताओं का परिवर्जन किया। महात्मा बुद्ध व बौद्ध धर्म के प्रादुर्भाव
ने अतिवादितापूर्ण अन्य सभी मतों को स्वयं ही निर्मूल कर दिया और वे इतिहास बन कर
रह गए |
स्वयं बौद्ध-धर्म जो
अपने दया, त्याग, करुणा, संयम आदि के कारण यज्ञों में हिंसा व ब्राहमणत्व के विरोध
स्वरुप एक धार्मिक सुधार के रूप में भारत भर में एवं भारत के पडौसी देशों में तेजी
से फैला परन्तु आज स्वयं भारत से ही निष्कासित अवस्था में है | क्योंकि बुद्ध के
चार आर्य-धर्म, पंचशील, अष्टांगिक मार्ग वैदिक धर्म के ही अंग थे, उन्होंने कोई
नवीन तथ्य उपस्थित नहीं किया | उनके दया, करुणा आदि हिन्दू वैष्णव धर्म के ही अंग
थे | अंतत उसे भी वैष्णव धर्म ने बुद्ध को कृष्ण के वाद अपना नवां अवतार घोषित
करके( जो उनके अनुसार जो विष्णु के
नकारात्मक अवतार थे, दुष्टों व अपराधियों को पथभ्रष्ट करने हेतु ..
एवं इस प्रकार वैदिक धर्म में आयी कुरीतियों को समाप्त करने को हुआ था..)
उसे हिन्दू धर्म का ही एक अनीश्वरवादी दर्शन स्वीकार कर लिया | इस प्रकार बुद्ध के
बाद अत्यधिक तांत्रिकता, मठों आदि में अव्यवस्था, मत-मतान्तर, जन साधारण से पृथक
रहने के कारण बौद्ध धर्म ध्वस्त प्राय होगया| शंकराचार्य की वैदिक विजय
एवं ईसाई व इस्लाम धर्म के एकेश्वरवाद का आगमन इसकी विलुप्ति का अन्य कारण बना | आखिर देश की साहित्य व संस्कृति पर बौद्ध दर्शन का प्रभाव तो लाभदायी
ही रहा | जब वैदिक संस्कृत का लोप हुआ तो पाली भाषा में बौद्ध धर्म की कथा
कहानियां, ग्रंथों में भारतीय संस्कृति के मूल किस्सों को जीवित रखा गया |
अब बात दो विदेशी धर्मों की है | अनीश्वरवादियों की अनास्था एवं बुद्ध व जैन धर्मों की अकर्मण्यता से उत्पन्न
भारतीय समाज असमंजसता की स्थिति में था | अनिश्चयता व राजनैतिक अस्थिरता के इस काल में
देश पर इस्लाम का आक्रमण हुआ | इस्लाम एकेश्वरवादी धर्म है जो तलवार के जोर
पर दुनिया में फैला | इस्लाम
शब्द का अर्थ है – 'अल्लाह को समर्पण'। इस्लाम धर्म का आधारभूत सिद्धांत अल्लाह को
सर्वशक्तिमान, एकमात्र ईश्वर और जगत का पालक तथा हज़रत मुहम्मद को उनका संदेशवाहक या पैगम्बर मानना है। भारत में पृथ्वीराज चौहान की निर्णायक हार
के पश्चात् यह शासन के धर्म एवं तलबार के बल पर भारत में फैला | परन्तु सनातन धर्म के सच्चे अनुयाइयों ने कभी भी इसे
नहीं स्वीकारा |
ईसाई धर्म मूलतः योरोपीय धर्म है | बौद्ध
धर्म की दया, करुणा व सेवा ईसाई धर्म का भी मूल है | ईसाई एकेश्वरवादी हैं, लेकिन वे ईश्वर को त्रिक के रूप में समझते हैं -- परमपिता
परमेश्वर,
उनके
पुत्र ईसा मसीह (यीशु मसीह) और पवित्र आत्मा। ईसामसीह ने ईसाई धर्म का फ़िलीस्तीन में सर्वप्रथम प्रचार
किया, जहाँ से वह
रोम और फिर सारे
यूरोप में फैला। ईसाई धर्म अधिकाँश राजनैतिक संरक्षण युद्धों व
तलवार के बल पर एवं गरीब व दलित जनता को लालच लोभ व चमत्कारों के बल पर फैला |
इस्लाम व ईसाइयों के धर्म-युद्ध सारे योरोप में अधिकार के लिए होते रहे हैं जिनका
रक्तरंजित इतिहास है | ईसामसीह द्वारा सभी के पाप माफ़ कर देने की व्यवस्था के
कारण अनुपालन में सबसे सरल यह धर्म विश्व का सबसे अधिक अनुयायियों वाला धर्म है |
ईसा मसीह के प्रमुख शिष्यों में से एक संत टामस ने प्रथम शताब्दी ईस्वी में ही भारत में मद्रास के पास
आकर ईसाई धर्म का प्रचार किया था। उसी समय से इस क्षेत्र में ईसाई धर्म का
स्वतंत्र रूप में प्रसार होता रहा है। उत्तर भारत
में अकबर के दरबार में
सर्व धर्म सभा में विचार-विमर्श हेतु जेसुइट फ़ादर उपस्थित थे। उन्होंने आगरा में एक चर्च भी स्थापित किया था। इसी काल में ईसाई सम्प्रदाय
रोथ ने लैटिन भाषा में संस्कृत
व्याकरण लिखा। 16वीं सदी में पुर्तग़ालियों के साथ आये रोमन कैथोलिक धर्म प्रचारकों के
माध्यम से उनका सम्पर्क पोप के कैथोलिक चर्च से हुआ। अंग्रेजों के भारत पर अधिकार के साथ शासन के धर्म के
सारे लाभ ईसाई धर्म को मिले | भारत में सुदूर पूर्वोत्तर व दक्षिण के कुछ
भागों में में ईसाई धर्म का प्रभाव है | मदर टेरेसा
द्वारा 1950
में कलकत्ता में शासन की सहायता से स्थापित
मिशनरीज और चेरिटी मानवता की सेवा
में कार्यरत हैं।भारत
में ईसाइयों मूलतः दो प्रकार की धाराएं हैं –
-----गोवा, मंगलोर, महाराष्ट्रियन समूह,
जो पश्चिमी विचारों से प्रभावित था
परन्तु पूरी तरह भारतीय आचार विचारों से कटा नहीं
है |
----तमिल समूह जो ईसाई धर्म में होते हुए भी अपनी प्राचीन भाषा-संस्कृति
से जुड़ा रहा है |
वस्तुतः यह सनातन धर्म या दर्शन,
सभ्यता, संस्कृति या जीवन व्यवहार, मानव सभ्यता के अत्यंत उच्चतम शिखर पर
स्थित होने पर वैचारिक प्रक्रिया के द्वारा उत्पन्न व प्रतिष्ठित हुआ कि इसे अंतिम
सत्य की भांति स्वीकारा गया | इसका ताना-बाना इतना विशाल, बहुरूपवादी, सर्वग्राही,
उदार है कि मानवता के सत्य का प्रत्येक विचार, दर्शन, धर्म व तत्व इसके अन्दर
समाहित होसकता है व होता आया है, हाँ उसके मानव हितकारी अंश को स्वयं में लय एवं
अनिष्टकारी अंश को अस्वीकार करके | यह सतत विकासमान प्रक्रिया का धर्म है | हर युग
में, प्रत्येक बार सारे झंझावातों, अनिष्टों, आक्रमणों से जूझकर विजयी भाव में
प्रतिष्ठित होता है, क्योंकि इसकी विजय मानवता व मानव मात्र के विजय है |
देश की स्वतन्त्रता के पश्चात विश्व
स्थित व वैश्विक-राजनीति के अनुसार भारत एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है आज यहाँ
विश्व के प्रत्येक धर्म व देश के निवासी अपने अपने धार्मिक विश्वासों के अनुसार रह
रहे हैं जो सनातन धार्मिक विश्वास के अनुसार इसी मूल सनातन धर्म की विकृतियाँ,
शाखाएं, प्रशाखाएं हैं जो अपने मूल से दिग्भ्रमित या नवोन्मेषी भाव में उत्पन्न
होती हैं | यह धार्मिक निरपेक्षता वस्तुतः उसी सनातन भारतीय धर्म का ही
मूल-भाव है | विश्व में आज भारतीय संस्कृति, सभ्यता व धर्म का पुनः डंका
बजने लगा है | हिन्दू व सनातन-धर्मियों के जाग्रत व क्रियाशील होते जाने एवं
गरीबी, अशिक्षा के निराकरण के साथ भारत में सनातन धर्म का पुनर्जागरण होरहा
है जो एक बार पुनः विश्व को दिशा प्रदान करेगा
सदा की भांति |
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