तुलसी-रामायण- रामचरित मानस की भाषा ...
बचपन से लेकर इंटर कक्षाओं तक हम महाकवि तुलसीदास
व रामचरितमानस को पढ़ते रहे हैं| हिन्दी भाषा व साहित्य की परीक्षाओं हेतु तुलसी
महत्वपूर्ण कवि हुआ करते थे, आज भी हैं| ५०-६० वर्षों से हम उन्हें सदा हिन्दी
भाषा के अग्रगण्य विश्वकवि के रूप में पढ़ते-लिखते रहे हैं | अब मुझे सुनने –पढ़ने
को मिल रहा है कि तुलसी की रामायण -रामचरित मानस- की भाषा अवधी है | ये अवधी भाषा
कहाँ से आई |
रामचरित मानस की लोकप्रियता अद्वितीय है| यह हिन्दी भाषा का कालजयी एवं विश्व-प्रसिद्द ग्रन्थ है | परंतु आजकल शायद लगभग १५-२० वर्षों से इस ग्रंथ के किसी न किसी पहलू को लेकर विवाद उठने लगे हैं। रामचरितमानस की भाषा के बारे में भी आज के विद्वान
एकमत नहीं हैं। कोई इसे अवधी मानता है तो कोई भोजपुरी। कुछ लोक मानस की भाषा अवधी और भोजपुरी की मिलीजुली भाषा मानते हैं।
मानस की भाषा बुंदेली
मानने वालों की संख्या भी
कम नहीं है।
मानस में संस्कृत, फारसी और उर्दू के शब्दों की भरमार है | तुलसीदास अवधी और ब्रजभाषा में बराबर निष्णात थे। उन्होंने संस्कृत शब्दों को गाँवों में प्रचलित किया एवं देसी शब्दों को को पढ़े-लिखे लोगों के बीच लोकप्रिय बनाया। हिन्दी भाषा व साहित्य का इतिहास उनका सदैव ऋणी रहेगा |
वस्तुतः तुलसीदास ने संस्कृत, खड़ीबोली, पूर्वी हिन्दी --अवधी, भोजपुरी, बुन्देली, छत्तीसगढ़ी, वैसवारी, कन्नौजी, बघेली, मागधी, कौशली और पश्चिमी हिन्दी ब्रजभाषा व उत्तर-पश्चिम की भारतीय भाषाओं के मिले-जुले स्वरूप को प्रचलित किया। इसके साथ ही उन्होंने फारसी –उर्दू और अन्य भाषाओं के शब्दों का प्रयोग किया। इस प्रकार के प्रयोगों के उदाहरण बिरले ही मिलते हैं। तुलसीदास ने भाषा को नया स्वरूप दिया। यह अवधी नहीं अपितु वही भाषा थी जो प्राकृत से शौरसेनी अपभ्रंश होते हुए, १५ दशकों तक समस्त भारत की साहित्यिक भाषा रही ब्रजभाषा के नए रूप मागधी, अर्धमागधी आदि से सम्मिश्र होकर आधुनिक हिन्दी की ओर बढ़ रही थी जिसे ‘भाखा’ कहा गया एवं जो आधुनिक हिन्दी ‘खड़ीबोली’ का पूर्व रूप थी | काशी पंडितों द्वारा संस्कृत में निष्णात होते हुए भी संस्कृत के स्थान पर भाषा या ‘भाखा’ में रामचरित मानस लिखने पर कठोर आपत्ति की थी.....’कहा भाखा में लिखत हौ पंडित हौ संस्कृत में लिखौ ‘....यह जग प्रसिद्द घटना है | इन्हीं आपत्तियों के चलते काशी में तुलसीदास व मानस के बारे में विभिन्न घटनाएँ हुईं |
चित्रकूट स्थित अंतरराष्ट्रीय मानस अनुसंधान केन्द्र के प्रमुख स्वामी रामभद्राचार्य के अनुसार रामचरितमानस के वर्तमान संस्करणों में कर्तृवाचक उकार शब्दों की बहुलता हैं। उन्होंने इसे अवधी भाषा की प्रकृति के विरुद्ध बताया है। इसी प्रकार उन्होंने उकार को कर्मवाचक शब्द का चिन्ह मानना भी अवधी भाषा के विपरीत बताया है। उकारांत कर्तृवाचक शब्दों के प्रयोग भी अवधी भाषा के विरुद्ध है।
तुलसीदास 'ग्राम्य गिरा' के पक्षधर थे। परन्तु वे जायसी की गँवारू भाषा अवधी के पक्षधर नहीं थे। तुलसीदास की तुलना में जायसी की अवधी अधिक शुद्ध है तुलसीदास के अन्य अनेक ग्रन्थों में ‘पार्वतीमंगल’ तथा ‘जानकीमंगल’ अच्छी अवधी में है। संस्कृत के विद्वान् होने के कारण संस्कृत व आधुनिक शुद्ध हिन्दी खडीबोली का प्रयोग भी स्वाभाविक रूप में हुआ है | स्वामी रामभद्रचार्य ने 'न्ह' के प्रयोग को भी अनुचित और अनावश्यक बताया है। उनके अनुसार नकार के साथ हकार जोड़ना ब्रजभाषा का प्रयोग है अवधी का नहीं। स्वामीजी के अनुसार मानस की उपलब्ध प्रतियों में तुम के स्थान पर 'तुम्ह' और 'तुम्हहि' शब्दों के जो प्रयोग मिलते हैं वे अवधी में नहीं होते | इसी प्रकार 'श' न तो प्राचीन अवधी की ध्वनि है और न ही आधुनिक अवधी की।
मानस में संस्कृत, फारसी और उर्दू के शब्दों की भरमार है | तुलसीदास अवधी और ब्रजभाषा में बराबर निष्णात थे। उन्होंने संस्कृत शब्दों को गाँवों में प्रचलित किया एवं देसी शब्दों को को पढ़े-लिखे लोगों के बीच लोकप्रिय बनाया। हिन्दी भाषा व साहित्य का इतिहास उनका सदैव ऋणी रहेगा |
वस्तुतः तुलसीदास ने संस्कृत, खड़ीबोली, पूर्वी हिन्दी --अवधी, भोजपुरी, बुन्देली, छत्तीसगढ़ी, वैसवारी, कन्नौजी, बघेली, मागधी, कौशली और पश्चिमी हिन्दी ब्रजभाषा व उत्तर-पश्चिम की भारतीय भाषाओं के मिले-जुले स्वरूप को प्रचलित किया। इसके साथ ही उन्होंने फारसी –उर्दू और अन्य भाषाओं के शब्दों का प्रयोग किया। इस प्रकार के प्रयोगों के उदाहरण बिरले ही मिलते हैं। तुलसीदास ने भाषा को नया स्वरूप दिया। यह अवधी नहीं अपितु वही भाषा थी जो प्राकृत से शौरसेनी अपभ्रंश होते हुए, १५ दशकों तक समस्त भारत की साहित्यिक भाषा रही ब्रजभाषा के नए रूप मागधी, अर्धमागधी आदि से सम्मिश्र होकर आधुनिक हिन्दी की ओर बढ़ रही थी जिसे ‘भाखा’ कहा गया एवं जो आधुनिक हिन्दी ‘खड़ीबोली’ का पूर्व रूप थी | काशी पंडितों द्वारा संस्कृत में निष्णात होते हुए भी संस्कृत के स्थान पर भाषा या ‘भाखा’ में रामचरित मानस लिखने पर कठोर आपत्ति की थी.....’कहा भाखा में लिखत हौ पंडित हौ संस्कृत में लिखौ ‘....यह जग प्रसिद्द घटना है | इन्हीं आपत्तियों के चलते काशी में तुलसीदास व मानस के बारे में विभिन्न घटनाएँ हुईं |
चित्रकूट स्थित अंतरराष्ट्रीय मानस अनुसंधान केन्द्र के प्रमुख स्वामी रामभद्राचार्य के अनुसार रामचरितमानस के वर्तमान संस्करणों में कर्तृवाचक उकार शब्दों की बहुलता हैं। उन्होंने इसे अवधी भाषा की प्रकृति के विरुद्ध बताया है। इसी प्रकार उन्होंने उकार को कर्मवाचक शब्द का चिन्ह मानना भी अवधी भाषा के विपरीत बताया है। उकारांत कर्तृवाचक शब्दों के प्रयोग भी अवधी भाषा के विरुद्ध है।
तुलसीदास 'ग्राम्य गिरा' के पक्षधर थे। परन्तु वे जायसी की गँवारू भाषा अवधी के पक्षधर नहीं थे। तुलसीदास की तुलना में जायसी की अवधी अधिक शुद्ध है तुलसीदास के अन्य अनेक ग्रन्थों में ‘पार्वतीमंगल’ तथा ‘जानकीमंगल’ अच्छी अवधी में है। संस्कृत के विद्वान् होने के कारण संस्कृत व आधुनिक शुद्ध हिन्दी खडीबोली का प्रयोग भी स्वाभाविक रूप में हुआ है | स्वामी रामभद्रचार्य ने 'न्ह' के प्रयोग को भी अनुचित और अनावश्यक बताया है। उनके अनुसार नकार के साथ हकार जोड़ना ब्रजभाषा का प्रयोग है अवधी का नहीं। स्वामीजी के अनुसार मानस की उपलब्ध प्रतियों में तुम के स्थान पर 'तुम्ह' और 'तुम्हहि' शब्दों के जो प्रयोग मिलते हैं वे अवधी में नहीं होते | इसी प्रकार 'श' न तो प्राचीन अवधी की ध्वनि है और न ही आधुनिक अवधी की।
रामचरितमानस की तुलसीदास द्वारा लिखित कोई प्रति उपलब्ध नहीं है। मानस की रचना आज से लगभग ५००
वर्ष पहले की गई थी। वह
भारत भर में हिन्दी साहित्य में ब्रजभाषा का काल था जो भाखा के रूप में हिन्दी का
रूप लेती जारही थी | निम्न चौपाइयों की भाषा देखिये लगभग शुद्ध हिन्दी है --
“सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू। बिधि हरि
हर बंदित पद रेनू।
सेवत सुलभ सकल सुखदायक। प्रनतपाल
सचराचर नायक।“
धीरज धर्म मित्र अरु नारी | आपत काल परखिये चारी |
कीरति भनिति भूति भलि सोई \ सुरसरि सम सब कहं हित होई |
प्रश्न यह है कि अवधी का उद्गम किस प्राकृत
से है। अवधी उत्तर भारत में बोले जाने वाली भारतीय-आर्य वर्ग की पूर्वी हिन्दी शाखा
की एक बोली है। अवधी शब्द से बोध होता है कि यह ‘अवध’ मात्र की बोली है, किन्तु यह एक ओर
अवध के कुछ क्षेत्रों में (जैसे हरदोई
जिले में अथवा खीरी और फैजाबाद के कुछ अंशो में) नही बोली जाती है और दूसरी ओर अवध के बाहर कुछ जिलो में (जैसे फतेहपुर, इलाहाबाद, जौनपुर
और मिर्जापुर में) बोली जाती है।
अवधी के पश्चिम
में वे बोलियां है जिनका सम्बन्ध शौरसेनी प्राकृत से है कन्नौजी
और बुन्देली
और पूर्व में बिहारी बोलियां
है भोजपुरी आदि जिनका सम्बन्ध मागधी से है।
मध्य-पश्चिम भागों पर कन्नौजी का
प्रभाव है| दक्षिण की ओर कोसल का
विस्तार, अर्थात दक्षिण कोसल है जहाँ बघेली और
छत्तीसगढ़ी बोली जाती है, जो मुस्लिमकाल में
विशेषतया गोंडवाना के नाम से ज्ञात और वन्य गोंड-भील जातियों से बसा हुआ था। अवधी
के उद्गम का कोई इतिहास ही नहीं प्राप्त होता |
‘पूर्वी’
का शब्दशः अर्थ है, पूर्व
प्रदेशीय और यह कभी अवधी के
लिए और कभी भोजपुरी के लिए प्रयुक्त
होता रहा है। है। ‘कोशली’ कोसल राज्य की भाषा का नाम था | ‘बैसवाड़ी’ बैसवाड़ा’ के
लिए प्रयुक्त होता है जिसके अन्र्तगत उन्नाव, लखनऊ, रायबरेली
और फतेहपुर जिलों
के अंश आते है। तुलसीदास ने अयोध्या के लिए अवध
शब्द प्रयुक्त किया और लालदास आदि ने इसे ‘अउध’ कहा
है। । अवध का सम्बंध
प्राचीन नगरी ‘अयोध्या’ से है| जो कि
मुसलमानी काल में पर्याप्त महत्वपूर्ण हुई। मिर्जापुर जिले के दक्षिण
पूर्वी त्रिकोण में -सोनपार प्रदेश में अवधी भोजपुरी से मिश्रित बोली
जाती है। सोनपार के और दक्षिण में छत्तीसगढ़ी की एक बोली सरगुजिआ
मिलती है।
अर्थात अवधी भाषा का अपना मुख्य क्षेत्र
केवल अवध ही है| इसका कोई प्राचीन इतिहास भी नहीं है | वास्तव में उत्तर-मुगल काल
में फैजाबाद तथा लखनऊ का बड़ा महत्व रहा है। दिल्ली दरवार टूटने के पश्चात मुगलिया
नबावी संस्कृति लखनऊ की ओर बढी | अवध के नवाब अपनी संस्कृति, खुशमिजाजी
और शान-शौकत के लिए प्रसिद्ध रहे है। अतः अवधी भाषा का प्रचार–प्रसार होने लगा |
अतः मानस की भाषा अवधी नहीं अपितु १५ दशकों तक समस्त भारत की साहित्यिक भाषा रही ब्रजभाषा के नए रूप मागधी, अर्धमागधी एवं
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, पंजाब से लेकर बंगाल तक अन्य पुरानी व नयी भारतीय
भाषाओं आदि से सम्मिश्र होकर आधुनिक हिन्दी की ओर बढ़ रही भाषा थी जिसे ‘भाखा’
कहा गया एवं जो आधुनिक हिन्दी ‘खड़ीबोली’ का पूर्व रूप थी | तुलसी हिन्दी को
जन-मानस में प्रतिष्ठित करना चाहते थे | अतः उन्होंने मानस की भाषा हिन्दी रखी |
इसीलिये उन्होंने अपने अन्य ग्रन्थ शुद्ध अवधी ( रामलला नहछू, जानकी मंगल आदि ) व
ब्रजभाषा ( कवितावली, विनयपत्रिका आदि ) में लिखे |
बांदा में जन्मे, काशी में पढ़े-लिखे व
अयोध्या में स्थित होकर मानस रचने वाले गोस्वामी तुलसीदास दोनों मूल भाषाओं पूर्वी
व पश्चिमी हिन्दी में पारंगत थे अतः वे मूलतः हिन्दी के कवि हैं| आज भाषा का यह
प्रश्न हिन्दी के विरुद्ध एक षडयंत्र की भांति लगता है जो हिन्दी की बोलियों में
मत-भिन्नता उत्पन्न करके हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के प्रयत्न को दूर तक टालने
का कुप्रयास है |
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