अगीत - त्रयी...---- भाग आठ ---डा श्याम गुप्त के कुछ अगीत ------
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--------अगीत कविता विधा के तीन स्तम्भ कवियों के परिचय साहित्यिक परिचय एवं रचनाओं का परिचय ---
अगीत कवि कुलगुरु साहित्यभूषण डा रंगनाथ मिश्र सत्य
महाकवि श्री जगत नारायण पांडे
महाकवि डा श्याम गुप्त-
\\
----- डा श्यामगुप्त के श्रेष्ठ अगीत ----
--- अगीत ---
\
१.टोपी
वे राष्ट्र गान गाकर
भीड़ को देश पर मर मिटने की,
कसम दिलाकर;
बैठ गए लक्सरी कार में जाकर ;
टोपी पकडाई पी ऐ को
अगले वर्ष के लिए
रखे धुलाकर |
२.अगीत .....
प्रेम विह्वलता, विरह, भावातिरेक की धारा ,
बहती है जब मन में ,
अजस्र, अपरिमित, प्रवाहमान; तब-
गीत निस्रत होते हैं.
सरिता की अविरल धारा की तरह |
वही धारा, प्रश्नों को उत्तरित करती हुई
व्याख्या, विश्लेषण, सत्य को
जन -जन के लिए उद्घाटित करती हुई,
निस्रत निर्झरिणी बन कर -
अगीत बन जाती है |
३.प्रकृति सुन्दरी का यौवन....
कम संसाधन
अधिक दोहन,
न नदिया में जल,
न बाग़-बगीचों का नगर |
न कोकिल की कूक
न मयूर की नृत्य सुषमा ,
कहीं अनावृष्टि कहीं अति-वृष्टि ;
किसने भ्रष्ट किया-
प्रकृति सुन्दरी का यौवन ?
४. संतुलन....
विकास हेतु,
संसाधन दोहन की नासमझ होड़,
अति-शोषण की अंधी दौड़,
प्रकृति का संतुलन देती है बिगाड़;
विकल हो जाते हैं-नदी सागर पहाड़,
नियामक व्यवस्था तभी करती है यह जुगाड़|
चेतावनी देती है,
सुनामी बनकर सब कुछ उजाड़ देती है,
अपना संतुलन सुधार लेती है |
५. माँ और आया
"अंग्रेज़ी आया ने,
हिन्दी मां को घर से निकाला;
देकर, फास्ट-फ़ूड ,पिज्जा, बर्गर -
क्रिकेट, केम्पा-कोला, कम्प्यूटरीकरण ,
उदारीकरण, वैश्वीकरण
का हवाला | "
६.अमर
"मरणोपरांत जीव,
यद्यपि मुक्त होजाता है ,
संसार से , पर--
कैद रहता है वह मन में ,
आत्मीयों के याद रूपी बंधन में ,
और होजाता है अमर | "
७.बंधन-मुक्ति
वह बंधन में थी
धर्म संस्कृति सुसंस्कारों का
चोला ओढ़कर,
अब वह मुक्त है, स्वतंत्र है
लाज व शर्मो-हया के वस्त्रों का
चोला छोड़कर |
८.कालपात्र
किसलिए काल
रचता है रचनाएँ
सम-सामयिक, तात्कालिक,
व सामयिक इतिहास के
सरोकारों को निबद्ध करता है ,
तथ्यों को बढ करता है |
एक कालपात्र होता है
साहित्य
तभी वह होता है कालजयी |
९. अनास्था
अपना दोष
ईश्वर के सिर
इंसान क्यों है इतना तंग नज़र !
क्या केवल कुछ पाने की इच्छा से थी, भक्ति-
नहीं थी आस्था, बस आसक्ति |
जो कष्टों के एक झटके से ही
टूट जाए ,
वह अनास्था
आस्था कब कहलाये |
१०. अर्थ
अर्थ स्वयं में एक अनर्थ है |
मन में भय चिंता भ्रम की
उत्पत्ति में समर्थ है |
इसकी प्राप्ति, रक्षण व उपयोग में भी
करना पड़ता है कठोर श्रम,
आज है, कल होगा या नहीं या होगा नष्ट
इसका नहीं है कोइ निश्चित क्रम|
अर्थ मानव के पतन में समर्थ है,
फिर भी जीवन के -
सभी अर्थों का अर्थ है |
\\
-----लयबद्ध अगीत----
\
११.
तुम जो सदा कहा करती थीं
मीत सदा मेरे बन रहना |
तुमने ही मुख फेर लिया क्यों
मैंने तो कुछ नहीं कहा था |
शायद तुमको नहीं पता था ,
मीत भला कहते हैं किसको |
मीत शब्द को नहीं पढ़ा था ,
तुमने मन के शब्दकोश में ||
१२.
" यह कंचन सा रूप तुम्हारा
निखर उठा सुरसरि धारा में;
अथवा सोनपरी सी कोई,
हुई अवतरित सहसा जल में ;
अथवा पद वंदन को उतरा,
स्वयं इंदु ही गंगाजल में |
१३.
तेरे मन की नर्म छुअन को,
बैरी मन पहचान न पाया|
तेरे तन की तप्त चुभन को,
मैं था रहा समझता माया |
अब बैठा यह सोच रहा हूँ
तुमने क्यों न मुझे समझाया |
ज्ञान ध्यान तप योग साधना,
में मैंने इस मन को रामाया |
यह भी तो माया संभ्रम है ,
यूंही हुआ पराया तुमसे |
\\
-----नव-अगीत ----
\
१४.प्रश्न
कितने शहीद ,
कब्र से उठकर पूछते हैं-
हम मरे किस देश के लिए ,
अल्लाह के, या-
ईश्वर के |
१५..बंधन
वह बंधन में थी ,
संस्कृति संस्कार सुरुचि के
परिधान कन्धों पर धारकर ;
अब वह मुक्त है ,
सहर्ष , कपडे उतारकर ||
१६.. दिशाहीन
मस्त हैं सब -
अपने काम काज, या -
मनोरंजन में; और -
खड़े हैं हर मोड़ पर
दिशाहीन ||
१७.. मेरा देश कहाँ
यह अ जा का ,
यह अ ज जा का ,
यह अन्य पिछड़ों का ,
यह सवर्णों का ;
कहाँ है मेरा देश ?
१८..तुम्हारी छवि
" मन के अंधियारे पटल पर ,
तुम्हारी छवि,
ज्योति-किरण सी लहराई;
एक नई कविता,
पुष्पित हो आई |
\\
-----त्रिपदा अगीत ----
\
१९..
खडे सडक इस पार रहे हम,
खडे सडक उस पार रहे तुम;
बीच में दुनिया रही भागती।
२०..
चर्चायें थीं स्वर्ग नरक की,
देखी तेरी वफ़ा-ज़फ़ा तो;
दोनों पाये तेरे द्वारे।।
२१..
क्यों पश्चिम अपनाया जाए,
सूरज उगता है पूरब में;
पश्चिम में तो ढलना निश्चित |
२२..
" पायल छनका कर दूर हुए,
हम कुछ ऐसे मज़बूर हुए ;
उस नाद-ब्रह्म मद चूर हुए |"
२३..
" मिटा सके भूखे की हसरत,
दो रोटी भी उपलब्ध नहीं ;
क्या करोगे ढूँढ कर अमृत | "
\\
-----लयबद्ध षटपदी अगीत----
\
२४..
पुरुष-धर्म से जो गिर जाता,
अवगुण युक्त वही पति करता;
पतिव्रत धर्म-हीन, नारी को |
अर्थ राज्य छल और दंभ हित,
नारी का प्रयोग जो करता;
वह नर कब निज धर्म निभाता ? ...
२५..
वह समाज जो नर-नारी को,
उचित धर्म-आदेश न देता |
राष्ट्र राज्य जो स्वार्थ नीति-हित,
प्रजा भाव हित कर्म न करता;
दुखी, अभाव-भाव नर-नारी,
भ्रष्ट, पतित होते तन मन से ||
२६..
माया-पुरुष रूप होते हैं,
नारी-नर के भाव जगत में |
इच्छा कर्म व प्रेम-शक्ति से ,
पुरुष स्वयं माया को रचता |
पुनः स्वयं ही जीव रूप धर,
माया जग में विचरण करता || …… शूर्पणखा से
२७..
" परम व्योम की इस अशान्ति से ,
द्वंद्व भाव कण-कण में उभरा ;
हलचल से गति मिली कणों को ,
अप:तत्व में साम्य जगत के |
गति से आहत नाद बने ,फिर -
शब्द वायु ऊर्जा जल और मन | .
२८.
" जग की इस अशांति-क्रंदन का,
लालच लोभ मोह-बंधन का |
भ्रष्ट पतित सत्ता गठबंधन,
यह सब क्यों, इस यक्ष -प्रश्न का |
एक यही उत्तर सीधा सा ;
भूल गया नर आप स्वयं को || " …. सृष्टि से
२९.
बालू से सागर के तट पर ,
खूब घरोंदे गए उकेरे |
वक्त की ऊंची लहर उठी जब,
सब कुछ आकर बहा ले गयी |
छोड़ गयी कुछ घोंघे-सीपी,
सजा लिए हमने दामन में | …प्रेम काव्य से
\\
-----त्रिपदा अगीत ग़ज़ल.----
\..
३०. बात करें
भग्न अतीत की न बात करें ,
व्यर्थ बात की क्या बात करें ;
अब नवोन्मेष की बात करें |
यदि महलों में जीवन हंसता ,
झोपडियों में जीवन पलता ;
क्या उंच-नीच की बात करें |
शीश झुकाएं क्यों पश्चिम को,
क्यों अतीत से हम भरमाएं ;
कुछ आदर्शों की बात करें |
शास्त्र बड़े-बूढ़े और बालक ,
है सम्मान देना, पाना तो ;
मत श्याम’व्यंग्य की बात करें |
---------------
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--------अगीत कविता विधा के तीन स्तम्भ कवियों के परिचय साहित्यिक परिचय एवं रचनाओं का परिचय ---
अगीत कवि कुलगुरु साहित्यभूषण डा रंगनाथ मिश्र सत्य
महाकवि श्री जगत नारायण पांडे
महाकवि डा श्याम गुप्त-
\\
----- डा श्यामगुप्त के श्रेष्ठ अगीत ----
--- अगीत ---
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१.टोपी
वे राष्ट्र गान गाकर
भीड़ को देश पर मर मिटने की,
कसम दिलाकर;
बैठ गए लक्सरी कार में जाकर ;
टोपी पकडाई पी ऐ को
अगले वर्ष के लिए
रखे धुलाकर |
२.अगीत .....
प्रेम विह्वलता, विरह, भावातिरेक की धारा ,
बहती है जब मन में ,
अजस्र, अपरिमित, प्रवाहमान; तब-
गीत निस्रत होते हैं.
सरिता की अविरल धारा की तरह |
वही धारा, प्रश्नों को उत्तरित करती हुई
व्याख्या, विश्लेषण, सत्य को
जन -जन के लिए उद्घाटित करती हुई,
निस्रत निर्झरिणी बन कर -
अगीत बन जाती है |
३.प्रकृति सुन्दरी का यौवन....
कम संसाधन
अधिक दोहन,
न नदिया में जल,
न बाग़-बगीचों का नगर |
न कोकिल की कूक
न मयूर की नृत्य सुषमा ,
कहीं अनावृष्टि कहीं अति-वृष्टि ;
किसने भ्रष्ट किया-
प्रकृति सुन्दरी का यौवन ?
४. संतुलन....
विकास हेतु,
संसाधन दोहन की नासमझ होड़,
अति-शोषण की अंधी दौड़,
प्रकृति का संतुलन देती है बिगाड़;
विकल हो जाते हैं-नदी सागर पहाड़,
नियामक व्यवस्था तभी करती है यह जुगाड़|
चेतावनी देती है,
सुनामी बनकर सब कुछ उजाड़ देती है,
अपना संतुलन सुधार लेती है |
५. माँ और आया
"अंग्रेज़ी आया ने,
हिन्दी मां को घर से निकाला;
देकर, फास्ट-फ़ूड ,पिज्जा, बर्गर -
क्रिकेट, केम्पा-कोला, कम्प्यूटरीकरण ,
उदारीकरण, वैश्वीकरण
का हवाला | "
६.अमर
"मरणोपरांत जीव,
यद्यपि मुक्त होजाता है ,
संसार से , पर--
कैद रहता है वह मन में ,
आत्मीयों के याद रूपी बंधन में ,
और होजाता है अमर | "
७.बंधन-मुक्ति
वह बंधन में थी
धर्म संस्कृति सुसंस्कारों का
चोला ओढ़कर,
अब वह मुक्त है, स्वतंत्र है
लाज व शर्मो-हया के वस्त्रों का
चोला छोड़कर |
८.कालपात्र
किसलिए काल
रचता है रचनाएँ
सम-सामयिक, तात्कालिक,
व सामयिक इतिहास के
सरोकारों को निबद्ध करता है ,
तथ्यों को बढ करता है |
एक कालपात्र होता है
साहित्य
तभी वह होता है कालजयी |
९. अनास्था
अपना दोष
ईश्वर के सिर
इंसान क्यों है इतना तंग नज़र !
क्या केवल कुछ पाने की इच्छा से थी, भक्ति-
नहीं थी आस्था, बस आसक्ति |
जो कष्टों के एक झटके से ही
टूट जाए ,
वह अनास्था
आस्था कब कहलाये |
१०. अर्थ
अर्थ स्वयं में एक अनर्थ है |
मन में भय चिंता भ्रम की
उत्पत्ति में समर्थ है |
इसकी प्राप्ति, रक्षण व उपयोग में भी
करना पड़ता है कठोर श्रम,
आज है, कल होगा या नहीं या होगा नष्ट
इसका नहीं है कोइ निश्चित क्रम|
अर्थ मानव के पतन में समर्थ है,
फिर भी जीवन के -
सभी अर्थों का अर्थ है |
\\
-----लयबद्ध अगीत----
\
११.
तुम जो सदा कहा करती थीं
मीत सदा मेरे बन रहना |
तुमने ही मुख फेर लिया क्यों
मैंने तो कुछ नहीं कहा था |
शायद तुमको नहीं पता था ,
मीत भला कहते हैं किसको |
मीत शब्द को नहीं पढ़ा था ,
तुमने मन के शब्दकोश में ||
१२.
" यह कंचन सा रूप तुम्हारा
निखर उठा सुरसरि धारा में;
अथवा सोनपरी सी कोई,
हुई अवतरित सहसा जल में ;
अथवा पद वंदन को उतरा,
स्वयं इंदु ही गंगाजल में |
१३.
तेरे मन की नर्म छुअन को,
बैरी मन पहचान न पाया|
तेरे तन की तप्त चुभन को,
मैं था रहा समझता माया |
अब बैठा यह सोच रहा हूँ
तुमने क्यों न मुझे समझाया |
ज्ञान ध्यान तप योग साधना,
में मैंने इस मन को रामाया |
यह भी तो माया संभ्रम है ,
यूंही हुआ पराया तुमसे |
\\
-----नव-अगीत ----
\
१४.प्रश्न
कितने शहीद ,
कब्र से उठकर पूछते हैं-
हम मरे किस देश के लिए ,
अल्लाह के, या-
ईश्वर के |
१५..बंधन
वह बंधन में थी ,
संस्कृति संस्कार सुरुचि के
परिधान कन्धों पर धारकर ;
अब वह मुक्त है ,
सहर्ष , कपडे उतारकर ||
१६.. दिशाहीन
मस्त हैं सब -
अपने काम काज, या -
मनोरंजन में; और -
खड़े हैं हर मोड़ पर
दिशाहीन ||
१७.. मेरा देश कहाँ
यह अ जा का ,
यह अ ज जा का ,
यह अन्य पिछड़ों का ,
यह सवर्णों का ;
कहाँ है मेरा देश ?
१८..तुम्हारी छवि
" मन के अंधियारे पटल पर ,
तुम्हारी छवि,
ज्योति-किरण सी लहराई;
एक नई कविता,
पुष्पित हो आई |
\\
-----त्रिपदा अगीत ----
\
१९..
खडे सडक इस पार रहे हम,
खडे सडक उस पार रहे तुम;
बीच में दुनिया रही भागती।
२०..
चर्चायें थीं स्वर्ग नरक की,
देखी तेरी वफ़ा-ज़फ़ा तो;
दोनों पाये तेरे द्वारे।।
२१..
क्यों पश्चिम अपनाया जाए,
सूरज उगता है पूरब में;
पश्चिम में तो ढलना निश्चित |
२२..
" पायल छनका कर दूर हुए,
हम कुछ ऐसे मज़बूर हुए ;
उस नाद-ब्रह्म मद चूर हुए |"
२३..
" मिटा सके भूखे की हसरत,
दो रोटी भी उपलब्ध नहीं ;
क्या करोगे ढूँढ कर अमृत | "
\\
-----लयबद्ध षटपदी अगीत----
\
२४..
पुरुष-धर्म से जो गिर जाता,
अवगुण युक्त वही पति करता;
पतिव्रत धर्म-हीन, नारी को |
अर्थ राज्य छल और दंभ हित,
नारी का प्रयोग जो करता;
वह नर कब निज धर्म निभाता ? ...
२५..
वह समाज जो नर-नारी को,
उचित धर्म-आदेश न देता |
राष्ट्र राज्य जो स्वार्थ नीति-हित,
प्रजा भाव हित कर्म न करता;
दुखी, अभाव-भाव नर-नारी,
भ्रष्ट, पतित होते तन मन से ||
२६..
माया-पुरुष रूप होते हैं,
नारी-नर के भाव जगत में |
इच्छा कर्म व प्रेम-शक्ति से ,
पुरुष स्वयं माया को रचता |
पुनः स्वयं ही जीव रूप धर,
माया जग में विचरण करता || …… शूर्पणखा से
२७..
" परम व्योम की इस अशान्ति से ,
द्वंद्व भाव कण-कण में उभरा ;
हलचल से गति मिली कणों को ,
अप:तत्व में साम्य जगत के |
गति से आहत नाद बने ,फिर -
शब्द वायु ऊर्जा जल और मन | .
२८.
" जग की इस अशांति-क्रंदन का,
लालच लोभ मोह-बंधन का |
भ्रष्ट पतित सत्ता गठबंधन,
यह सब क्यों, इस यक्ष -प्रश्न का |
एक यही उत्तर सीधा सा ;
भूल गया नर आप स्वयं को || " …. सृष्टि से
२९.
बालू से सागर के तट पर ,
खूब घरोंदे गए उकेरे |
वक्त की ऊंची लहर उठी जब,
सब कुछ आकर बहा ले गयी |
छोड़ गयी कुछ घोंघे-सीपी,
सजा लिए हमने दामन में | …प्रेम काव्य से
\\
-----त्रिपदा अगीत ग़ज़ल.----
\..
३०. बात करें
भग्न अतीत की न बात करें ,
व्यर्थ बात की क्या बात करें ;
अब नवोन्मेष की बात करें |
यदि महलों में जीवन हंसता ,
झोपडियों में जीवन पलता ;
क्या उंच-नीच की बात करें |
शीश झुकाएं क्यों पश्चिम को,
क्यों अतीत से हम भरमाएं ;
कुछ आदर्शों की बात करें |
शास्त्र बड़े-बूढ़े और बालक ,
है सम्मान देना, पाना तो ;
मत श्याम’व्यंग्य की बात करें |
---------------
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (25-04-2017) को
जवाब देंहटाएं"जाने कहाँ गये वो दिन" (चर्चा अंक-2623)
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'