अगीत - त्रयी...---- भाग छः ------------श्री जगत नारायण पांडे----
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--------अगीत कविता विधा के तीन स्तम्भ कवियों के परिचय साहित्यिक परिचय एवं रचनाओं का परिचय ---
अगीत कवि कुलगुरु साहित्यभूषण डा रंगनाथ मिश्र सत्य
महाकवि श्री जगत नारायण पांडे
महाकवि डा श्याम गुप्त-
\
श्री जगत नारायण पांडे के कुछ अगीत -----
----- अगीत छंद----
१.
लिखता हूँ कविता
आखिर मैं किसलिए,
उत्तर दिया मन ने
अपने ही मन के लिए |
सत्य ने कहा रंग को
बिखरने दो जगत में
सार्थक होजायगी
तभी तेरी कविता |
२.
भूल गया अपना नाम
धुंए और शोर से
प्रदूषण के दूषण से
उड़ नहीं पाता हीरामन
घायल हैं पंख
रुंधा है कंठ
कैसे बोले राम राम |
३.
झुरमुट के कोने में
कमर का दर्द लपेटे
दाने बीनती परछाईं |
जमाना ढूंढ रहा है
खुद को किसी ढेर में |
४.
साधन और संकल्प
अन्योन्याश्रित हैं |
छूट गया अगर साथ
मलते रहेंगे हाथ,
धरे रह जायेंगे फिर
अंधेर में अरमान सब
सुलगने के लिए बस |
५.
काल की लहरों पर
मिलते बिछुड़ते रहे
प्रश्नों ने मांगे जब
उत्तर हम देते रहे
उत्तर न पा सके
अपने ही प्रश्न मगर |
६.
गिरेबां चमन के
होगये चाक
खिजाँ से आशना हुए
रहगुजर का निजाम है
दस्तो-पा खून आलूद हैं
मायूस है दिल गम से
कातिल का नाम पर हम न लेंगे |
७.
मात्र एक अहंकार
देता है जन्म विवेकहीनता को,
शून्य हो जाती है
अपनी पहचान, और-
विलीन होजाता है
सत्य का आकार |
८.
अक्षर और शब्द
गूंगे नहीं होते हैं !
कला आती नहीं
सामर्थ्य भी है नहीं
शब्दकोश केवल
पलटते रह जायेंगे !
अनुभव की कसौटी
रचती है नया कोश
रहता नहीं निरर्थक कोई शब्द |
९.
प्रथम रश्मि का आँचल
मृदुल पवन की लहर
तुहिन के मुक्ताकण
पल्लवों पर ठिठककर
गतिमान कर देते हैं
कवि की कल्पना के
प्राणों को अविरल |
१०.
कर रहे हो हत्या तुम
कन्या के भ्रूण की !
कर रहे हो पाप, छीन कर जीवन
भविष्य की मां का तुम |
जन्म देगा कौन फिर
अवतारों पैगम्बरों को
अवरुद्ध कर रहे क्यों
भविष्य की गति को तुम |
११.
उंच और नीच, दलित और पीड़ित
सबका है योगदान
राष्ट्र की प्रगति में
भूलें ये कभी न हम |
समरसता बंधुत्व से
सिंचित कर राष्ट्र को
उगाते रहें सदा
प्रगति के बीज |
१२.
आदिम युग में जाने क्यों
जी रहा है आज भी
सभी समाज यह
करके पैने नाखून
धंसा रहा है सीने में
इंसानियत के
क्यों आखिर ?
१३.
एक क्षितिज पर
उगता है सूरज
और डूब जाता है
दूसरे क्षितिज पर |
देखा नहीं कभी उसे चलते हुए
अपनी राह भटक कर |
१४.
क्या होगा आखिर
फूलों का, बहारों का
चांदनी का, हवाओं का
खुशनुमा नजारों का
मोती भी शबनमी,
सूख सब जायंगे
जलती रही धरती अगर
सूनी होजायगी
कलम की माँग फिर|
१५.
लूट में बंदी युवक से मैंने कहा,
’शक्ति यह-लगाओ देश की रक्षा में ‘
नेताओं की कृपा से-
लूटमार करके मैं
करता हूँ ऐश, फिर-
फ़ायदा क्या है भला
सीमा पर खून बहाने से ,
बोला वह धीमे से |
\
----गतिमय सप्तपदी अगीत छंद ---
. ..(महाकाव्य सौमित्र गुणाकर से)
१६.
चला जारहा मानव ऊपर
चिंता नहीं धरा की किंचित
भाग रहा है अपने से ही
संग निराशा की गठरी ले |
पंथ प्रकाशित हो संयम का
दे वरदान ज्योति का हे मां !
करून वन्दना रामानुज की | ..
१७.
गणनायक की कृपादृष्टि से
मां वाणी ने दिया सहारा
खुले कपट बुद्धि के जब, तब,
हुए शब्द-अक्षर संयोजितफ
पाई शक्ति लेखनी ने, फिर |
रामानुज की विमल कथा का
प्रणयन है अगीत शैली में |
१८.
स्रोत सृष्टि के लगे सूखने
सुख के सब आधार मिट गए |
लोभ मोह मद काम क्रोध की
महिमा का विस्तार होगया
ह्रास होगया सत्संगति का
क्षीण हुए सामाजिक बंधन
असंतुलन होगया सृष्टि का |....
१९.
सुनकर धनुष यज्ञ की चर्चा
विश्वामित्र होगये पुलकित |
राम लक्ष्मण को प्रेरित कर
जागृत की उत्कंठा मन में ,
धनुष यज्ञ दर्शन करने की |
अनुज सहित प्रभु की सहमति पा
चले साथ मुनिवर मिथिला को |
२०.
किया सुदृड़ भूतल लक्ष्मण ने
लेपन करके मृदा भित्ति पर |
भिन्न भिन्न पुष्पों के रंग से
रचना की सुन्दर चित्रों की |
प्रभु की पर्णकुटी से हटकर
था विशाल वटबृक्ष अवस्थित
स्वयं व्यवस्थित हुए वहां पर |
\
. .. खंड काव्य – मोह और पश्चाताप से -----
२१.
छुब्ध होरहा है हर मानव
पनप रहा है वैर निरंतर |
राम और शिव के अभाव में
विकल होरहीं मर्यादाएं ,
व्याप्त होरहा विष चन्दन में |
पीडाएं हर सकूं जगत की
ज्ञान मुझे दो प्रभु प्रणयन का |
२२.
काम क्रोध मद लोभ मोह सब
भाव बंधन के करक है बस,
ऋषि मुनि देव असुर औ मानव
माया से बच सका न कोइ
पश्चाताप शरण प्रभु की, है
मार्ग मुक्ति का हर कल्मष से
हो जाता अंतर्मन निर्मल |
२३.
नारद विष्णु भक्त थे ज्ञानी
काम विजय से उपज मोह ने
काम-क्रोध ने अहंकार ने
निरत लोक-कल्याण भक्त को
विचलित किया पंथ से, लेकिन
शाप भोग कर श्री हरि ने फिर
किया निवारण उनके भ्रम को |
२४.
सीता के प्रति चिंता को फिर
व्यक्त किया शबरी से प्रभु ने
बोली,’ अधमाधम नारी को
दर्शन देकर धन्य किया है
आगे ऋष्यमूक पर्वत पर
प्रभु ! हनुमान ,सुकंठ मिलेंगे
देंगे वह सहयोग आपको |
२५.
अहंकार का नाश होगया
नष्ट हुआ असुरों का संकुल
स्थिर हुआ शान्ति का शासन
हुए प्रसन्न संतगण, मुनिजन
होने लगे यज्ञ निष्कंटक
राम राज्य के शुभारम्भ की
शंखध्वनि गूंजी लंका में |
\
-----नवअगीत छंद ( अगीतिका से )-----
२६.
अँधेरे में छिपा लेते हैं पाप
दिन में पर रखते हैं
चेहरा ,
हर दम साफ़ |
२७.
सब के सब टूट गए
निष्ठा के प्रतिमान
जीवित संबंधों के
तटबंध डूब गए
स्रोत संकल्पों के रीत गए |
२८.
सिद्धांत का अभाव
डराता है सत्य को
यही है –
सत्ता का स्वभाव |
२९.
संकल्प ले चुके हम
पोलियो मुक्त जीवन का |
धर्म और आतंक के
विष से मुक्ति का
संकल्प भी तो लें हम |
३०.
बैठा था पनघट पर
अधूरी प्यास लिए
अतृप्त मन का
कर दिया तर्पण
नयनों ने छलककर |
--------क्रमश भाग सात---- महाकवि डा श्याम गुप्त .....
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--------अगीत कविता विधा के तीन स्तम्भ कवियों के परिचय साहित्यिक परिचय एवं रचनाओं का परिचय ---
अगीत कवि कुलगुरु साहित्यभूषण डा रंगनाथ मिश्र सत्य
महाकवि श्री जगत नारायण पांडे
महाकवि डा श्याम गुप्त-
\
श्री जगत नारायण पांडे के कुछ अगीत -----
----- अगीत छंद----
१.
लिखता हूँ कविता
आखिर मैं किसलिए,
उत्तर दिया मन ने
अपने ही मन के लिए |
सत्य ने कहा रंग को
बिखरने दो जगत में
सार्थक होजायगी
तभी तेरी कविता |
२.
भूल गया अपना नाम
धुंए और शोर से
प्रदूषण के दूषण से
उड़ नहीं पाता हीरामन
घायल हैं पंख
रुंधा है कंठ
कैसे बोले राम राम |
३.
झुरमुट के कोने में
कमर का दर्द लपेटे
दाने बीनती परछाईं |
जमाना ढूंढ रहा है
खुद को किसी ढेर में |
४.
साधन और संकल्प
अन्योन्याश्रित हैं |
छूट गया अगर साथ
मलते रहेंगे हाथ,
धरे रह जायेंगे फिर
अंधेर में अरमान सब
सुलगने के लिए बस |
५.
काल की लहरों पर
मिलते बिछुड़ते रहे
प्रश्नों ने मांगे जब
उत्तर हम देते रहे
उत्तर न पा सके
अपने ही प्रश्न मगर |
६.
गिरेबां चमन के
होगये चाक
खिजाँ से आशना हुए
रहगुजर का निजाम है
दस्तो-पा खून आलूद हैं
मायूस है दिल गम से
कातिल का नाम पर हम न लेंगे |
७.
मात्र एक अहंकार
देता है जन्म विवेकहीनता को,
शून्य हो जाती है
अपनी पहचान, और-
विलीन होजाता है
सत्य का आकार |
८.
अक्षर और शब्द
गूंगे नहीं होते हैं !
कला आती नहीं
सामर्थ्य भी है नहीं
शब्दकोश केवल
पलटते रह जायेंगे !
अनुभव की कसौटी
रचती है नया कोश
रहता नहीं निरर्थक कोई शब्द |
९.
प्रथम रश्मि का आँचल
मृदुल पवन की लहर
तुहिन के मुक्ताकण
पल्लवों पर ठिठककर
गतिमान कर देते हैं
कवि की कल्पना के
प्राणों को अविरल |
१०.
कर रहे हो हत्या तुम
कन्या के भ्रूण की !
कर रहे हो पाप, छीन कर जीवन
भविष्य की मां का तुम |
जन्म देगा कौन फिर
अवतारों पैगम्बरों को
अवरुद्ध कर रहे क्यों
भविष्य की गति को तुम |
११.
उंच और नीच, दलित और पीड़ित
सबका है योगदान
राष्ट्र की प्रगति में
भूलें ये कभी न हम |
समरसता बंधुत्व से
सिंचित कर राष्ट्र को
उगाते रहें सदा
प्रगति के बीज |
१२.
आदिम युग में जाने क्यों
जी रहा है आज भी
सभी समाज यह
करके पैने नाखून
धंसा रहा है सीने में
इंसानियत के
क्यों आखिर ?
१३.
एक क्षितिज पर
उगता है सूरज
और डूब जाता है
दूसरे क्षितिज पर |
देखा नहीं कभी उसे चलते हुए
अपनी राह भटक कर |
१४.
क्या होगा आखिर
फूलों का, बहारों का
चांदनी का, हवाओं का
खुशनुमा नजारों का
मोती भी शबनमी,
सूख सब जायंगे
जलती रही धरती अगर
सूनी होजायगी
कलम की माँग फिर|
१५.
लूट में बंदी युवक से मैंने कहा,
’शक्ति यह-लगाओ देश की रक्षा में ‘
नेताओं की कृपा से-
लूटमार करके मैं
करता हूँ ऐश, फिर-
फ़ायदा क्या है भला
सीमा पर खून बहाने से ,
बोला वह धीमे से |
\
----गतिमय सप्तपदी अगीत छंद ---
. ..(महाकाव्य सौमित्र गुणाकर से)
१६.
चला जारहा मानव ऊपर
चिंता नहीं धरा की किंचित
भाग रहा है अपने से ही
संग निराशा की गठरी ले |
पंथ प्रकाशित हो संयम का
दे वरदान ज्योति का हे मां !
करून वन्दना रामानुज की | ..
१७.
गणनायक की कृपादृष्टि से
मां वाणी ने दिया सहारा
खुले कपट बुद्धि के जब, तब,
हुए शब्द-अक्षर संयोजितफ
पाई शक्ति लेखनी ने, फिर |
रामानुज की विमल कथा का
प्रणयन है अगीत शैली में |
१८.
स्रोत सृष्टि के लगे सूखने
सुख के सब आधार मिट गए |
लोभ मोह मद काम क्रोध की
महिमा का विस्तार होगया
ह्रास होगया सत्संगति का
क्षीण हुए सामाजिक बंधन
असंतुलन होगया सृष्टि का |....
१९.
सुनकर धनुष यज्ञ की चर्चा
विश्वामित्र होगये पुलकित |
राम लक्ष्मण को प्रेरित कर
जागृत की उत्कंठा मन में ,
धनुष यज्ञ दर्शन करने की |
अनुज सहित प्रभु की सहमति पा
चले साथ मुनिवर मिथिला को |
२०.
किया सुदृड़ भूतल लक्ष्मण ने
लेपन करके मृदा भित्ति पर |
भिन्न भिन्न पुष्पों के रंग से
रचना की सुन्दर चित्रों की |
प्रभु की पर्णकुटी से हटकर
था विशाल वटबृक्ष अवस्थित
स्वयं व्यवस्थित हुए वहां पर |
\
. .. खंड काव्य – मोह और पश्चाताप से -----
२१.
छुब्ध होरहा है हर मानव
पनप रहा है वैर निरंतर |
राम और शिव के अभाव में
विकल होरहीं मर्यादाएं ,
व्याप्त होरहा विष चन्दन में |
पीडाएं हर सकूं जगत की
ज्ञान मुझे दो प्रभु प्रणयन का |
२२.
काम क्रोध मद लोभ मोह सब
भाव बंधन के करक है बस,
ऋषि मुनि देव असुर औ मानव
माया से बच सका न कोइ
पश्चाताप शरण प्रभु की, है
मार्ग मुक्ति का हर कल्मष से
हो जाता अंतर्मन निर्मल |
२३.
नारद विष्णु भक्त थे ज्ञानी
काम विजय से उपज मोह ने
काम-क्रोध ने अहंकार ने
निरत लोक-कल्याण भक्त को
विचलित किया पंथ से, लेकिन
शाप भोग कर श्री हरि ने फिर
किया निवारण उनके भ्रम को |
२४.
सीता के प्रति चिंता को फिर
व्यक्त किया शबरी से प्रभु ने
बोली,’ अधमाधम नारी को
दर्शन देकर धन्य किया है
आगे ऋष्यमूक पर्वत पर
प्रभु ! हनुमान ,सुकंठ मिलेंगे
देंगे वह सहयोग आपको |
२५.
अहंकार का नाश होगया
नष्ट हुआ असुरों का संकुल
स्थिर हुआ शान्ति का शासन
हुए प्रसन्न संतगण, मुनिजन
होने लगे यज्ञ निष्कंटक
राम राज्य के शुभारम्भ की
शंखध्वनि गूंजी लंका में |
\
-----नवअगीत छंद ( अगीतिका से )-----
२६.
अँधेरे में छिपा लेते हैं पाप
दिन में पर रखते हैं
चेहरा ,
हर दम साफ़ |
२७.
सब के सब टूट गए
निष्ठा के प्रतिमान
जीवित संबंधों के
तटबंध डूब गए
स्रोत संकल्पों के रीत गए |
२८.
सिद्धांत का अभाव
डराता है सत्य को
यही है –
सत्ता का स्वभाव |
२९.
संकल्प ले चुके हम
पोलियो मुक्त जीवन का |
धर्म और आतंक के
विष से मुक्ति का
संकल्प भी तो लें हम |
३०.
बैठा था पनघट पर
अधूरी प्यास लिए
अतृप्त मन का
कर दिया तर्पण
नयनों ने छलककर |
--------क्रमश भाग सात---- महाकवि डा श्याम गुप्त .....
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