हिन्दी
के विरुद्ध षडयंत्र ...डा
श्याम गुप्त
स्वतन्त्रता के
आन्दोलन के साथ हिन्दी की प्रगति का रथ भी तेज़ गति से आगे बढ़ा और हिन्दी
राष्ट्रीय चेतना की प्रतीक बनी| स्वाधीनता आन्दोलन का नेतृत्व यह जानता था कि लगभग
१००० वर्षों से हिन्दी सम्पूर्ण भारत की एकता का कारक रही है| संतों, फकीरों, व्यापारियों, तीर्थयात्रियों,
सैनिकों आदि के माध्यम से यह भाषा समस्त देश के कोने कोने में
प्रयुक्त होती रही है।
मूलतः हिन्दी को यह मान्यता दिलाने वालों में वे विद्वान् थे जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं थी। यथा बंगाल के केशवचन्द्र सेन, राजा राम मोहन राय, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस; पंजाब के बिपिनचन्द्र पाल, लाला लाजपत राय; गुजरात के स्वामी दयानन्द, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी; महाराष्ट्र के लोकमान्य तिलक तथा दक्षिण भारत के सुब्रह्मण्यम भारती आदि । इस प्रकार हिन्दी भारतीय स्वाभिमान और स्वातंत्र्य चेतना की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गई और राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक |
मूलतः हिन्दी को यह मान्यता दिलाने वालों में वे विद्वान् थे जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं थी। यथा बंगाल के केशवचन्द्र सेन, राजा राम मोहन राय, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस; पंजाब के बिपिनचन्द्र पाल, लाला लाजपत राय; गुजरात के स्वामी दयानन्द, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी; महाराष्ट्र के लोकमान्य तिलक तथा दक्षिण भारत के सुब्रह्मण्यम भारती आदि । इस प्रकार हिन्दी भारतीय स्वाभिमान और स्वातंत्र्य चेतना की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गई और राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक |
हिन्दी को सम्पूर्ण
भारत में व्यवहार की भाषा बनाने, सम्पर्क भाषा के रूप में विकसित करने एवं राष्ट्रीय
भाषा का दर्जा दिलाने में महात्मा गाँधी महत्वपूर्ण रही | गाँधी जी ने कहाः ‘हिन्दुस्तान को अगर सचमुच एक राष्ट्र बनाना है तो चाहे कोई माने या न माने
राष्ट्रभाषा हिन्दी ही बन सकती है’। कांग्रेस के लखनऊ
अधिवेशन में गाँधी जी ने हिन्दी में भाषण दिया, ‘आर्य समाज
मंडप’, ‘गुजरात शिक्षा सम्मेलन’
में गाँधी जी ने हिन्दी का प्रतिपादन किया |
स्वाधीनता के बाद हिन्दी
की घोर उपेक्षा कीगयी क्योंकि तत्कालीन सरकार का विचार था कि हिन्दी को आगे बढ़ाने
से दक्षिण भारत के लोगों पर विपरीत प्रतिक्रिया होगी | हिन्दी में वैज्ञानिक एवं
तकनीकी शब्दावली के लिए वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग बनाया गया जिसने जटिल, क्लिष्ट
एवं अप्रचलित शब्दावली तैयार की । सभी जानते हैं कि शब्द बनाए नहीं जाते, लोक के
प्रचलन एवं व्यवहार से विकसित होते हैं|
क्योंकि यह ध्यान नहीं रखा गया कि शब्दकोश
व भाषा सामान्य आदमी को समझ में आ सकें, इस कारण व्यवहार में अंग्रेजी के
शब्दों का ही प्रयोग होता रहा। भाषा लोकतंत्र में शासन और जनता के बीच संवाद होती
है। इस कारण वह आम आदमी के लिए बोधगम्य होनी चाहिए। वही शब्द सरल एवं बोधगम्य लगता
है जो हमारी जबान पर चढ़ जाता है। लोक व्यवहार से भाषा बदलती रहती है। यह भाषा की
प्रकृति है।
हिन्दी भाषा व क्षेत्रीय बोलियाँ ---
‘हिन्दी भाषा क्षेत्र'
के अन्तर्गत भारत के निम्नलिखित राज्य एवं केन्द्र शासित प्रदेश
समाहित हैं_ उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड,
बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़,
राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, चण्डीगढ़। अतः विभिन्न
हिन्दी भाषा-बोलियों को स्वतंत्र भाषा स्वीकारने से पहले यह विचार करना चाहिए कि
हिन्दी भाषी राज्यों की बोलियों अवधी, भोजपुरी, ब्रजभाषा, बुन्देली, बघेली, मालवी, निमाड़ी,
छत्तीसगढ़ी, गढ़वाली आदि भाषाओं को स्वतंत्रता की क्या आवश्यकता है
वे सदैव हिन्दी की ही शाखाएं रही हैं उनका साहित्य सदैव से ही हिन्दी साहित्य
समझा, माना जाता रहा है |
प्रत्येक भाषा क्षेत्र में भाषिक भिन्नताएँ
होती हैं। किसी ऐसी भाषा की कल्पना नहीं की जा सकती जो जिस ‘भाषा
क्षेत्र' में बोली जाती है उसमें किसी प्रकार की क्षेत्रगत
एवं वर्गगत भिन्नताएँ न हों। ‘व्यक्ति बोलियों'
के समूह को ‘बोली' तथा ‘बोलियों' के समूह को भाषा कहते हैं।
भारतीय परम्परा ने
भाषा के अलग अलग क्षेत्रों में बोले जाने वाले भाषिक रूपों को ‘देस की
भाखा अथवा ‘देसी भाषा' के नाम से पुकारा, हिन्दी भाषा क्षेत्र में हिन्दी की मुख्यतः 20 बोलियाँ अथवा उपभाषाएँ बोली जाती हैं जो निम्न वर्गों में रखी जा सकती हैं..
क. पश्चिमी हिन्दी – खड़ीबोली, ब्रजभाषा, हरियाणवी, बुन्देली, कन्नौजी
ख. पूर्वी हिन्दी – अवधी,
बघेली, छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी, मैथिली, मगही
ग दक्षिण-मध्य हिन्दी (रास्थानी)
– मारवाड़ी,
मेवाती, जयपुरी, मालवी
घ. उत्तरी हिन्दी या पहाड़ी – कुमाऊँनी,
गढ़वाली एवं हिमाचल प्रदेश के विभिन्न
क्षेत्रों की हिन्दी बोलियाँ जिन्हें केवल
‘पहाड़ी ' नाम से पुकारा जाता है।
भारत की भाषिक परम्परा के अनुसार एक
भाषा के हजारों भेद माने गए हैं मगर अंतर क्षेत्रीय सम्पर्क के लिए एक भाषा की
मान्यता रही है। हिन्दी साहित्य की संश्लिष्ट परम्परा रही है। इसी कारण
हिन्दी साहित्य के अंतर्गत रास एवं रासो साहित्य की रचनाओं का भी अध्ययन किया जाता
है।
कुछ समय से हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने का सिलसिला
मैथिली एवं छत्तीसगढ़ी से आरम्भ हुआ है| मैथिली को अलग भाषा का दर्जा दे दिया गया
है यद्यपि हिन्दी साहित्य के पाठ्यक्रम में अभी भी मैथिली कवि विद्यापति पढ़ाए
जाते हैं| जबसे मैथिली एवं छत्तीसगढ़ी को अलग भाषाओं का दर्जा मिला है तब से
भोजपुरी को भी अलग भाषा का दर्जा दिए जाने की माँग प्रबल हो गई है।
राजस्थानी भाषा जैसी
कोई स्वतंत्र भाषा नहीं है। यदि राजस्थानी
का मतलब केवल मारवाड़ी से लेंगे तो क्या मेवाड़ी, मेवाती, जयपुरी,
मालवी, हाड़ौती, शेखावाटी
आदि अन्य भाषिक रूपों के बोलने वाले अपने अपने भाषिक रूपों के लिए आवाज़ नहीं
उठायेंगे। पहाड़ी भाषाएँ भी हिन्दी के अंतर्गत ही हैं| ‘खड़ी
बोली' हिन्दी भाषा क्षेत्र का उसी प्रकार एक भेद है ;
जिस प्रकार हिन्दी भाषा के अन्य बहुत से क्षेत्रगत भेद हैं।
हिन्दी भाषा के संदर्भ में विचारणीय है कि
अवधी, बुन्देली, ब्रज, भोजपुरी, मैथिली आदि को हिन्दी भाषा की बोलियाँ
माना जाए अथवा उपभाषाएँ माना जाए। सामान्य रूप से इन्हें बोलियों के नाम से
अभिहित किया जाता है| यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि इन उपभाषाओं के बीच कोई स्पष्ट
विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती है। प्रत्येक दो उपभाषाओं के मध्य संक्रमण
क्षेत्र विद्यमान है।
हिन्दी भाषा का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। इस कारण इसकी क्षेत्रगत भिन्नताएँ भी बहुत अधिक हैं। हिन्दी
भाषा क्षेत्र के प्रत्येक भाग में व्यक्ति स्थानीय स्तर पर क्षेत्रीय भाषा
रूप में बात करता है। औपचारिक अवसरों पर तथा अन्तर-क्षेत्रीय, राष्ट्रीय
एवं सार्वदेशिक स्तरों पर भाषा के मानक रूप अथवा व्यावहारिक हिन्दी का प्रयोग
होता है। उत्तर प्रदेश हिन्दी भाषी राज्य है परन्तु खड़ी बोली,
ब्रजभाषा, कन्नौजी, अवधी,
बुन्देली आदि भाषाओं का क्षेत्र है। इसी प्रकार मध्य प्रदेश हिन्दी
भाषी राज्य है परन्तु बुन्देली, बघेली, मालवी, निमाड़ी आदि भाषायें सम्पूर्ण क्षेत्र में
बोली जाती है।
किसी भाषा के मानक रूप
के आधार पर उस भाषा की पहचान की जाती है मगर मानक भाषा, भाषा
का एक रूप होता है मानक भाषा ही भाषा नहीं होती। इसी प्रकार खड़ीबोली के
आधार पर मानक हिन्दी का विकास अवश्य हुआ है किन्तु खड़ी बोली ही हिन्दी नहीं
है। तत्वतः हिन्दी भाषा क्षेत्र के अन्तर्गत जितने भाषिक रूप बोले जाते
हैं उन सबकी समष्टि का नाम हिन्दी है।
अतः बोलियों को
भाषा का दर्जा दिलाने के लिए योजनाबद्ध चिंतकों को तटस्थ भाव से इस पर मनन करना
चाहिए | कहीं वे हिन्दी का अहित तो नहीं कर रहे | हिन्दी का अहित देश का अहित है |
वस्तुतः भारतीय भाषाओं के अस्तित्व एवं महत्व को अंग्रेजी से
खतरा है। संसार में अंग्रेजी भाषियों की जितनी संख्या है उससे अधिक संख्या
केवल हिन्दी भाषियों की है। यदि हिन्दी के उपभाषिक रूपों को हिन्दी से अलग मान
लिया जाएगा तो भारत की कोई भाषा अंग्रेजी से टक्कर नहीं ले सकेगी और धीरे धीरे
भारतीय भाषाओं के अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा।
मातृभाषियों की
संख्या की दृष्टि से विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं के आकड़ों के अनुसार
हिन्दी को तीसरा स्थान दिया गया है। हिन्दीतर भाषी राज्यों में
बहुसंख्यक द्विभाषिक समुदाय द्वितीय भाषा के रूप में अन्य किसी भाषा की अपेक्षा
हिन्दी का अधिक प्रयोग करता है। भारत में हिन्दीतर राज्यों में तथा विदेशों में
हिन्दी का प्रसार बढ़ रहा है। यह प्रसार बढ़ेगा। चीनी भाषा के बाद हिन्दी के
मातृभाषियों की संख्या सर्वाधिक है|
आज हिन्दी को उसके अपने
ही घर में तोड़ने के इस अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय षडयंत्र को विफल करने की आवश्कता
है | कुछ ताकतें हिन्दी
को उसके अपने ही घर में तोड़ने का कुचक्र एवं षड़यंत्र रच रही हैं। यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि हिन्दी का मतलब केवल खड़ी
बोली है। हिन्दी साहित्य को जिंदगी भर पढ़ाने वाले, हिन्दी
की रोजी-रोटी खाने वाले, हिन्दी की कक्षाओं में हिन्दी पढ़ने
वाले विद्यार्थियों को विद्यापति, जायसी, तुलसीदास, सूरदास जैसे हिन्दी के महान साहित्यकारों
की रचनाओं पढ़ाने वाले अध्यापक तथा इन पर शोध एवं अनुसंधान करने एवं कराने वाले
आलोचक भी न जाने किस लालच में या आँखों पर पट्टी बाँधकर इस तथ्य को स्वीकार कर रहे
हैं |
क्षेत्रीय भावनाओं को
उभारकर एवं भड़काकर ये लोग हिन्दी की संश्लिष्ट परम्परा को छिन्न-भिन्न करने का
पाप कर रहे हैं। हिन्दी के किसी आलोचक का यह वक्तव्य दृष्टव्य है---
“हिंदी समूचे देश की भाषा नहीं है
वरन वह तो अब एक प्रदेश की भाषा भी नहीं है। उत्तरप्रदेश, बिहार
जैसे राज्यों की भाषा भी हिंदी नहीं है। वहाँ की क्षेत्रीय भाषाएँ यथा अवधी,
भोजपुरी, मैथिल आदि हैं”।
इस कुचक्र को तोड़ना
ही होगा | हिन्दी दिवस-पखवाड़े के अवसर पर यह हिन्दी के प्रति सच्ची भावाव्यक्ति
होगी।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन नीरजा भनोट और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ---
हटाएंहिन्दी भाषा का क्षेत्र इतना विस्तृत है कि समय के साथ उसमें क्षेत्रीय प्रभावों का समावेश हो गया और उसके स्थानीय रूप विकसित होते गये .मुख्य बात यह है कि इन प्रादेशिक बोलियों का ,जो अब भाषा बन गई हैं , का मूल क्या है और उनकी सांस्कृतिक पहचान क्या है .
जवाब देंहटाएंजैसा कि आलेख में स्पष्ट किया गया है कि भारतीय भाषिक परम्परा में सदैव देश की एक भाषा रही है परन्तु साथ में ही भिन्न भिन्न स्थानीय बोलियों की महत्ता होती है क्योंकि इन बोलियों के सम्मिलित स्वरुप से ही मूल केन्द्रीय भाषा का जन्म होता है अर्थात इस भाषा में सभी बोलियों का प्रभाव गुम्फित होता है एवं भाषा को जानने वाला उस प्रत्येक बोली को प्रकारांतर से जान लेता है उसी प्रकार उस बोली को जानने वाला भाषा का अर्थ पहचान लेता है और एक राष्ट्रीय भाषिक/ व्यवहारिक सम्बन्ध बना रहता है | विश्व की आदि प्रथम भाषा,संस्कृत भाषा भी राष्ट्रीय/विश्व भाषा बनने से पहले तत्कालीन क्षेत्रों की पूर्व बोली जाने वाली लोकभाषाओं का संस्कारित रूप थी |
हटाएंइसी प्रकार हिन्दी भी विभिन्न बोलियों का सम्मिलित/संस्कारित रूप है अतः उनके स्थानीय रूपों को स्वतंत्र भाषा रूपी प्रश्रय देने का लाभ नहीं है अपितु यह हिन्दी के लिए हानिकारक ही रहेगा जो अंततः सभी स्थानीय बोलियों एवं भारतीय भाषाओं के लिए खतरा साबित होगा | घर में बच्चों में झगड़ा होता है तो मुखिया की छीछालेदर से अंततः परिवार विघटित होता है |
इन बोलियों का मूल... व्यक्तिगत लोक बोली , पारिवारिक, कौटुम्बिक,कबीलाई विक्सित बोलियाँ होती हैं |
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मदन जी
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