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सोमवार, 12 सितंबर 2016

बकरीद "कविता-औरों को भी जीने दो" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

बकरे की माँ कब तक, अपनी खैर मना पाएगी।
बेटों के संग-संग, उसकी भी कुर्बानी हो जाएगी।।

बकरों का बलिदान चढ़ाकर, ईद मनाई जाती है।
इन्सानों की करतूतों पर, लाज सभी को आती है।।

यश-गौरव पाना है तो, कुछ अपनी भी कुर्बानी दो।
प्राणों को परवान चढ़ा, राहे-हक़ में बलिदानी हो।

निर्दोषों की गर्दन पे, क्यों छुरा चलाया जाता है?
आह हमारी लेकर, क्यों त्यौहार मनाया जाता है??

हिंसा करना किसी धर्म में, ऩहीं सिखाया जाता है।
मोह और माया को तजना, त्याग बताया जाता है।।

तुम अमृत को पियो भले, औरों को तो जल पीने दो।
खुद भी जियो शान से, लेकिन औरों को भी जीने दो।।

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