परिवार ढूँढता हूँ और प्यार ढूँढता हूँ।
गुल-बुलबुलों का सुन्दर संसार ढूँढता हूँ।।
कल नींद में जो देखा, मैंने हसीन सपना,
जीवन में वो महकता घर-बार ढूँढता हूँ।
स्वाधीनता मिली तो, आशाएँ भी बढ़ी थीं,
मैं भ्रष्ट आचरण में, आचार ढूँढता हूँ।
हैं देशभक्त सारे, मुहताज रोटियों को,
चोरों की अंजुमन में, सरकार ढूँढता हूँ।
कानून के दरों पर, इंसाफ बिक रहा है,
काजल की कोठरी में, दरबार ढूँढता हूँ।
दुनिया है बेदिलों की, ज़रदार पल रहे हैं,
बस्ती में बुज़दिलों की, दिलदार ढूँढता हूँ।
इंसानियत तो जलकर अब खाक हो गई है,
मैं राख में दहकता अंगार ढूँढता हूँ।
बहुत सुंदर !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंवाह बहुत सशक्त रचना .....
जवाब देंहटाएंइंसानियत तो जलकर अब खाक हो गई है,
मैं राख में दहकता अंगार ढूँढता हूँ।
बढ़िया !
जवाब देंहटाएं'मैं भ्रष्ट आचरण में, आचार ढूँढता हूँ '
जवाब देंहटाएंहाँ हाँ ,क्यों नहीं - काजल की कोठरी में रोशनी नहीं जाती क्या !
sundar rachana ke liye badhayi
जवाब देंहटाएंइंसानियत तो जलकर अब खाक हो गई है,
जवाब देंहटाएंमैं राख में दहकता अंगार ढूँढता हूँ।
....दुस्साहसी राख से भी निकल आते हैं बस तलाशने और तराशने जो होता है ..
बहुत बढ़िया
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंBahut sunder rachna... Steek chitr bahut accha lga !!
जवाब देंहटाएंसुन्दर ....परिवार तो स्वतः ही मिलता है आपका बस कहाँ है...
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