ज़िन्दगी--गज़ल
राहों के रंग न जी सके, कोई ज़िन्दगी नहीं।
यूहीं चलते जाना दोस्त, कोई ज़िन्दगी नहीं।
कुछ पल तो रुक के देख ले, क्या क्या है राह में,
यूहीं राह चलते जाना कोई ज़िन्दगी नहीं।
चलने का कुछ तो अर्थ हो, कोई मुकाम हो,
चलने के लिये चलना कोई ज़िन्दगी नहीं।
कुछ खूबसूरत से पडाव, यदि राह में न हों,
उस राह चलते जाना कोई ज़िन्दगी नहीं।
ज़िन्दा दिली से ज़िन्दगी को जीना चाहिये,
तय रोते सफ़र करना कोई ज़िन्दगी नहीं।
इस दौरे भागम भाग में, सिज़दे में प्यार के,
दो पल झुके तो इससे बढकर बन्दगी नहीं।
कुछ पल ठहर हर मोड पे, खुशियां तू ढूंढ ले,
उन पल से बढ के श्याम’ कोई ज़िन्दगी नहीं॥
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (13-08-2017) को "आजादी के दीवाने और उनके व्यापारी" (चर्चा अंक 2695) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शानदार प्रस्तुति.
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