सृष्टि के आदिपुरुष - शिव
आदि-पुरुष शिव—सृष्टि, व्याप्ति व विनाश के
देवता शिव, विश्व के सभी ज्ञान, धर्म, दर्शन, समाज, विज्ञान के मूल अधिष्ठाता हैं|
शिव जी से प्रत्येक कण की
उत्पत्ति हुई है तथा उन्ही मे प्रत्येक कण की समाप्ति होती है
इन्हें महादेव, भोलेनाथ, शंकर, महेश, रुद्र, नीलकंठ के नाम से भी जाना जाता है | शिव के दर्शन और जीवन की कहानी दुनिया के हर धर्म और उनके
ग्रंथों में अलग-अलग रूपों में विद्यमान है। भगवान शिव हिन्दू संस्कृति के प्रणेता आदिदेव महादेव हैं। शिव
शब्द का अर्थ है 'कल्याण'
| शिव ही विश्व के सर्वप्रथम समन्वयक थे , मानव कल्याण हेतु उन्होंने ही
विष्णु व ब्रह्मा के साथ मिलकर देव, असुर व मानव का समन्वय करा कर एक नवीन दृष्टि
वाले विश्व-संस्कृति का निर्माण किया |
आइंस्टीन से युगों पूर्व आदियुग में ही शिव ने ही कहा था कि ‘कल्पना’ ज्ञान
से ज्यादा महत्वपूर्ण है।
हम जैसी कल्पना और विचार करते हैं वैसे
ही हो जाते हैं। शिव ने इस आधार पर ध्यान की कई विधियों का विकास किया। अतः वे योग
धर्म व दर्शन शास्त्र के मूल प्रवर्तक हुए | उन्होंने ही वेदों की रचना की |
योगशास्त्र के प्रवर्तक भगवान
शिव के ‘विज्ञान भैरव तंत्र’ और ‘शिव
संहिता’ में
उनकी संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी
शिक्षा का विस्तार हुआ है। भगवान शिव के योग को तंत्र या वामयोग कहते हैं।
इसी की एक शाखा हठयोग की है। भगवान शिव कहते हैं- ‘वामो मार्ग: परमगहनो
योगितामप्यगम्य:’ -मेरुतंत्र --अर्थात वाम मार्ग अत्यंत गहन है और योगियों के लिए भी अगम्य
है।
चित्र—योगीराज पशुपति शिव --- हरप्पा सील—पूर्व-हरप्पा सभ्यता
भगवान शिव ही पहले योगी हैं और मानव स्वभाव की सबसे गहरी समझ उन्हीं को है। उन्होंने
अपने ज्ञान के विस्तार के लिए 7 ऋषियों (सप्तर्षियों ) को चुना और उनको योग के अलग-अलग
पहलुओं का ज्ञान दिया, जो योग के 7
बुनियादी पहलू बन गए। वक्त के साथ इन 7
रूपों से सैकड़ों शाखाएं हुईं | बाद में योग में आई जटिलता को देखकर पतंजलि ने 300 ईसा
पूर्व मात्र 200 सूत्रों में पूरे योग शास्त्र को समेट दिया। योग का 8वां अंग मोक्ष है। 7
अंग तो उस मोक्ष तक पहुंचने के लिए है।
अमरनाथ के अमृत वचन : शिव
ने अपनी अर्धांगिनी पार्वती को मोक्ष हेतु अमरनाथ की गुफा में जो ज्ञान दिया, उस ज्ञान की आज
अनेकानेक शाखाएं हो चली हैं। वह ज्ञानयोग और तंत्र के मूल सूत्रों में शामिल है। ‘विज्ञान भैरव तंत्र’
एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें भगवान शिव
द्वारा पार्वती को बताए गए ध्यान सूत्रों का संकलन है।
आज से 15 से 20 हजार वर्ष पूर्व वराह काल की शुरुआत में जब देवी-देवताओं
ने धरती पर कदम रखे, तब
उस काल में धरती हिमयुग की चपेट में थी। इस दौरान भगवान शिवशंकर ने धरती के केंद्र- कैलाश को
अपना निवास स्थान बनाया | यही क्षेत्र में आज का चीन का क्षेत्र है|
विष्णु
ने समुद्र (क्षीर सागर) को और ब्रह्मा ने नदी(सरस्वती) के किनारे (सुमेरु पर्वत)
को अपना स्थान बनाया था। पुराण कहते हैं कि जहां पर शिव विराजमान हैं उस पर्वत
के ठीक नीचे भगवान विष्णु का स्थान है। शिव के आसन के ऊपर वायुमंडल के
पार क्रमश: स्वर्गलोक और फिर ब्रह्माजी का स्थान है, जबकि धरती पर
कुछ भी नहीं था। इन तीनों से सब कुछ हो गया।
चीनी
चित्र-चीनी ड्रेगन व बौने सेवक, चीनी-मानव के
साथ शिव-पार्वती---बादामी गुफाएं –कर्नाटक, भारत
वैज्ञानिकों के अनुसार तिब्बत धरती की सबसे प्राचीन भूमि है और
पुरातनकाल में इसके चारों ओर समुद्र हुआ करता था। फिर जब समुद्र हटा तो अन्य धरती
का प्रकटन हुआ और इस तरह धीरे-धीरे जीवन भी फैलता गया।
सर्वप्रथम शिव ने ही धरती पर जीवन के
प्रचार-प्रसार का प्रयास किया इसलिए उन्हें आदिदेव भी कहा जाता है। शिव को ‘आदिनाथ’ भी कहा जाता है। आदिनाथ होने के कारण उनका एक नाम आदिश भी
है। इस ‘आदिश’ शब्द से ही ‘आदेश’ शब्द बना है। नाथ साधु जब एक–दूसरे से मिलते हैं तो कहते हैं- आदेश।
शिव के अलावा ब्रह्मा और विष्णु ने
संपूर्ण धरती पर जीवन की उत्पत्ति और पालन का कार्य किया। सभी ने मिलकर धरती
को रहने लायक बनाया और यहां देवता,
दैत्य,
दानव,
गंधर्व,
यक्ष और मनुष्य की आबादी को बढ़ाया।
ऐसी
मान्यता है कि महाभारत काल तक देवता धरती पर रहते थे। महाभारत के बाद सभी
अपने-अपने धाम चले गए। कलयुग के प्रारंभ होने के बाद देवता बस विग्रह रूप में ही
रह गए अत: उनके विग्रहों की पूजा की जाती है।
पहले शिव थे रुद्र : वैदिक काल के रुद्र और उनके अन्य स्वरूप तथा जीवन दर्शन को
पुराणों में विस्तार मिला। वेद जिन्हें रुद्र
कहते हैं,
पुराण
उन्हें शंकर और महेश कहते हैं।
देवों के देव महादेव : देवताओं की दैत्यों से प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। ऐसे में जब
भी देवताओं पर घोर संकट आता था तो वे सभी देवाधिदेव महादेव के पास जाते थे। दैत्यों, राक्षसों
सहित देवताओं ने भी शिव को कई बार चुनौती दी,
लेकिन वे सभी परास्त होकर शिव के समक्ष
झुक गए इसीलिए शिव हैं देवों के देव
महादेव। वे दैत्यों, दानवों और भूतों के भी प्रिय भगवान हैं।
ब्रह्मा ने बनाए विशालकाय मानव : सन्
2007 में नेशनल जिओग्राफी की टीम ने भारत और अन्य जगह पर 20 से 22 फिट मानव के कंकाल ढूंढ निकाले हैं। भारत में मिले कंकाल को कुछ लोग भीम पुत्र
घटोत्कच और कुछ लोग बकासुर का कंकाल मानते हैं।
हिन्दू धर्म के अनुसार सतयुग में इस तरह के विशालकाय मानव हुआ करते थे।
बाद में त्रेतायुग में इनकी प्रजाति नष्ट हो गई। पुराणों के अनुसार भारत में दैत्य, दानव, राक्षस और असुरों की
जाति का अस्तित्व था, जो इतनी ही विशालकाय हुआ करती थी।
भारत में मिले इस कंकाल के साथ एक
शिलालेख भी मिला है। यह उस काल की ब्राह्मी लिपि
का शिलालेख है कि ब्रह्मा ने मनुष्यों में शांति स्थापित करने के लिए विशेष
आकार के मनुष्यों की रचना की थी। विशेष आकार के मनुष्यों की रचना एक ही बार हुई
थी। ये लोग काफी शक्तिशाली होते थे और पेड़ तक को अपनी भुजाओं से उखाड़ सकते थे।
लेकिन इन लोगों ने अपनी शक्ति का दुरुपयोग करना शुरू कर दिया और आपस में
लड़ने के बाद देवताओं को ही चुनौती देने लगे। अंत में भगवान शंकर ने सभी को मार
डाला और उसके बाद ऐसे लोगों की रचना फिर नहीं की गई।
शिव का धनुष पिनाक : शिव
ने जिस धनुष को बनाया था उसकी टंकार से ही बादल फट जाते थे और पर्वत हिलने लगते
थे। ऐसा लगता था मानो भूकंप आ गया हो। यह धनुष बहुत ही शक्तिशाली था। इसी के एक
तीर से त्रिपुरासुर की तीनों नगरियों को ध्वस्त कर दिया गया था। इस धनुष का
नाम पिनाक था। देवी और देवताओं के काल की समाप्ति के बाद इस धनुष को देवरात को
सौंप दिया गया था।
राजा दक्ष के यज्ञ में यज्ञ का भाग शिव को नहीं देने के कारण भगवान शंकर
बहुत क्रोधित हो गए थे और उन्होंने सभी देवताओं को अपने पिनाक धनुष से नष्ट करने
की ठानी। एक टंकार से धरती का वातावरण भयानक हो गया। बड़ी मुश्किल से उनका क्रोध
शांत किया गया, तब उन्होंने यह धनुष देवताओं को दे दिया।
देवताओं ने राजा जनक के पूर्वज देवरात को दे दिया। शिव-धनुष उन्हीं
की धरोहरस्वरूप राजा जनक के पास सुरक्षित था। इस धनुष को भगवान शंकर ने
स्वयं अपने हाथों से बनाया था। उनके इस विशालकाय धनुष को कोई भी उठाने की
क्षमता नहीं रखता था। लेकिन भगवान राम ने इसे उठाकर इसकी प्रत्यंचा चढ़ाई और इसे
एक झटके में तोड़ दिया।
शिव का चक्र : चक्र
को छोटा, लेकिन सबसे अचूक अस्त्र माना जाता था। सभी देवी-देवताओं के पास
अपने-अपने अलग-अलग चक्र होते थे। उन सभी के अलग-अलग नाम थे। शंकरजी के चक्र
का नाम भवरेंदु,
विष्णुजी
के चक्र का नाम कांता चक्र और देवी का चक्र मृत्यु
मंजरी के नाम से जाना जाता था। सुदर्शन चक्र का नाम भगवान
कृष्ण के नाम के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।
सुदर्शन चक्र का निर्माण भगवान शंकर ने किया था। निर्माण के बाद
भगवान शिव ने इसे श्रीविष्णु को सौंप दिया था। जरूरत पड़ने पर श्रीविष्णु ने इसे
देवी पार्वती को प्रदान कर दिया। पार्वती ने इसे परशुराम को दे दिया और भगवान
कृष्ण को यह सुदर्शन चक्र परशुराम से मिला।
त्रिशूल : इस
तरह भगवान शिव के पास कई अस्त्र-शस्त्र थे लेकिन उन्होंने अपने सभी अस्त्र-शस्त्र
देवताओं को सौंप दिए। उनके पास सिर्फ एक त्रिशूल ही होता था। यह बहुत ही अचूक और
घातक अस्त्र था। त्रिशूल 3
प्रकार के कष्टों दैनिक, दैविक, भौतिक
के विनाश का सूचक है। इसमें 3 तरह की शक्तियां हैं-
सत, रज और तम। प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रॉन। इसके अलावा पाशुपतास्त्र भी
शिव का अस्त्र है।
शिव का सेवक वासुकी : शिव
को नागवंशियों से घनिष्ठ लगाव था। नागकुल के सभी लोग शिव के क्षेत्र हिमालय में
ही रहते थे। कश्मीर का अनंतनाग इन नागवंशियों
का गढ़ था। नागकुल के सभी लोग शैव धर्म का पालन करते थे। नागों के प्रारंभ में
5 कुल थे। उनके नाम इस प्रकार हैं- शेषनाग (अनंत), वासुकी, तक्षक, पिंगला
और कर्कोटक। यह सुनिश्चित नहीं है कि ये लोग सर्प
थे या मानव या आधे सर्प और आधे मानव
हालांकि इन सभी को देवताओं की श्रेणी
में रखा गया है तो निश्चित ही ये मनुष्य नहीं होंगे। नाग वंशावलियों में ‘शेषनाग’
को नागों का प्रथम राजा माना जाता है। शेषनाग
को ही ‘अनंत’ नाम से
भी जाना जाता है। ये भगवान विष्णु के सेवक थे। इसी तरह आगे चलकर शेष
के बाद वासुकी हुए, जो
शिव के सेवक बने।
फिर तक्षक और पिंगला ने राज्य संभाला। वासुकी
का कैलाश पर्वत के पास ही राज्य था और मान्यता है कि तक्षक ने ही तक्षकशिला (तक्षशिला) बसाकर अपने नाम से ‘तक्षक’ कुल चलाया था।
उनके बाद ही कर्कोटक, ऐरावत, धृतराष्ट्र, अनत, अहि, मनिभद्र, अलापत्र, कम्बल, अंशतर, धनंजय, कालिया, सौंफू, दौद्धिया, काली, तखतू, धूमल, फाहल, काना इत्यादि नाम से नागों के वंश हुए जिनके भारत के
भिन्न-भिन्न इलाकों में इनका राज्य था।
शिव के शिष्य : शिव
तो जगत के गुरु हैं। मान्यता अनुसार सबसे पहले
उन्होंने अपना ज्ञान सप्त ऋषियों को दिया था। सप्त ऋषियों ने शिव से
ज्ञान लेकर अलग-अलग दिशाओं में फैलाया और दुनिया
के कोने-कोने में शैव धर्म, योग और ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया। इन सातों ऋषियों ने ऐसा कोई व्यक्ति नहीं छोड़ा जिसको शिव
कर्म, परंपरा आदि का ज्ञान नहीं सिखाया गया हो। आज सभी धर्मों में इसकी झलक देखने को मिल जाएगी। परशुराम और रावण भी
शिव के शिष्य थे।
शिव
ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत
की थी जिसके चलते आज भी नाथ, शैव, शाक्त आदि सभी संतों में उसी परंपरा का निर्वाह होता आ रहा है।
आदि गुरु शंकराचार्य और गुरु गोरखनाथ ने इसी परंपरा और आगे बढ़ाया।
शिव गण : भगवान
शिव की सुरक्षा और उनके आदेश को मानने के लिए उनके गण सदैव तत्पर रहते हैं। उनके
गणों में भैरव को सबसे प्रमुख माना जाता है। उसके बाद नंदी का नंबर आता और फिर वीरभ्रद्र। जहां भी शिव मंदिर स्थापित होता
है, वहां रक्षक (कोतवाल) के रूप में भैरवजी की प्रतिमा भी स्थापित
की जाती है। दूसरी ओर वीरभद्र शिव का एक बहादुर गण था जिसने शिव के आदेश पर दक्ष
प्रजापति का सर धड़ से अलग कर दिया। देव संहिता और स्कंद पुराण के अनुसार शिव ने
अपनी जटा से ‘वीरभद्र’ नामक गण उत्पन्न किया।
इस तरह उनके ये प्रमुख गण थे- भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय। इसके
अलावा, पिशाच, दैत्य और नाग-नागिन,
पशुओं को भी शिव का गण माना जाता है। ये
सभी गण धरती और ब्रह्मांड में विचरण करते रहते हैं और प्रत्येक मनुष्य, आत्मा आदि की खैर-खबर
रखते हैं।
शिव के द्वारपाल : कैलाश
पर्वत के क्षेत्र में उस काल में कोई भी देवी या देवता, दैत्य या दानव शिव के
द्वारपाल की आज्ञा के बगैर अंदर नहीं जा सकता था। ये द्वारपाल संपूर्ण दिशाओं में
तैनात थे। इन द्वारपालों के नाम हैं- नंदी, स्कंद, रिटी, वृषभ, भृंगी, गणेश, उमा-महेश्वर और
महाकाल।
कामशास्त्र की रचना ----शिव के गण और द्वारपाल नंदी
ने ही कामशास्त्र की रचना की थी। कामशास्त्र के आधार पर ही कामसूत्र
लिखा गया था।
शिव पंचायत : पंचायत
का फैसला अंतिम माना जाता है। देवताओं और दैत्यों के झगड़े आदि के बीच जब कोई
महत्वपूर्ण निर्णय लेना होता था तो शिव की पंचायत का फैसला अंतिम होता था। शिव
की पंचायत में 5 देवता
शामिल थे।
ये 5 देवता
थे:- 1.
सूर्य,
2. गणपति,
3. देवी,
4. रुद्र और 5. विष्णु ये शिव पंचायत
कहलाते हैं।
शिव पार्षद : जिस
तरह जय और विजय विष्णु के पार्षद हैं उसी तरह बाण,
रावण,
चंड,
नंदी,
भृंगी आदि शिव के पार्षद हैं। यहां
देखा गया है कि नंदी और भृंगी गण भी है,
द्वारपाल भी है और पार्षद भी।
शिव चिह्न : वनवासी से लेकर सभी साधारण व्यक्ति जिस चिह्न की पूजा कर सकें, उस पत्थर के ढेले, बटिया को शिव का चिह्न माना जाता है। इसके अलावा रुद्राक्ष
और त्रिशूल को भी शिव का चिह्न माना गया है। कुछ लोग डमरू और अर्ध चंद्र को भी शिव का चिह्न मानते हैं। हालांकि ज्यादातर
लोग शिवलिंग अर्थात शिव की ज्योति का पूजन
करते हैं।
चित्र- शिवलिंग
एवं रुद्राक्ष
शिव से जुड़ी अन्य बातें---
शिव की गुफा
व भस्मासुर: शिव ने एक असुर को
वरदान दिया था कि तू जिसके भी सिर पर हाथ रखेगा वह भस्म हो जाएगा। इस वरदान के
कारण ही उस असुर का नाम भस्मासुर हो गया। उसने सबसे पहले शिव को ही भस्म
करने की सोची।
भस्मासुर से बचने के लिए भगवान शंकर वहां से भागे, उनके पीछे भस्मासुर भी
भागने लगा। भागते-भागते शिवजी एक पहाड़ी के पास रुके और फिर उन्होंने इस पहाड़ी
में अपने त्रिशूल से एक गुफा बनाई और वे फिर उसी गुफा में छिप गए। बाद में
विष्णुजी ने आकर उनकी जान बचाई।
माना जाता है कि वह गुफा जम्मू से 150
किलोमीटर दूर त्रिकूटा की पहाड़ियों पर है। इन खूबसूरत पहाड़ियों को देखने से ही मन
शांत हो जाता है। इस गुफा में हर दिन सैकड़ों की तादाद में शिवभक्त शिव की अराधना
करते हैं।
राम - शिव का युद्ध : सभी जानते हैं कि राम के आराध्यदेव शिव हैं, तब फिर राम कैसे शिव
से युद्ध कर सकते हैं? पुराणों में विदित दृष्टांत के अनुसार यह युद्ध श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ के दौरान लड़ा गया।
यज्ञ का अश्व कई राज्यों को श्रीराम की सत्ता के अधीन किए जा रहा था। इसी
बीच यज्ञ का अश्व देवपुर पहुंचा, जहां राजा वीरमणि का राज्य था। वीरमणि ने भगवान शंकर की तपस्या
कर उनसे उनकी और उनके पूरे राज्य की रक्षा का वरदान मांगा था। महादेव के द्वारा
रक्षित होने के कारण कोई भी उनके राज्य पर आक्रमण करने का साहस नहीं करता था। जब
यज्ञ का घोड़ा उनके राज्य में पहुंचा तो राजा वीरमणि के पुत्र रुक्मांगद ने उसे
बंदी बना लिया। ऐसे में अयोध्या और देवपुर में युद्ध होना तय था।
महादेव ने अपने भक्त को मुसीबत में जानकर वीरभद्र के नेतृत्व में नंदी, भृंगी सहित अपने सारे
गणों को भेज दिया। एक और राम की सेना तो दूसरी ओर शिव की सेना थी। वीरभद्र ने एक
त्रिशूल से राम की सेना के पुष्कल का मस्तक काट दिया। उधर भृंगी आदि गणों ने भी
राम के भाई शत्रुघ्न को बंदी बना लिया।
बाद में हनुमान भी जब नंदी के शिवास्त्र से पराभूत होने लगे तब सभी ने राम
को याद किया। अपने भक्तों की पुकार सुनकर श्रीराम तत्काल ही लक्ष्मण और भरत के साथ
वहां आ गए। श्रीराम ने सबसे पहले शत्रुघ्न को मुक्त कराया और उधर लक्ष्मण ने
हनुमान को मुक्त करा दिया। फिर श्रीराम ने सारी सेना के साथ शिव गणों पर धावा बोल
दिया।
जब नंदी और अन्य शिव के गण परास्त होने लगे तब महादेव ने देखा कि उनकी सेना
बड़े कष्ट में है तो वे स्वयं युद्ध क्षेत्र में प्रकट हुए, तब श्रीराम और
शिव में युद्ध छिड़ गया।
भयंकर युद्ध के बाद अंत में श्रीराम ने पाशुपतास्त्र निकालकर
कर शिव से कहा, ‘हे प्रभु, आपने ही मुझे ये वरदान दिया है कि आपके द्वारा प्रदत्त इस
अस्त्र से त्रिलोक में कोई पराजित हुए बिना नहीं रह सकता इसलिए हे महादेव, आपकी ही आज्ञा और
इच्छा से मैं इसका प्रयोग आप पर ही करता हूं’,
ये कहते हुए श्रीराम ने वो महान दिव्यास्त्र
भगवान शिव पर चला दिया।
वो अस्त्र सीधा महादेव के ह्वदयस्थल
में समा गया और भगवान रुद्र इससे संतुष्ट हो गए। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक
श्रीराम से कहा कि आपने युद्ध में मुझे संतुष्ट किया है इसलिए जो इच्छा हो वर मांग
लें। इस पर श्रीराम ने कहा कि ‘हे भगवन्, यहां मेरे भाई भरत के पुत्र पुष्कल सहित असंख्य योद्धा वीरगति
को प्राप्त हो गए है, कृपया कर उन्हें जीवनदान दीजिए।’
महादेव ने कहा कि ‘तथास्तु।’ इसके बाद शिव की
आज्ञा से राजा वीरमणि ने यज्ञ का अश्व श्रीराम को लौटा दिया और श्रीराम भी वीरमणि
को उनका राज्य सौंपकर शत्रुघ्न के साथ अयोध्या की ओर चल दिए।
ब्रह्मा,
विष्णु और शिव का जन्म रहस्य ---तीनों के जन्म की कथाएं वेद और पुराणों में अलग-अलग हैं, यहां यह बात ध्यान
रखने की है कि ईश्वर अजन्मा है।
अलग-अलग पुराणों में भगवान शिव और विष्णु के जन्म के विषय में कई कथाएं
प्रचलित हैं। शिव पुराण के अनुसार भगवान शिव को
स्वयंभू माना गया है जबकि विष्णु पुराण के अनुसार भगवान विष्णु स्वयंभू हैं।
शिव पुराण के अनुसार एक बार जब भगवान शिव अपने टखने पर अमृत मल रहे थे
तब उससे भगवान विष्णु पैदा हुए जबकि विष्णु पुराण के अनुसार ब्रह्मा भगवान
विष्णु की नाभि कमल से पैदा हुए जबकि शिव भगवान विष्णु के माथे के तेज से उत्पन्न
हुए बताए गए हैं। विष्णु पुराण के अनुसार माथे के तेज से उत्पन्न होने के कारण
ही शिव हमेशा योगमुद्रा में रहते हैं।
शिव के जन्म की कहानी हर कोई जानना चाहता है। श्रीमद्भागवत
के अनुसार एक बार जब भगवान विष्णु और ब्रह्मा अहंकार से अभिभूत हो स्वयं को
श्रेष्ठ बताते हुए लड़ रहे थे, तब एक जलते हुए खंभे (मूल
ज्योतिर्लिंग ) से जिसका कोई भी ओर-छोर ब्रह्मा या विष्णु नहीं समझ पाए, भगवान शिव प्रकट हुए।
यदि किसी का बचपन है तो निश्चत ही जन्म भी होगा और अंत भी। विष्णु पुराण
में शिव के बाल रूप का वर्णन मिलता है। इसके अनुसार ब्रह्मा को एक बच्चे की
जरूरत थी। उन्होंने इसके लिए तपस्या की। तब अचानक उनकी गोद में रोते हुए
बालक शिव प्रकट हुए। ब्रह्मा ने बच्चे से रोने का कारण पूछा तो उसने बड़ी
मासूमियत से जवाब दिया कि उसका नाम
‘ब्रह्मा’ नहीं है इसलिए वह रो रहा है।
तब ब्रह्मा ने शिव का नाम ‘रुद्र’ रखा जिसका अर्थ होता है ‘रोने वाला’। शिव तब भी चुप नहीं हुए इसलिए ब्रह्मा ने उन्हें दूसरा नाम
दिया, पर शिव को नाम पसंद नहीं आया और वे
फिर भी चुप नहीं हुए। इस तरह शिव को चुप
कराने के लिए ब्रह्मा ने 8
नाम दिए और शिव 8 नामों
(रुद्र, शर्व, भाव, उग्र, भीम, पशुपति,
ईशान और महादेव) से जाने गए। शिव पुराण के अनुसार ये नाम पृथ्वी पर लिखे गए थे
भगवान शिव की थीं चार पत्नियां----हिन्दू
पुराणों में भगवान शिव के जीवन का जो चित्रण मिलता है वह बहुत ही विरोधाभासिक और
न समझ में आने वाला लगता है|
१. दक्ष पुत्री सती ---माता सती के
ही हैं सारे शक्तिपीठ --भगवान ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से एक प्रजापति दक्ष
कश्मीर घाटी के हिमालय क्षेत्र में रहते थे। प्रजापति दक्ष की दो पत्नियां थी-
प्रसूति और वीरणी। प्रसूति से दक्ष की चौबीस
कन्याएं जन्मी और वीरणी से साठ कन्याएं।
इस तरह दक्ष की 84 पुत्रियां और हजारों पुत्र थे। दक्ष की सभी पुत्रियों को किस न
किसी... भारत में पूजा जाता है और सभी को माता दुर्गा से जोड़ कर देखा जाता
है। राजा
दक्ष की पुत्री 'सती' की माता का नाम था प्रसूति। यह प्रसूति स्वायंभुव
मनु की तीसरी पुत्री थी। सती ने अपने पिता की इच्छा के विरूद्ध कैलाश निवासी
शंकर से प्रेम विवाह किया था, जो सृष्टि का प्रथम प्रेम विवाह
था |
चित्र- दक्ष-यज्ञ में भष्म सती का शव उठाये हुए शिव... चित्र- शिव परिवार-पार्वती, कार्तिकेय व गणेश
सती के आत्मदाह के उपरांत विश्व शक्तिहीन हो गया। उस भयावह स्थिति से
त्रस्त महात्माओं ने आदिशक्ति देवी की आराधना की। तारक नामक दैत्य सबको परास्त कर
त्रैलोक्य पर एकाधिकार जमा चुका था।
२. गणेश और कार्तिकेय की माता पार्वती : दक्ष के बाद सती ने हिमालय के राजा हिमवान और
रानी मैनावती के यहां जन्म लिया। मैनावती और हिमवान को कोई कन्या नहीं थी तो
उन्होंने... तो उन्होंने आदिशक्ति की प्रार्थना की। आदिशक्ति माता सती ने उन्हें
उनके यहां कन्या के रूप में जन्म लेने का वरदान दिया। दोनों ने उस कन्या का नाम
रखा पार्वती। पार्वती अर्थात पर्वतों की रानी। इसी को गिरिजा, शैलपुत्री और पहाड़ों वाली रानी कहा जाता है। माता
पार्वती ने ही शुम्भ, निशुम्भ, महिषासुर
आदि असुरों का वध किया था और इनकों की नवदुर्गा के रूप में प्रतिष्ठित किया गया
है। हालांकि आदि... आदि दुर्गा माता को परब्रह्म सदाशिव की अर्धांगिनी के रूप में
चित्रित किया गया है जो ब्रह्मा, विष्णु और महेश के
माता-पिता हैं। उक्त दुर्गा के रूप
में ही माता पार्वती को भी चित्रित किया
गया है।
३.माता उमा - पार्वती को ही उमा कहा जाता था या कि उमा नाम से एक अलग देवी थी यह
स्पष्ट नहीं है । देवी उमा को भूमि की देवी भी
कहा जाता है। मां उमा देवी दयालु और सरल ह्दय की देवी हैं। आराधना करने पर वह
जल्द उमा के साथ महेश्वर शब्द का उपयोग किया
जाता है। हो सकता है कि जब शंकर जी महेश रूप में
आए तब पार्वती भी उमा हो गई।
कश्मीर में एक स्थान है उमा नगरी। यह नगरी अनंतनाग क्षेत्र
के उत्तर में हिमालय में बसी है। यहां विराजमान है उमा देवी। भक्तों का ऐसा
विश्वास है कि देवी स्वयं यहां एक नदी के रूप में रहती हैं जो ओंकार (अर्थात
संपूर्ण विश्व) का आकार बनाती है जिसके साथ पांच झरने भी हैं। माना जाता है कि उमा देवी उत्तराखंड की थीं।
उत्तराखंड में चमोली जिले के कर्णप्रयाग नामक स्थान पर उनका एक पौराणिक मंदिर भी
बना हुआ है। स्थानीय लोगों की मान्यता अनुसार डिमरी जाति के लोगों को उमा देवी के
मायके वाला माना जाता है, जबकि कापरिपट्टी के शिव
मंदिर को उनका ससुराल समझा जाता है।
४.मां महाकाली - भगवान शिव की चौथी पत्नी मां काली को माना जाता है। काली ने भयानक
दानवों का संहार किया था। वर्षों पहले एक ऐसा भी दानव हुआ जिसके रक्त की एक बूंद
अगर धरती पर गिर जाए तो हजारों रक्तबीज पैदा होजाते
थे | रक्तबीज के संहार के उपरांत
अनियंत्रित क्रोध में माँ काली को शिव पर पैर रखने का पश्चाताप हुआ और इस
महापाप के कारण ही उन्हें वर्षों तक हिमालय में प्रायश्चित के लिए भटकना पड़ा था। व्यास
नदी के किनारे जब माता काली ने भगवान शिव का ध्यान किया तो आखिरकार भगवान शंकर ने
उन्हें दर्शन दिए और इस तरह से मां काली को भूलवश हुए अपने महापाप से मुक्ति मिली।
चित्र—माँ काली-बालक रूप में शिव को पयपान...
चित्र—माँ काली-बालक रूप में शिव को पयपान...
यह भी कहाजाता है की शिव द्वारा बालक का रूप रखकर रोते हुए सम्मुख आने
पर द्रवित होकर काली अपना भयावह रूप त्याग, सामान्य मातृ रूप में आगई थीं |
देवभूमि हिमाचल के कांगड़ा परागपुर में यह स्थान अब कालीनाथ कालेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है।
भगवान शिव की एक पुत्री भी थीं-- भगवान शिव के दो
पुत्र गणेश और कार्तिकेय के बारे में तो सभी जानते हैं, इसके
अलावा कई जगहों पर भगवान शिव के 6 पुत्र होने के
बारे में भी वर्णन मिलता है। लेकिन भगवान शिव और माता
पार्वती के एक पुत्री भी थी। इसका वर्णन बहुत कम जगहों पर किया गया है इनका नाम था 'अशोक सुंदरी' था | इनका विवाह राजा नहुष से हुआ था।
माता
पार्वती के अकेलेपन को दूर करने हेतु कल्पवृक्ष नामक पेड़ के द्वारा ही अशोक
सुंदरी की रचना हुई थी। पद्म पुराण के अनुसार एक बार माता पार्वती
विश्व में सबसे सुंदर उद्यान में जाने के लिए भगवान शिव से कहा। तब भगवान शिव
पार्वती को नंदनवन ले गए, वहां माता को कल्पवृक्ष से लगाव हो गया और उन्होंने
उस वृक्ष को लेकर कैलाश आ गईं।
पार्वती
ने अपने अकेलेपन को दूर करने हेतु उस वृक्ष से यह वर मांगा कि उन्हें एक कन्या
प्राप्त हो, तब कल्पवृक्ष द्वारा अशोक सुंदरी का जन्म हुआ। माता पार्वती ने उस कन्या
को वरदान दिया कि उसका विवाह देवराज इंद्र जैसे शक्तिशाली युवक से होगा।
एक
बार अशोक सुंदरी अपने दासियों के साथ नंदनवन में विचरण कर रहीं थीं तभी वहां हुंड
नामक राक्षस का आया। जो अशोक सुंदरी के सुंदरता से मोहित हो गया और उसने अशोक
सुंदरी के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। लेकिन अशोक सुंदरी ने अपने भविष्य के बारे
में बताते हुए विवाह के बारे में भी बताया कि उनका विवाह नहुष से ही होगा। यह
सुनकर राक्षस ने कहा कि वह नहुष को मार डालेगा। ऐसा सुनकर अशोक सुंदरी ने राक्षस
को शाप दिया कि उसकी मृत्यु नहुष के हाथों ही होगी। वह घबरा गया जिसके चलते उसने
नहुष का अपहरण कर लिया।
उस समय
नहुष काफी छोटे थे। नहुष को राक्षस हुंड की एक दासी ने बचाया। इस तरह महर्षि
वशिष्ठ के आश्रम में नहुष बड़े हुए और उन्होंने हुंड का वध किया। इसके बाद नहुष
तथा अशोक सुंदरी का विवाह हुआ तथा वह ययाति जैसे वीर पुत्र तथा सौ रूपवती कन्याओं
की माता बनीं। इंद्र के अभाव में नहुष को ही आस्थायी रूप से इंद्र बनाया गया, उसके
घमंड के कारण उसे श्राप मिला तथा इसीसे उसका पतन हुआ। बादमें इंद्र नें
अपनी गद्दी पुन: ग्रहण की।
चित्र-शिवपुत्रीअशोक सुन्दरी व कल्पवृक्ष
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (02-08-2017) को गये भगवान छुट्टी पर, कहाँ घंटा बजाते हो; चर्चामंच 2685 पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'