क्या होली की प्रासंगिकता समाप्त हो चुकी है-होली के अवसर पर एक विचार ...डा श्याम गुप्त
पहले होली से हफ़्तों पहले गलियों
बाज़ारों में निकलना कठिन हुआ करता था होली के रंगों के कारण | आज सभी होली के दिन
आराम से आठ बजे सोकर उठते हैं, चाय-नाश्ता करके, दुकानों आदि पर बिक्री-धंधा करके,
दस बजे सोचते हैं की चलो होली का दिन है खेल ही लिया जाय | दो चार दोस्तों –पड़ोसियों
को रस्मी गुलाल १२ बजे तक सब फुस्स | वह उल्लास, उमंग कहाँ है, सब कुछ मशीन की
भांति |
घरों, बाज़ारों में रेडियो, टीवी पर हर
वर्ष वही रस्मी घिसे-पिटे...अमिताभ के भौंडी आवाज़ में ..’रंग बरसे ...’ या ‘अंग से
अंग मिलाना..’ जैसे भौंडे गीत बजाये जाने
लगते हैं जैसे कोइ रस्म निभाई जा रही हो | कुछ पार्कों आदि में चंदे की
राशि जुटाकर ठंडा आदि पीकर रस्म मना ली जाती है| ब्रज-क्षेत्र में भी सभी कुछ उसी रस्म
अदायगी की भाँति किया जा रहा है | फिर मेल मिलाप के इस कथित व प्रचारित पर्व पर
प्रत्येक जाति, धर्म, संस्था, पार्टी द्वारा मनाया जाने वाला अपना अपना ‘होली
मिलन का खेल’ |
क्या वास्तव में आज होली के पर्व
की कोइ प्रासंगिकता है या आवश्यकता (या किसी भी त्यौहार की )? शायद नहीं |
वस्तुतः मशीनीकरण के इस कल-युग में, अर्थ-युग में मुझे नहीं लगता कि इस पर्व की
कोइ भी प्रासंगिकता रह गयी है | होली मनाने के मूल कारण ये थे –
१.पौराणिक प्रसंग, विष्णु
भक्त प्रहलाद की भक्ति की स्मृति में |
२, बुराई पर अच्छाई की विजय,
बुराई का भष्म होना |
3.सामूहिक पर्व, ‘उत्सव प्रियः मानवाः’, खरीदारी-मेल मिलाप का
अवसर, मेले-ठेले में..|
४.कृष्ण द्वारा होली उत्सव
जो उस युग में महिलाओं के अधिकारों में कटौती के विरुद्ध संघर्ष था |
५. पर्यावरण व कृषि उत्सव
आज के आधुनिक युग में जहां नेता-भक्ति
या फिर देश-भक्ति महत्वपूर्ण है कैसी विष्णु भक्ति, कैसा उसका स्मरण | जाने कब से
भ्रष्टाचार, स्त्री पर अत्याचार आदि बुराइयों को रोकने की बातें हो रही हैं कौन
कान देरहा है, कौन भष्म करना चाह रहा है बुराइयों को | जहां तक सामूहिकता ,
सामाजिकता, उत्सव, मेल-मिलाप आदि की बात है तो जहां रोज रोज ही सन्डे-फनडे, मौल
में बिक्री मेले, सेल, खरीदारी, किटी पार्टी, आफिस पार्टियां. ट्रीट पार्टियां चलती
रहती हैं, किसे आवश्यकता है होली मेल मिलाप की |
कृष्ण राधा का होली उत्सव उस काल में
स्त्रियों के अधिकारों के विरुद्ध संघर्ष था | आज नारी सशक्तीकरण के युग में नारी
स्वतंत्र होचुकी है, हर कार्य में पुरुषों को मात देने की योज़ना में है, इतनी खुल
चुकी है की प्रतिदिन ही कम वस्त्र पहनने एवं स्वयं ही अपने वस्त्र उतारने में
लिप्त है, तो महिलाओं के खुलेपन के लिए होली की क्या आवश्यकता है |
अब तो प्रतिदिन ही कूड़ा करकट का
डिस्पोज़ल होता है अतः होलिका पर जो काठ-कबाड़ जलाया जाता था पर्यावरण सुधार हेतु
उसका भी कोइ हेतु नहीं रह गया है | पेड़ों की डालें काट कर होली जलाने का औचित्य ही
क्या है | अब तो खेतों में सदा ही कोइ न कोइ फसल होती रहती है, फसल कटाने का एक
मौसम कहाँ होता है, फसल ट्रेक्टर व मशीन से कट कर तुरंत घर में रखली जाती है और
किसान सिनेमा देखने व फ़िल्मी गीत सुनाने, टीवी देखने में समय बिताते हैं, गीत
गाने, नाचने व होली मनाने का अवसर व फुर्सत ही कहाँ है |
निश्चय ही आज होली की प्रासंगिकता
समाप्त होचुकी है | बस आर्थिक कारणों से प्रचार व रस्म-अदायगी रह गयी है | यह सभी
पर्वों के लिए कहा जा सकता है |
हो ली की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (08-03-2015) को "होली हो ली" { चर्चा अंक-1911 } पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'