सदियों से पुष्प बहे, दीप-दान होते रहे ,
दूषित हुई न कभी नदियों की धारा है |
होते रहे हैं नहान, मुनियों के ज्ञान-ध्यान,
मानव का सदा रही, नदिया सहारा है |
बहते रहे शव भी, मेले- कुंभ होते रहे ,
ग्राम नगर बस्ती के जीवन की धारा है |
श्रद्धा, भक्ति, आस्था के कृत्यों से प्रदूषित गंगा .
छद्म-ज्ञानी, अज्ञानी, अधर्मियों का नारा है | |
नदीवासी जलचर, मीन कच्छप मकर ,
नदिया सफाई हित, प्रकृति व्यापार है |
पुष्प घृत दीप बाती ,शव अस्थि चिता-भस्म,
जल शुद्धि-कारक,जीव-जन्तु आहार है |
मानव का मल-मूत्र, कारखाना-अपशिष्ट,
बने जल-जीवों के विनाश का आधार है |
यही सब कारण हैं, न कि आस्था के वे दीप,
आस्था बिना हुई प्रदूषित गंगधार है |
फैला अज्ञान तमस, लुप्त है विवेक, ज्ञान ,
श्रृद्धा आस्था से किया मानव ने किनारा है |
अपने ही दुष्कृत्यों का, मानव को नहीं भान
अपने कुकृत्यों से ही मानव स्वयं हारा है |
औद्योगिक गन्दगी, हानिकारक रसायन,
नदियों में बहाए जाते, किसी ने विचारा है |
नगरों के मल-मूत्र, बहाए जाते गंगा में,
इनसे प्रदूषित हुई, गंगा की धारा है ||
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शुक्रवार (13-03-2015) को "नीड़ का निर्माण फिर-फिर..." (चर्चा अंक - 1916) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर रचना ....
जवाब देंहटाएंकृपया मेरे चिट्ठे पर भी पधारे और अपने विचार व्यक्त करें.
http://hindikavitamanch.blogspot.in/
http://kahaniyadilse.blogspot.in/
धन्यवाद ऋषभ एवं शास्त्रीजी
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