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मंगलवार, 9 दिसंबर 2014

विस्मित हूँ !



विस्मित हूँ देख-देखकर प्रकृति की नज़ारे
चमकता सूर्य ,चन्द्र और भोर के उज्ज्वल तारे |
दिनभर चलकर दिनकर,श्रान्त पहुँचता अस्ताचल,
अलसाकर सो जाता , ओड़कर निशा का आँचल |
चाँद तब आ जाता नभ में ,फैलाने धवल चाँदनी,
तमस भाग जाता तब , हँसने लगती है रजनी |



निस्तब्ध निशा में चुमके से, आ-जाती तारों की बरात
झिलमिलाते,टिमटिमाते, आँखों-आँखों में करते हैं बात |
तुनक मिज़ाज़ी मौसम है, कहते हैं- मौसम बड़ी बे-वफ़ा,
उनकी शामत आ-जाती है ,जिस पर हो जाता है खफ़ा |


सूरज हो या चाँद हो, या हो टिमटिमाते सितारे,
अँधेरी कोठरी में बन्द कर देता है, लगा देता है ताले |
रिमझिम कभी बरसता है ,कभी बरसता है गर्जन से
बरसकर थम जाता है ,शांत हो जाता है आहिस्ते से |
कितने अजीब ,कितने मोहक ,लगते है सारे प्यारे,
विस्मित हूँ, देख-देखकर प्रकृति की नज़ारे |




सिंदूरी सूरज के स्वागत में व्याकुल हैं ये फूल,
 रंग-बिरंगी  वर्दी पहनकर, मानो खड़े हैं सब फूल|
नीला आसमान प्रतिबिंबित, जहाँ है बरफ की कतारें,
विस्मित हूँ देख देखकर प्रकृति की नज़ारे |

फागुन में होली खेलते हैं लोग ,रंगीन होता है हर चेहरा,
प्रकृति खेलती होली , रंगीन होता है पर्वत का चेहरा |
प्रकृति मनाती होली दिवाली, मिलकर सब चाँद सितारे,
विस्मित हूँ देख-देखकर प्रकृति की नज़ारे |

कालीपद "प्रसाद"
(c) 
सभी चित्र गूगल से साभार

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