डा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’—हिन्दी साहित्य की विकास यात्रा के अग्रगण्य पथदीप--- एक पुनरावलोकन
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काँधे पर झोला डाले, आँखों पर काला चश्मा, मुखमंडल पर
विद्वतापूर्ण ओजस्वी एवं तेजपूर्ण आभा के साथ सरल भोलापन लिए हुए, सबकी
सुनते हुए, सबसे सहज व कपटहीन भाव से मिलते हुए, अगणित युवा, प्रौढ़ व
वरिष्ठ कवि, कवयित्रियों, साहित्यकारों, विद्वानों द्वारा गुरूजी, सत्यजी,
डा सत्य संबोधन के साथ अभिवादन को सहेज़ते हुए काव्य व मंच संचालन में
व्यस्त-अभ्यस्त व्यक्तित्व, जो काव्य गोष्ठियों व मंचों से प्रत्येक
उपस्थित कवि को उनके नाम से पहचान कर बुलाते हैं, कविता पाठ किये बिना जाने
नहीं देते, हर युवा कवि के प्रेरणास्रोत, वरिष्ठ कवियों के सहयोगी साथी
सहायक प्रेरक कविवर डा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’ लखनऊ के साहित्यिक क्षेत्र में
एवं हिन्दी साहित्याकाश में एक अप्रतिम व निराले व्यक्तित्व हैं|
स्वतन्त्रता पश्चात एवं परवर्ती निराला युग में जब कविता का क्षेत्र असमंजस, भ्रम, कुंठा, हताशा, वर्ग संघर्ष, पौर्वात्य व पाश्चात्य समीकरणों के मिश्रत्व के विभ्रम से गुजर रहा था तथा अधिकाँश साहित्यकार समाज को दिशा देने की अपेक्षा समाज से दिशा ले रहे थे तथा उसी प्रकार का साहित्य-सृजन कर रहे थे जो तात्कालिक लाभ व लोभ की पूर्ति तो करता था परन्तु दीर्घकालीन श्रेष्ठता संवर्धक एवं अत्यावश्यक आचरण संवर्धन की दिशा-प्रदायक नहीं था |
ऐसे समय में हिन्दी साहित्याकाश में एक नये युगप्रवर्तक का उद्भव हुआ जो अतुकांत कविता की एक नवीन विधा ‘अगीत’ के सूत्रपात के साथ ही एक नए रूप में हिन्दी भाषा एवं साहित्य के अग्रगण्य बनकर उभरे | वे डा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’ के नाम से हिन्दी जगत में जाने जाते हैं|
इस संक्रांति-काल में सभी प्रकार की कविता व साहित्य की सभी विधाओं में समर्थ व सक्षम होते हुए भी डा रंगनाथ मिश्र ने काव्य को गति व दिशा प्रदान करने हेतु सरलता, संक्षिप्तता की अधुना आवश्यकता के साथ सर्वग्राहिता, जन-जन सम्प्रेषणीयता सरल भाषा के साथ काव्य में सामजिक सरोकारों की भारतीय भाव-भूमि प्रदायक काव्य हेतु “अगीत कविता “ का उद्घोष किया | इन शब्दों के साथ ....
“ मैं भटकते हुओं का सहारा बनूँ,
डूबते साथियों का किनारा बनूँ |
दे सकूं मैं प्रगति साधना से भरी,
जागरण-ज्योति का ही इशारा बनूँ |”
तथा “
हिन्दी हिन्दवासियों की
चेतना का मूल मन्त्र,
सब मिल देवनागरी
को अपनाइए | “
काव्य हो या संस्था, समाज, मानवता सभी को प्रगतिवादी दृष्टिकोणयुत एवं अग्रगामी होना चाहिए| गतिमयता ही जीवन है | परिवर्तन प्रकृति का नियम है, प्रवाह है, निरंतरता है | अगीत कविता उसी प्रवाह, निरंतरता, नवीनता की ललक लिए हुए अवतरित हुई डा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’ नाम के उत्साही व समर्थ कवि साहित्यकार के मनो-गगनांगन से | आज एक वटवृक्ष की भांति विविध छंदों, स्वरूपों,काव्यों, महाकाव्यों,आलेखों, शोधों, शोधग्रंथों तथा अगणित कवियों, साहित्यकारों, साहित्याचार्यों रूपी शाखाओं के साथ स्थापित है, हिन्दी साहित्य के आकाश में |
“चलना ही नियति हमारी है ...” के मंत्रदाता डा सत्यजी यहीं नहीं रुके अपितु हिन्दी साहित्य की प्रत्येक विधा को गति प्रदान करने के अंदाज़ में आपने १९७५ ई. में ‘संतुलित कहानी’ एवं १९९५ ई. में ‘संघात्मक समीक्षा पद्धति ‘ को जन्म दिया | इसके साथ ही ‘अगीतायन’ पत्रिका का सम्पादन , अपने स्वगृह का नाम ‘अगीतायन’ रखना एवं माह के प्रत्येक अंतिम रविवार को अपने आवास पर काव्य-गोष्ठी आयोजित करना उन्होंने अपनी नियति ही बनाली |
१९६६ से आजतक इस गोष्ठी की क्रमिकता भंग नहीं हुई, किसी भी स्थिति में | इस गोष्ठी में कोइ भी सम्मिलित होसकता है बिना किसी आमंत्रण के | उनकी इस सर्व-समर्थता एवं सबको साथ लेकर चलने की क्षमता के कारण ही आज लखनऊ, प्रदेश व देश में अगीत साहित्य परिषद् के अगणित सदस्य, कवि, शिष्य-शिष्याओं का समूह अगीत साहित्य के साथ-साथ साहित्य की प्रत्येक विधा गदय-पद्य, गीत-अगीत में रचनारत हैं| उनके लिए कोइ भी विधा अछूत नहीं है | वे अगीत के संस्थापक डा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’ की ही भांति गीत, छंद, कहानी, उपन्यास, समीक्षा ग़ज़ल, हाइकू आदि सभी में पारंगत हैं|
ऐसे युगप्रवर्तक, हिन्दी साहित्य के प्रकाश-स्तम्भ डा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’ जो अपने साहित्यिक कार्यकाल में अब तक लगभग ५ हज़ार काव्य-गोष्ठियों, मंचों, सम्मेलनों से सम्बंधित रहे हैं | उनके व उनकी संस्था अखिल भारतीय अगीत परिषद् के तत्वावधान में, संयोजन में जाने कितनी संस्थाएं समारोह आयोजन कराने को तत्पर रहती हैं | यह एक मानक है रिकार्ड है | आज भी ७४ वर्ष की आयु में वे युवा जोश के साथ साहित्य को नयी-नयी ऊचाइयों पर लेजाने हेतु क्रियाशील हैं| वे निश्चय ही हिन्दी साहित्य की विकास यात्रा के अग्रगण्य साहित्यकार हैं| आशा है वे एक लम्बे समय तक हिन्दी साहित्य के पथदीप बने रहेंगे |
---डा श्याम गुप्त
सुश्यानिदी, के-३४८ , , एम् बी बी एस, एम् एस (सर्जन)
आशियाना लखनऊ २२६०१२. . साहित्याचार्य, साहित्यविभूषण
मो.-९४१५१५६४६४ .
स्वतन्त्रता पश्चात एवं परवर्ती निराला युग में जब कविता का क्षेत्र असमंजस, भ्रम, कुंठा, हताशा, वर्ग संघर्ष, पौर्वात्य व पाश्चात्य समीकरणों के मिश्रत्व के विभ्रम से गुजर रहा था तथा अधिकाँश साहित्यकार समाज को दिशा देने की अपेक्षा समाज से दिशा ले रहे थे तथा उसी प्रकार का साहित्य-सृजन कर रहे थे जो तात्कालिक लाभ व लोभ की पूर्ति तो करता था परन्तु दीर्घकालीन श्रेष्ठता संवर्धक एवं अत्यावश्यक आचरण संवर्धन की दिशा-प्रदायक नहीं था |
ऐसे समय में हिन्दी साहित्याकाश में एक नये युगप्रवर्तक का उद्भव हुआ जो अतुकांत कविता की एक नवीन विधा ‘अगीत’ के सूत्रपात के साथ ही एक नए रूप में हिन्दी भाषा एवं साहित्य के अग्रगण्य बनकर उभरे | वे डा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’ के नाम से हिन्दी जगत में जाने जाते हैं|
इस संक्रांति-काल में सभी प्रकार की कविता व साहित्य की सभी विधाओं में समर्थ व सक्षम होते हुए भी डा रंगनाथ मिश्र ने काव्य को गति व दिशा प्रदान करने हेतु सरलता, संक्षिप्तता की अधुना आवश्यकता के साथ सर्वग्राहिता, जन-जन सम्प्रेषणीयता सरल भाषा के साथ काव्य में सामजिक सरोकारों की भारतीय भाव-भूमि प्रदायक काव्य हेतु “अगीत कविता “ का उद्घोष किया | इन शब्दों के साथ ....
“ मैं भटकते हुओं का सहारा बनूँ,
डूबते साथियों का किनारा बनूँ |
दे सकूं मैं प्रगति साधना से भरी,
जागरण-ज्योति का ही इशारा बनूँ |”
तथा “
हिन्दी हिन्दवासियों की
चेतना का मूल मन्त्र,
सब मिल देवनागरी
को अपनाइए | “
काव्य हो या संस्था, समाज, मानवता सभी को प्रगतिवादी दृष्टिकोणयुत एवं अग्रगामी होना चाहिए| गतिमयता ही जीवन है | परिवर्तन प्रकृति का नियम है, प्रवाह है, निरंतरता है | अगीत कविता उसी प्रवाह, निरंतरता, नवीनता की ललक लिए हुए अवतरित हुई डा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’ नाम के उत्साही व समर्थ कवि साहित्यकार के मनो-गगनांगन से | आज एक वटवृक्ष की भांति विविध छंदों, स्वरूपों,काव्यों, महाकाव्यों,आलेखों, शोधों, शोधग्रंथों तथा अगणित कवियों, साहित्यकारों, साहित्याचार्यों रूपी शाखाओं के साथ स्थापित है, हिन्दी साहित्य के आकाश में |
“चलना ही नियति हमारी है ...” के मंत्रदाता डा सत्यजी यहीं नहीं रुके अपितु हिन्दी साहित्य की प्रत्येक विधा को गति प्रदान करने के अंदाज़ में आपने १९७५ ई. में ‘संतुलित कहानी’ एवं १९९५ ई. में ‘संघात्मक समीक्षा पद्धति ‘ को जन्म दिया | इसके साथ ही ‘अगीतायन’ पत्रिका का सम्पादन , अपने स्वगृह का नाम ‘अगीतायन’ रखना एवं माह के प्रत्येक अंतिम रविवार को अपने आवास पर काव्य-गोष्ठी आयोजित करना उन्होंने अपनी नियति ही बनाली |
१९६६ से आजतक इस गोष्ठी की क्रमिकता भंग नहीं हुई, किसी भी स्थिति में | इस गोष्ठी में कोइ भी सम्मिलित होसकता है बिना किसी आमंत्रण के | उनकी इस सर्व-समर्थता एवं सबको साथ लेकर चलने की क्षमता के कारण ही आज लखनऊ, प्रदेश व देश में अगीत साहित्य परिषद् के अगणित सदस्य, कवि, शिष्य-शिष्याओं का समूह अगीत साहित्य के साथ-साथ साहित्य की प्रत्येक विधा गदय-पद्य, गीत-अगीत में रचनारत हैं| उनके लिए कोइ भी विधा अछूत नहीं है | वे अगीत के संस्थापक डा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’ की ही भांति गीत, छंद, कहानी, उपन्यास, समीक्षा ग़ज़ल, हाइकू आदि सभी में पारंगत हैं|
ऐसे युगप्रवर्तक, हिन्दी साहित्य के प्रकाश-स्तम्भ डा रंगनाथ मिश्र ‘सत्य’ जो अपने साहित्यिक कार्यकाल में अब तक लगभग ५ हज़ार काव्य-गोष्ठियों, मंचों, सम्मेलनों से सम्बंधित रहे हैं | उनके व उनकी संस्था अखिल भारतीय अगीत परिषद् के तत्वावधान में, संयोजन में जाने कितनी संस्थाएं समारोह आयोजन कराने को तत्पर रहती हैं | यह एक मानक है रिकार्ड है | आज भी ७४ वर्ष की आयु में वे युवा जोश के साथ साहित्य को नयी-नयी ऊचाइयों पर लेजाने हेतु क्रियाशील हैं| वे निश्चय ही हिन्दी साहित्य की विकास यात्रा के अग्रगण्य साहित्यकार हैं| आशा है वे एक लम्बे समय तक हिन्दी साहित्य के पथदीप बने रहेंगे |
---डा श्याम गुप्त
सुश्यानिदी, के-३४८ , , एम् बी बी एस, एम् एस (सर्जन)
आशियाना लखनऊ २२६०१२. . साहित्याचार्य, साहित्यविभूषण
मो.-९४१५१५६४६४ .
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (05-11-2017) को
जवाब देंहटाएं"हारा सरल सुभाव" (चर्चा अंक 2779)
पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
कार्तिक पूर्णिमा (गुरू नानक जयन्ती) की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'