पुस्तक - पहला शूद्र (वैदिककालीन उपन्यास)
लेखक - सुधीर मौर्य
प्रकाशक - रीड पब्लिकेशन
पृष्ठ - १५२ पेपरबैक
ISBN-13: 978-8190866446
समीक्षक - गंगाशरण सिंह
Sudheer Maurya जी जी ऐसे लेखक मित्र हैं जो अमूमन न मुझे पढ़ते हैं न मैं उन्हें :)कहा जा सकता है कि हमारी मित्रता के बीच हमारा लिखना पढ़ना आड़े नही आता सुधीर जी लोकप्रिय लेखकों की उस नयी जमात से हैं जिनका अपना एक बड़ा पाठक वर्ग है और उनके मध्य अपने सरस ( ये दूसरा वाला सरस है....रस वाला) लेखन के चलते वो काफी मक़बूल हैं।
पिछले दिनों पहली बार उनकी जो किताब मैंने पूरा पढ़ा वो है ---- " पहला शूद्र " और इस उपन्यास ने मुझे उनसे ये कहने को बाध्य किया कि वो इस तरह का गंभीर लेखन भी किया करें ताकि मेरे जैसे तथाकथित गंभीर पाठक भी उन्हें पढ़ सकें.:)
पिछले दिनों पहली बार उनकी जो किताब मैंने पूरा पढ़ा वो है ---- " पहला शूद्र " और इस उपन्यास ने मुझे उनसे ये कहने को बाध्य किया कि वो इस तरह का गंभीर लेखन भी किया करें ताकि मेरे जैसे तथाकथित गंभीर पाठक भी उन्हें पढ़ सकें.:)
पहला शूद्र पौराणिक युग की कथा है, जिसके नायक हैं उस युग के महान वीर दिवोदास के पुत्र सुदास। अपने नाम के "सु" को सार्थक करते हुए एक ऐसे महानायक जिन्होंने अप्रतिम साहस और वीरता का परिचय देते हुए अपने समय में अजेय योद्धा की ख्याति अर्जित की।
पुराण काल जहाँ शौर्य और वीरता के अनगिनत उदाहरणों से भरा पड़ा है वहीँ दूसरी तरफ़ शासक और पुरोहित वर्ग के षड्यंत्रों के किस्से भी कम नही हैं। स्वयं के प्रभुत्व को स्थापित करने और पूज्य होने की लालसा में उस समय के पुरोहित गणों ने ऐसे ऐसे राजनीतिक षडयंत्रों को जन्म दिया जिसने तत्कालीन समाज को लम्बे लम्बे युद्धों में उलझाये रखा और अपार जन धन की हानि हुई।
दिवोदास, इंद्र, वशिष्ठ, अहिल्या, विश्वामित्र, अगस्त्य, और अन्य बहुत से छोटे बड़े पात्र मिलकर इस रचना की कथाभूमि को प्रशस्त करते हैं। कहानी के तथ्यों पर कोई टिप्पड़ी करना उचित इसलिए नही है क्योंकि उन रचनाओं से अब तक नही गुजरा हूँ जिन्हें पढ़कर सुधीर जी के मन में इस उपन्यास के बीज अंकुरित हुए। कहानी के विस्तार और प्रस्तुति में गजब का तालमेल है और इसीलिए रोचकता कहीं पर बाधित नही होती। प्रूफ़ की कुछ ग़लतियाँ हैं जो अगले संस्करण में सुधार ली जायेंगी ऐसी उम्मीद है। अपने सरस वाले स्वाभाव के अनुसार लेखक यहाँ भी चूकते नही बल्कि जहाँ भी ज़रा सा अवसर मिला रस भरपूर फैलाया है.:)
सुधीर जी, आपका प्रयास और विशेष कर कथानक के अनुरूप आपकी भाषा की प्रौढ़ता सराहनीय लगी। आशा करता हूँ कि आने वाली रचनाओं में छोटी मोटी खामियों को दुरुस्त करेंगे और आपका लेखन निरंतर प्रौढ़ हो, ये सस्नेह शुभकामना है।
इतनी बकवास समीक्षा कभी नहीं पढ़े-देखी ----- इसे समीक्षा कहना --स्वयं समीक्षा की अवमानना है---
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