पुरुषार्थ ...विश्व सत्यं शिवं सुन्दरं क्यों...... कहानी .डा श्याम गुप्त .....
पुरुषार्थ ...विश्व सत्यं शिवं सुन्दरं क्यों...... कहानी ...
------------------------------------------
आधुनिक विज्ञान, दर्शन, अद्यात्म व अनुभव किसी समारोह हेतु सभा-स्थल पर एकत्र हुए तो परिचय प्रारम्भ हुआ |
युवा ऊर्जा एवं ज्ञान से दीप्त विज्ञान ने बताया- मैं विज्ञान हूँ, प्रत्येक वस्तु व तथ्य के बारे में प्रयोगों पर विश्वास रखता हूँ, विस्तृत प्रयोगों के पश्चात ही प्रतिशत प्रतिफल के आधार पर निश्चित परिणाम के ज्ञान के पश्चात् ही सिद्धांत बनाता हूँ... मानव के उन्नत व प्रगति के कृतित्व हेतु |
ललाट पर दीर्घ कालीन व्यवहारिक ज्ञान से अनुप्राणित अनुभव ने कहा- मैं तो जीवन के लम्बे अनुभव के बाद नियम बनाता हूँ तत्पश्चात सिद्धांत एवं प्राणी को ज्ञान प्रदान कर उन पर चलने की प्रेरणा देता हूँ |
सुदर्शन व्यक्तित्व एवं शास्त्रीय ज्ञान से तेजस्वित दर्शन बोला- मैं तर्क व अनुभवों को शास्त्रीय तथ्यों की तुला पर तौल कर प्राणी को परमार्थ हित व सत्य के दर्शन कराता हूँ ताकि वह उच्च नैतिक आचरण एवं सत्य पर चले |
------------------------------------------
आधुनिक विज्ञान, दर्शन, अद्यात्म व अनुभव किसी समारोह हेतु सभा-स्थल पर एकत्र हुए तो परिचय प्रारम्भ हुआ |
युवा ऊर्जा एवं ज्ञान से दीप्त विज्ञान ने बताया- मैं विज्ञान हूँ, प्रत्येक वस्तु व तथ्य के बारे में प्रयोगों पर विश्वास रखता हूँ, विस्तृत प्रयोगों के पश्चात ही प्रतिशत प्रतिफल के आधार पर निश्चित परिणाम के ज्ञान के पश्चात् ही सिद्धांत बनाता हूँ... मानव के उन्नत व प्रगति के कृतित्व हेतु |
ललाट पर दीर्घ कालीन व्यवहारिक ज्ञान से अनुप्राणित अनुभव ने कहा- मैं तो जीवन के लम्बे अनुभव के बाद नियम बनाता हूँ तत्पश्चात सिद्धांत एवं प्राणी को ज्ञान प्रदान कर उन पर चलने की प्रेरणा देता हूँ |
सुदर्शन व्यक्तित्व एवं शास्त्रीय ज्ञान से तेजस्वित दर्शन बोला- मैं तर्क व अनुभवों को शास्त्रीय तथ्यों की तुला पर तौल कर प्राणी को परमार्थ हित व सत्य के दर्शन कराता हूँ ताकि वह उच्च नैतिक आचरण एवं सत्य पर चले |
धीर-गंभीर वाणी में अद्यात्म ने कहा – मैं परहित व परमार्थ कर्म को ईश्वर
प्रेरणा व ईश्वर- प्रणनिधान द्वारा जीव को सत्य व कल्याण पर चलने को
प्रेरित करता हूँ |
वे वाद-विवाद व तर्क-वितर्क द्वारा स्वयं को
अन्य से श्रेष्ठ सिद्ध करने में लगे थे कि लगे कि एक सुन्दर एवं तेजस्वी
युगल ने प्रवेश किया |
अपना परिचय दें श्रीमान, सभी ने कहा |
मैं कला हूँ – प्रत्येक वस्तु, तथ्य व कृतित्व को समुचित रूप से कैसे किया जाय इसका ज्ञान कराती हूँ ताकि वह सुन्दरतम हो | मैं ही श्रेष्ठ हूँ |
मैं ज्ञान हूँ उसका साथी कहने लगा – और मैं ही तो आप सब में अनुप्राणित हूँ, यदि मैं ही न रहूँ तो विज्ञान, अनुभव, अद्यात्म, दर्शन, कला..... सत्य का ज्ञान कैसे कर पायेंगे एवं अपने को कैसे व्यक्त करेंगे | मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूँ |
वे आपस में पुनः तर्क-वितर्क में उलझ गए | तभी कर्मठता से हृष्ट-पुष्ट काया वाले एक अन्य व्यक्ति ने प्रवेश किया एवं झगड़े का कारण जानकर हँसते हुए, बोला –
‘मैं ही आप सबको, संसार को व प्राणी को कृतित्व में प्रवृत्त करता हूँ मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूँ |’
सबने साश्चर्य पूछा, आप कौन है श्रेष्ठ्वर?
‘मैं कर्म हूँ |’
तभी सौम्य वेशधारी, ललाट पर चन्दन-लेप की शीतलता धारण किये हुए धर्म अवतरित हुआ और कर्म को लक्ष्य करके कहने लगा, ‘ परन्तु मित्र, तुम भी मेरे आधार पर चले बिना प्राणी को परमार्थ भाव पर उन्मुख नहीं कर सकते| अतः मैं श्रेष्ठतम हूँ |
एक ओर चुपचाप बैठे ‘प्राण’ ने वाद-विवाद में भाग लेते हुए कहा, मैं ही महानतम हूँ, जिस जीव के हेतु आप हैं, मैं ही तो उसमें समाहित रहता हूँ, तभी वह जीव अनुप्राणित होता है ...जीव कहलाता है |
उसी समय प्रतिभा से जगमगाते हुए आनन से महिमा मंडित एक अति तेजस्वी व्यक्तित्व ने प्रवेश किया, जिसके साथ-साथ ही एक छाया पुरुष भी चल रहा था | दोनों ही अश्विनी बन्धुओं की भाँति एक ही रूप थे ...रूप, रंग, आकार व तेज में एक समान थे |
एक कहने लगा,’ आप सब महान हैं परन्तु आप सबका अपना स्वयं का अस्तित्व ही क्या है अतः झगडे का कोई आधार ही नहीं |
‘ इसका क्या अर्थ ?’ सभी ने एक साथ पूछा |
‘मैं ही आप सबमें समाहित होकर एवं स्वयं में आप सबको समाहित करके सृष्टि के प्रत्येक कृतित्व में प्रवृत्त होता हूँ तभी विश्व एवं विश्व का प्रत्येक कृतित्व आकार लेता है एवं सत्यं, शिवं, सुन्दरं होता है |’
सुन्दरम..सुन्दरं.... आप कौन हैं श्रेष्ठ्वर, सभी एक साथ कहने लगे |
मैं पुरुषार्थ, अपने साथी की आत्मा हूँ न...यह मानव है यह मेरा शरीर है |
----------साधुवाद...साधुवाद....श्रेष्ठ है ..सत्य है ...यह कहते हुए वे सब उनमें प्रविष्ट होगये |
अपना परिचय दें श्रीमान, सभी ने कहा |
मैं कला हूँ – प्रत्येक वस्तु, तथ्य व कृतित्व को समुचित रूप से कैसे किया जाय इसका ज्ञान कराती हूँ ताकि वह सुन्दरतम हो | मैं ही श्रेष्ठ हूँ |
मैं ज्ञान हूँ उसका साथी कहने लगा – और मैं ही तो आप सब में अनुप्राणित हूँ, यदि मैं ही न रहूँ तो विज्ञान, अनुभव, अद्यात्म, दर्शन, कला..... सत्य का ज्ञान कैसे कर पायेंगे एवं अपने को कैसे व्यक्त करेंगे | मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूँ |
वे आपस में पुनः तर्क-वितर्क में उलझ गए | तभी कर्मठता से हृष्ट-पुष्ट काया वाले एक अन्य व्यक्ति ने प्रवेश किया एवं झगड़े का कारण जानकर हँसते हुए, बोला –
‘मैं ही आप सबको, संसार को व प्राणी को कृतित्व में प्रवृत्त करता हूँ मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूँ |’
सबने साश्चर्य पूछा, आप कौन है श्रेष्ठ्वर?
‘मैं कर्म हूँ |’
तभी सौम्य वेशधारी, ललाट पर चन्दन-लेप की शीतलता धारण किये हुए धर्म अवतरित हुआ और कर्म को लक्ष्य करके कहने लगा, ‘ परन्तु मित्र, तुम भी मेरे आधार पर चले बिना प्राणी को परमार्थ भाव पर उन्मुख नहीं कर सकते| अतः मैं श्रेष्ठतम हूँ |
एक ओर चुपचाप बैठे ‘प्राण’ ने वाद-विवाद में भाग लेते हुए कहा, मैं ही महानतम हूँ, जिस जीव के हेतु आप हैं, मैं ही तो उसमें समाहित रहता हूँ, तभी वह जीव अनुप्राणित होता है ...जीव कहलाता है |
उसी समय प्रतिभा से जगमगाते हुए आनन से महिमा मंडित एक अति तेजस्वी व्यक्तित्व ने प्रवेश किया, जिसके साथ-साथ ही एक छाया पुरुष भी चल रहा था | दोनों ही अश्विनी बन्धुओं की भाँति एक ही रूप थे ...रूप, रंग, आकार व तेज में एक समान थे |
एक कहने लगा,’ आप सब महान हैं परन्तु आप सबका अपना स्वयं का अस्तित्व ही क्या है अतः झगडे का कोई आधार ही नहीं |
‘ इसका क्या अर्थ ?’ सभी ने एक साथ पूछा |
‘मैं ही आप सबमें समाहित होकर एवं स्वयं में आप सबको समाहित करके सृष्टि के प्रत्येक कृतित्व में प्रवृत्त होता हूँ तभी विश्व एवं विश्व का प्रत्येक कृतित्व आकार लेता है एवं सत्यं, शिवं, सुन्दरं होता है |’
सुन्दरम..सुन्दरं.... आप कौन हैं श्रेष्ठ्वर, सभी एक साथ कहने लगे |
मैं पुरुषार्थ, अपने साथी की आत्मा हूँ न...यह मानव है यह मेरा शरीर है |
----------साधुवाद...साधुवाद....श्रेष्ठ है ..सत्य है ...यह कहते हुए वे सब उनमें प्रविष्ट होगये |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें