पिस रही चाहत एैसे
रोलर से गिट्टी जैसे
पास टका नहीं किञ्चित
सभी दगा देते परिचित
आशा जिधर लगता हूँ
उधर निराशा पाता हूँ
अपना हाल कहूँ कैसे
उड़ते से तिनके जैसे
पिस रही चाहत एैसे
रोलर से गिट्टी जैसे
पड़ा अकेला रोता हूँ
अपने आँशू पीता हूँ
कैसा जीवन का नाता
कुछ भी मन को न भाता
गरीबी झेल रहा एैसे
जल के बिन मछली जैसे
पिस रही चाहत एैसे
रोलर से गिट्टी जैसे
परिश्रम दिनभर करता हूँ
रोटी खातिर मरता हूँ
परिकर की किस्मत फूटी
अपनी छानी भी टूटी
जीवन अब बीते कैसे
लगता है दोजख जैसे
पिस रही चाहत एैसे
रोलर से गिट्टी जैसे
बिलख रहे बच्चे सारे
फूटी किस्मत के मारे
नंगे बदन दौड़ते हैं
हमसे खूब झगड़ते हैं
देदो अब मुझको पैसे
भूखे है बरसों जैसे
पिस रही चाहत एैसे
रोलर से गिट्टी जैसे
दुख में काट रहा जीवन
फिर भी आशा बादी मन
कभी खुशी भी आयेगी
हमको खूब हंसाएगी
होंगे आनन्दित कैसे
सागर की लहरों जैसे
पिस रही चाहत एैसे
रोलर से गिट्टी जैसे
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (22-07-2014) को "दौड़ने के लिये दौड़ रहा" {चर्चामंच - 1682} पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
sundar !!
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना ..
जवाब देंहटाएंहर बार वही टेक आती है तो यह गीत हुआ....अच्छे भाव हैं...
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