आस्था, विश्वास व श्रद्धा –
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तीनोँ अन्योनाश्रित शब्द हैं। सामान्यतया एक ही भाव मॆं प्रयुक्त होते हैं परंतु उनमेँ मूलत: निहित भाव का अंतर है । आस्था अपेक्षाकृत स्थूल है, विश्वास उससे सूक्ष्म है तथा श्रद्धा सूक्ष्मतम।
आस्था -- शब्द में मूल धातु है 'स्था' ,जिसका अर्थ है टिकना। आस्था शब्द का अर्थ हुआ किसी स्थान, विचार, वाणी, नीति, नियम, पर टिकना,आरूढ़ होना,अवलंब पाना, स्थापित होना -- इसका गौण अर्थ हुआ आदर ; भरोसा ...
--- आतिष्ठति अस्यामिति आस्था। आ समन्तात्स्थानं गतिनिवृत्तिरास्था। ‘ष्ठा गतिनिवृत्तौ’।
आस्था – आ =चारोँ ओर—प्रत्यक्ष .एवँ ..स्था = गति से निवृत्ति=स्थित = दृढ़ता – टिक जाना ..
--आस्था = आ + स्था = (आ) अर्थात हर प्रकार से यानि प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द आदि प्रमाणों से सुपरिक्षित करके यानि तर्क और ऋषि मुनियों के उपदेशों से, विज्ञान और सृष्टिक्रम से सत्य को जानना और फिर उस पर (स्था) अर्थात स्थिर हो जाना, विचलित न होना..
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विश्वास-- विश्वास में 'वि' उपसर्ग विशिष्ट है, विशेष प्रकार की साँस । विशेष रुप से श्वास लेना । आत्मबल देने वाली साँस । प्राणों के संबंध के कारण ऐसी प्रतीति ,जिसमें संशय लेश मात्र भी संशय न हो । विश्वास चेतना का व्यापार है ।
--- विश्वसनं विश्वासः। “समौ विस्रम्भविश्वासौ” - अमरकोष। -- वि विशेषेण/निश्चयेन/स्थैर्येण श्वसनं प्राणनं विश्वासः। ‘श्वसँ प्राणने’।
विश्वास- =श्वा = प्राण धारण करना ..वि =विशिष्ट == निश्चय, धैर्य= स्थिरता -–आश्वस्त
---- यदि प्राणों का उच्छलन न हो तो विश्वास प्राणवान् नही होता है ।
---अत: विश्वास का भी यही अर्थ है कि झूठ , छल, कपट और अन्याय को छोड़कर सत्य को ठीक ठीक जान कर उसका आचरण करना । सब प्रकार से सत्य जानना सत्य ही बोलना और सत्य पथ पर चलना ही विश्वास कहलाता है।
---- लेकिन यदि यहां चेतना सो जाय तो, वही 'अंधविश्वास'
बन जायेगा ।
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श्रद्धा - श्रद्धा – श्रत धा --- श्रत---उपसर्ग --- वैदिक वांग्मय शब्द है --- निघंटु, यास्काचार्य-- = सत्य. ऋत.. एवम् धा = धारण करना अर्थात --- श्रद् + धा = सत्य को हृदय में धारण करना ।
श्रद्धा उन्नत, परमोन्नत चेतना का व्यापार है..
----- अत: श्रद्धा में विश्वास एवं सम्मान का तत्त्व निहित है। व्यक्ति या वस्तु विचार , तथ्य जिसे हम सत्य समझें, जिस पर विश्वास करें और जिसका हम सम्मान करें, वह हमारी श्रद्धा का पात्र है।
----- श्रत्। श्रद्धा। इत्था। ऋतमिति सत्यस्य॥ (निघण्टु) श्रद्धानं श्रद्धा। “श्रद्धा सम्प्रत्ययः स्पृहा” (अमरकोष)। श्रत्सत्यस्य धानं धारणं श्रद्धानं श्रद्धा --- श्रत् n. या श्र॑द् = सत्य, ‘truth, faithfulness’;
----- श्रद्धा = श्रत् + धा = (श्रत्) सत्य को (धा) धारण करना अर्थात जैसा कि आस्था के सम्बंध में बताया गया है तर्क, प्रमाण, विज्ञान, सृष्टिक्रम, वेद-शास्त्रों के अनुसार सत्य को जानना और उसे सदैव धारण करना श्रद्धा कहलाती है।
---- धर्म और ईश्वर के सम्बंध में यह नहीं है कि यह तो अपनी अपनी श्रद्धा है।
सत्य को
जानना और उसका जीवन में आचरण करना ही धर्म कहलाता हैं जो वेद शास्त्रों मे वर्णित
हे
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